Thursday, September 18, 2008

मारिया के लिए ‘भगवान का घर’ है हरिद्वार


देहरादून। आज से लगभग 28 वर्ष पहले मात्र कुछ दिनों के लिए भारत आई जर्मन लेखिका मारिया विर्थ ने कभी नहीं सोचा होगा कि वे शायद हमेशा के लिए यहीं की होकर रह जाएंगी। भारत में रुकने की उनकी इच्छा के पीछे हरिद्वार एक बड़ा कारण बना। सन 2006 में जर्मन भाषा में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘वॉन गुरुस, बॉलीवुड एंड हेलिजेन कुएहेन’ के जल्द आ रहे अंग्रेजी अनुवाद में उत्तराखंड राज्य और हरिद्वार की आध्यात्मिक खूबियों का बखान किया गया है। सन 1974 में अपनी पहली भारत यात्रा के दौरान यहां की गर्मी, भिखारियों, भारी भीड़ और ऐसी ही अन्य बातों के चलते मारिया ने मन ही मन सोचा कि अब वे कभी यहां वापस नहीं आएंगी लेकिन सन 1980 में जर्मनी से ऑस्ट्रेलिया की अपनी यात्रा के दौरान उनके एक मित्र ने उनसे यहां ठहरने को कहा।मनोविज्ञान की पढ़ाई पूरी कर चुकी मारिया यह सोचकर ऑस्ट्रेलिया जा रही थीं ताकि वे देख सकें कि क्या वहां उनके रहने और काम करने लायक परिस्थितियां हैं। उस बात को 28 बरस बीत गए और मारिया आज भी यहीं हैं और वे हरिद्वार को ईश्वर का घर मानती हैं।सन1980 में जिस समय वे हरिद्वार आईं, उन्हें लगा कि यहां कोई बड़ा उत्सव हो रहा है। उन्हें इस बात की कोई जानकारी नहीं थी कि यहां अर्धकुंभ मेला लगा हुआ है। कमरे खाली न होने की वजह से उन्हें एक पर्यटक बंगले की छत पर रात बितानी पड़ी। मेले की भीड़भाड़ में उनकी मुलाकात दो गुरुओं से हुई जिनके माध्यम से मारिया ने एक दूसरे ही भारत का साक्षात्कार किया। वे गुरु थे- आनंदमयी मां और देवरहा बाबा।मारिया कहती हैं कि, “मैंने उनकी आंखों में देखा और मुझे लगा कि उनकी आंखों के अंदर असीम शांति है। शायद यह प्रेम था जो मैं उनके प्रति महसूस कर रही थी”। उसके बाद मारिया का परिचय भारत की प्राचीन समृद्ध विरासत और इसके ज्ञान से हुआ। वे नई पुरानी आध्यात्मिक किताबों में डूब गईं। इसके बाद उनके जीवन में परिवर्तन आना शुरू हुआ और वे एक एक कर अनेक गुरुओं के संपर्क में आईं।मारिया कहती हैं कि, “हर एक के पास मुझे कुछ देने को था। रामन्ना महर्षि ने मुझे कश्मीर के शैव मत के बारे में बताया जो सारी बातें समझने में सहायक हुआ”। मारिया कहती हैं कि, “यहां आकर मुझे पता चला कि भारत का प्राचीन दर्शन कितना समृद्ध है। मैंने जाना कि सभी मनुष्य एक ही महासागर में अलग-अलग धाराओं के समान हैं और अंतत: इनको इसी सागर में विलीन हो जाना है। इसलिए धारा के अंत अथवा व्यक्ति की मृत्यु से कोई खास फर्क नहीं पड़ता क्योंकि सागर ही स्थायी है”।मारिया ने लगातार सात वर्षों तक भारत भ्रमण किया है और विभिन्न गुरुओं से मुलाकात की। इस दौरान उन्हें कभी नहीं लगा कि वे अपने घर में नहीं हैं। इसके बाद ही उनके मन में खयाल आया कि वे भारत के आध्यात्मिक पहलू को ध्यान में रखकर एक किताब लिखें। वे भारत का वह रूप उजागर करना चाहती थीं जिससे पश्चिम के लोग अनभिज्ञ थे। मारिया मानती हैं कि भारतीयों के पास प्राचीन दर्शन और ज्ञान का अद्भुत खजाना है और भगवान के प्रति आस्था उनमें स्वाभाविक है। मारिया, जर्मन और भारतीय पत्रिकाओं के लिए लिखती हैं।उनका पहला आलेख वर्ष 1981 में प्रकाशित हुआ था जो ‘अद्वैत वेदांत’ पर आधारित था। मारिया कहती हैं कि वे लेखन को लेखकीय गंभीरता से नहीं लेतीं और अपने मनोभावों को कागज पर उतारती जाती हैं। उनकी इच्छा रहती है कि उनका लिखा हुआ लोगों के मन को छुए। इसलिए वे एकदम साधारण भाषा में गहरी से गहरी बात कहने में यकीन करती हैं।यह पूछे जाने पर कि अपनी हालिया जर्मनी यात्रा के दौरान उन्होंने भारत के बारे में क्या कहा, वे खिलखिला उठती हैं और कहती हैं कि, “मैंने सिर्फ अच्छी बातें ही कहीं हैं। जैसे मैंने कहा कि भारत में और विशेषकर हरिद्वार में कोई ऐसी बात नहीं देखी जिसकी बुराई की जा सके। यही बात मुझे यहां रहने के लिए प्रेरित करती है। भारत आकर ही मैंने यह जाना कि एक देश के लिए प्रेम के मायने क्या हैं”संभार हिन्दी न्यूज़

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