Thursday, November 26, 2009

यौन शोषण की शिकायतों को दबाने व सुप्रीम कोर्ट के दिशा निर्देशों की धज्जियाँ

यौन शोषण की शिकायतों को दबाने व सुप्रीम कोर्ट के दिशा निर्देशों की धज्जियाँ उड़ाने में माहिर पिटकुल अधिकारियों द्वारा अपनाये गये हथकण्डों का खुलासा करने में सूचना का अधिकार एक धारदार हथियार साबित हुआ।
सूचना का अधिकार के तहत, २६ मई २००९ को पिटकुल में प्राप्त यौन शोषण सम्बन्धी शिकायतों पर कृत कार्यवाही का ब्यौरा व जाँच समिति के सदस्यों के नाम व पदनाम मांगे जाने से अधिकारियों में हड़कंप मच गय तथा परिणाम स्वरुप नयी कमेटी का गठन १२ जून २००९ को कर दिया गया जिसका अध्यक्ष उत्तराखण्ड राज्य महिला आयोग की अध्यक्षा को बनाया गया है।
अधिनियम के तहत प्राप्त दस्तावेज़ों ने पिटकुल अधिकारियों द्वारा प्रकरण को दबाने की कलई खोल दी।
इस प्रकरण में कई शर्मनाक पहलू उजागर हुए जो निम्न प्रकार हैं :-१) ९ जनवरी २००७ को एक महिला अवर अभियन्ता द्वारा एक पुरुष अवर अभियन्ता पर यौन शोषण का आरोप लगाया।२) शिकायत पर कार्यवाही करते हुए १२ जनवरी २००९ को सुप्रीम कोर्ट की अवमानना करते हुए जाँच एकल समिति (पुरुष) को सौंप दी जबकि जांच समिति में कम से कम तीन सदस्य तथा अध्यक्ष व आधे सद्स्य महिलाये होनी चाहिय थी(सुप्रीम कोर्ट द्वारा विशाका बनाम रजास्थान राज्य)
३)जाँच आधिकरी उपमहाप्रबन्धक कमल कान्त ने जाँच शुरु की किन्तु पी.सी.ध्यनी की युनियन व फ़ोन पर मिली धमकी के चलते जाँच आधिकरी नेजाँच से इन्कार किया(पत्राँक १९८/ई टी सी आर/इन्क्वायरी दि. १६/०१/०७)
४) प्रबन्ध निदेशक ने पत्राँक १७८/प्र. नि./पिटकुल/ई-११ दिनाँकित २० जनवरी २००७ को पुनः सुप्रीम कोर्ट की अवमानना करते हुए तीन सदस्यीय (तीनों पुरुष) समिति का गठन किया गया।
५) इस समिति का अध्यक्ष जे. पी. तोमर लगभग डेढ वर्ष पूर्व सेवा निवृत्त हो चुका है।
६) २६ मई २००९ तक सूचना के अधिकार के तहत सूचना माँगे जाने तक मामला लगभग २ वर्ष ६ माह तक लम्बित रहा ।
७) १२ मई २००९ को नई जांच समिति का गठन किया गया जिसका अध्यक्ष राज्य महिला आयोग की अध्यक्षा को बनाया गया है।
८) नई समिति के गठन तक दोनों पक्षों में कोई समझौता हुआ था। इस समिति के गठन के बाद एक जनसेवक द्वारा इस प्रकरण को नई समिति के सुपुर्द करने हेतु पिटकुल अधिकारियों को एक ज्ञापन दिया गया।
९) उक्त ज्ञापन से पिटकुल अधिकारियों में एक बार फ़िर हड़कंप मच गया और आनन फ़ानन मे पुरानी जाँच समिति के सदस्यों के समक्ष दोनों पक्षों मे. १३ जुलाई २००९ को समझौता दर्शाया गया है जो कानूनी रूप से अवैध है।
यहाँ गौरतलब है कि यौन शोषण की शिकायत को ९० दिनों के भीतर निस्तारित करने के बजाय लगभग ढाई वर्ष तक लम्बित रखा गया। इसके पीछे क्लर्क से वरिष्ठ प्रबन्धक बने कर्मचारी व अधिकारि युनियन के अध्यक्ष पी.सी.ध्यानी ही हैं क्योंकि आरोपित अधिकारी ध्यानी की युनियन का न केवल सक्रिय सदस्य है बल्कि ध्यानी का एक मोहरा है जो ध्यानी के लिए कुछ भी कर सकता है।
अब प्रश्न उठता है कि लगभग ढाई वर्षों तक न्याय की राह देखने वाली महिला अधिकारी ने अचानक समझौता कैसे कर लिया । विभाग से छ्न कर आने वाली खबरों को यदि सच माना जाये तो उक्त महिला अधिकारी ने एक लाख रुपये तथा पति के स्थानान्तरण के आश्वासन के बाद ही समझौते पर हस्ताक्षर किये हैं ।
यदि इसमें ज़रा सी भी सच्चाई है तो निश्चित रुप से यह एक कलंक से कम नहीं क्योंकि कुछ महिलायें किसी पुरुष अधिकारी पर आरोप लगाकर अपना हित साध सकती हैं किन्तु इसक एक दूसरा पहलू भी है कि एक जूनियर अधिकारी अपने ही विभाग से उलझने की हिम्मत नहीं कर सकती और अधिकारियों के दबाव के चलते उसने इस समझौते पर हस्ताक्षर किये हों ।
चाहे जो भी पहलू हों किन्तु इस प्रकरण को पुनः जाँच कमेटी को सुपुर्द करके निष्पक्ष जाँच करायी जाए

पिट्कुल अधिकारियों ने इंसानियत की सारी हदें तब पार कर दी

पिट्कुल अधिकारियों ने इंसानियत की सारी हदें तब पार कर दी जब एक उप महाप्रबन्धक के विरुद्ध यौन शौषण की शिकायत दर्ज कराने वाली महिला अवर अभियन्ता(प्रशिक्षु) पर स्थानान्तरण के लिये झूठा आरोप लगाकर आरोपी उपमहाप्रबन्धक को ना केवल आरोपमुक्त किया गया बल्की उसे पदोन्नत करके मलाईदार पद से भी नवाजा गया।सूचना का अधिकार के तहत प्राप्त दस्त्तावेजों से पिट्कुल मे व्याप्त नैतिक व आर्थिक भ्रष्टाचार क परत दर परत खुलासा निम्न प्रकार है:-
१.) मुख्यालय पर तैनात एक महिला अवर अभियन्ता(प्रशिक्षु) ने एक उप महाप्रबन्धक के विरुद्ध यौन शौषण की शिकायत २० जून २००८ को प्रबन्ध निदेशक के समक्ष की गयी।
२.) २० जून २००८ को ही निदेशक(मा.स.) द्वारा नोट्स एवं ऑर्डर तैयार करके प्रबन्ध निदेशक से अनुमोदन प्राप्त कर लिया गया।
३.)२० जून २००८ को तैयार नोट्स एवं ऑर्डर में सुप्रीम कोर्ट के दिशा निर्देशों का हवाला देते हुए। इन्टरनेट से डाउनलोड किये गये १ से ४ तक कुल चार पृष्ठ के दिशा निर्देशों को भी संलग्न किया गया।
४.) निदेशक(मा.स.)द्वारा तैयार उक्त नोट्स एण्ड ऑर्डर के साथ संलग्नक के रूप में सुप्रीमे कोर्ट के दिशा निर्देशों के पेज संख्या ४ पर बिन्दु ७ पर स्पष्ट रूप से लिखा है कि जाँच समिती क गठन इस प्रकार किया जाये कि समिती का अध्यक्ष महिला होने के साथ साथ आधे सदस्य भी महिलायें होनी चाहिये।
५.) इस प्रकरण का सबसे शर्मनाक पहलू यह है कि रिश्वत खा कर उच्च अधिकारियों द्वारा यौन शौषण कि शिकायत को ऑफ़िशियल मिस्कण्डक्ट की शिकायत मे बदल दिया।
६.) २५ जून २००८ तक कोई कार्यावाही नही होने के कारण शिकायत कर्ता द्वारा आरोपि उपमहाप्रबन्धक द्वारा भेजे गये एस एम एस की प्रति भी संलग्न की।
७.) निदेशक(मा.स.) द्वारा पुन: नोट्स एण्ड ऑर्डर तैयार कर प्रबन्ध निदेशक से अनुमोदन प्राप्त किया।
८.) इस बार निदेशक(मा.स.)द्वारा अपने नोट्स एण्ड ऑर्डर में यौन शौषण के स्थान पर आफिशियल मिसकण्डक्ट शब्द का प्रयोग किया गया। ॰ इससे शर्मनाक और क्या हो सकता था कि एक अबला द्वारा अपना सम्मान बचाने के लिये की गयी शिकायत को निदेशक(मा॰ स॰) व अन्य अपनी कमाई का जरिया बनाकर पहले यौन शोष्ण का हव्वा खडा करेगें और रिशवत खाकर जाँच का विषय ही बदल देंगे।॰ इस प्रकार एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट अवमानना करते हूए पिटकुल अधिकारियों द्वारा एक अबला को चरित्र हनन किया है क्योंकि उक्तमहिला को ही स्थानान्तरण के लिये झूठी शिकायत करने का दोषी करार करते हुए आरोपित उपमहाप्रबन्धक को आरोप मुक्त करके पदोन्नत किया गया ।
९.) एक बार फ़िर सुप्रीम कोर्ट की अवमानना करते हुए निदेशक(म.स.)ने यौन शौषण की शिकायत को ऑफ़िसियल मिसक्ण्डक्ट मे बदल दिया।
१०.) जाँच महाप्रबन्धक(सी एंड पी) एस.सी.गोयल को सौंपी गयी तथा महाप्रबन्धक(मा.स.)को प्रिजंइन्टिन्ग ऑफ़िसर बनया गया।
११.) यौन शौषण की शिकायत पर जाँच के दौरान, आरोपित अधिकारी पीड़ित महिला व्यक्तिगत रूप से क्रास परिक्षण नहीं कर सकता जब तक पीड़ित महिला इसके लिये अनुमति न दे।
१२.)इस प्रकरण में पीड़िता का क्रास परिक्षण न केवल आरोपित अधिकारी द्वारा किया बल्की आरोपित के कानूनी सहायक ने भी पीड़िता का क्रास परिक्षण किया।
१३.) क्या ये सम्भव है कि एक पद में सब से छोटे स्तर(अवर अभियन्ता) पर कार्यरत एक महिला(प्रशिक्षु) अधिकारी अपने ही विभाग के दो महाप्रबन्धकों ,एक उप महाप्रब्न्धक व एक कानूनी सहायक की उपस्थिति में अपना बयान दे सकती है और उनके द्वारा क्रास परिक्षण मे दागे गये प्रश्नों का उत्तर दे सकती है।
१४.) इससे पीड़िता के ऊपर मानसिक दबाव बनाकर आरोपित के पक्ष में बयान दर्ज कराया गया है।
१५.) आरोपित अधिकारी ने अपने मोबाईल से पीड़िता के मोबाईल पर भेजे गये मैसेज के बारे में सफ़ाई दी कि उसका मोबाईल किसी ने हैक करके पीड़िता के मोबाईल पर मैसेज भेजे गये हैं इसके समर्थन में समाचार पत्र में प्रकाशित एक लेख की छायाप्रति लगायी गयी है।

वरिष्ठ प्रबन्धक का सफ़ेद झूठ

वरिष्ठ प्रबन्धक का सफ़ेद झूठ पिट्कुल अधिकारी अपने कुकृत्यों पर पर्दा डालने कि नापाक कोशिश करते हुए एक के बाद एक गलती करते जा रहे हैं। इसी क्रम में एक नमूना वरिष्ठ प्रबन्धक पी.सी. ध्यानी नें २६ सितम्बर २००९ को एक राजनैतिक पार्टी के माहिला प्रकोष्ठ की अध्यक्षता द्वारा पिट्कुल में यौन शौषण मामलों को दबाने के विरोध में कुछ समाचार पत्रों मे प्रकाशित समाचारों के आधार पर निष्पक्ष जाँचें व दोषियों पर कार्यवाही हेतु २२ सितम्बर २००९ को ज्ञाँपन दिया था।उक्त पत्र द्वारा वरिष्ठ प्रबन्धक ने महिला प्रकोष्ठ अध्यक्षा को आश्वस्त किया कि समाचार पत्रों में समाचार तोड़ मरोड़ कर पेश किया गया जिसके समर्थन में कुछ काम कागजात भी अध्यक्षा को भेजे गये। किन्तु ध्यानी द्वारा अध्यक्षा को भेजे गये साक्ष्य अपने आप में झूठ का पुलिन्दा हैं क्योँकि यौन शौषण की पहली शिकायत एक महिला अवर अभियन्ता द्वारा एक पुरुष अभियन्ता के विरुद्ध ९ जनवरी २००७ को दर्ज करायी गयी थी जिस पर कार्यवाही करते हुए पी.सी.ध्यानी ने १२ जनवरी २००७ को नोट्स एवं ऑर्डर का ड्राफ़्ट तैयार किया तथा महाप्रबन्धक(मा.स.) द्वारा १२ जनवरी २००७ को ही सुप्रीम कोर्ट द्वारा विशाखा व अन्य बनाम राजस्थान सरकार व अन्य केस में जारी दिशा निर्देशों तथा दि सैक्सुअल हैरास्स्मैन्ट ऑफ़ वॉमन एट वर्क प्लेस(प्रिवेन्शन,प्रोहिविशन एण्ड रिड्रेशल)बिल २००६ के विरुद्ध एकल जाँच समिति गठित करते हुए उपमहाप्रबन्धक कमल कान्त को जाँच सौंप दी गयी। पी. सी. ध्यानी व अन्य लोगों द्वारा कमल कान्त दबाव व फ़ोन पर मिली धमकी के चलते कमल कान्त नेअपने पत्रांक १९८/ई टी सी आर/एन्क्वाइरी दिनांक १६ जनवरी २००७ का जाँच करने से मना कर दिया। २० जनवरी २००७ को प्रबन्ध निदेशक द्वारा नयी जाँच समिती गठिथ की गयी इस बार भी सुप्रीम कोर्ट के दिशा निर्देशों के विरुद्ध तीन सदस्य समिती बनी किन्तु सुप्रीम कोर्ट के निर्देश अनुसार समिती का अध्यक्ष व कम से कम आधे सदस्य महिलाएं होने चाहिये थे किन्तु इस समिती में तीनों सदस्य पुरुष थे। समिती को ९० दिनों में जाँच पूरी करनी चाहिये थी किन्तु ९ जनवरी २००७ से २६ मई २००९ तक कोई प्रगति नहीं हुई। जो कि सुप्रीम कोर्ट की अवमानना का प्रकरण बनता है। पी.सी.ध्यनी ने प्रकोष्ठ अध्यक्षा को भेजे गये पत्र में उक्त प्रकरण में समझौता पत्र भी साक्ष्य के रूप मे भेजा गया है। यहाँ गौरतलब है कि ध्यानी ने जो समझौता पत्र भेजा है वह कानूनी रूप से वैध्य नहीं है क्योंकि वह समझौता २० जनवरी २००७ को गठित तीन सदस्य समिती के दो सदस्यों के समक्ष होना दर्शाया गया है जिसका अध्यक्ष लगभग डेढ वर्ष पूर्व सेवानिवृत हो चुका है तथा २६ मई २००९ को सूचना का अधिकार में माँगी गयी सूचना के बाद १२ जून २००९ को नई कमेटी स्वत: ही समाप्त हो चुकी है। यानी जन्ता कि आँखों में धूल झोंकते हुए एक ऐसी समिती के समक्ष समझौता दिखाया गया है जो कि अस्तित्व में ही नहीं है।

उनकी यह डिग्री फर्ज़ी है

सूचना का अधिकार के तहत पिटकुल में कार्यरत लिपिक प्रबन्धक के पद तक पहुँचे कर्मचारी अधिकारी यूनियन के अध्यक्ष पी.सी.ध्यानी द्वारा अपनी श्रीनगर गढ्वाल तैनाती के दौरान बरेली कालेज बरेली से संस्थागत छात्र के रूप में एल. एल. बी. की कथित उपाधी प्राप्त की है।विभागीय सूत्रों का कहना है कि उनकी यह डिग्री फर्ज़ी है इसी तथ्य की तह तक पहुँचने की नियत से हमारे द्वारा सूचना का अधिकार अधिनियम के तहत पिटकुल से सूचनायें चाहीं थी कि ध्यानी की डिग्री कि सत्यापित प्रतिलिपि, एल. एल.बी. की शिक्षा ग्रहण करने से पूर्व ली गयी विभागीय अनुमति तथा संस्थागत छात्र के रूप में जरूरी ७५ प्रतिशत उपस्थिति हेतु आवश्यक विभागीय अवकाशों का विवरण तथा सेवा पंजिका की सत्यापित प्रतिलिपि।
जिसके जवाब में केवल एल. एल.बी. तृतीय वर्ष का अंक पत्र उपलब्ध कराया गया । अधिनियम के तहत विभागीय अपील का भी वही आदेश था कि शेष सभी सूचनायें पी.सी.ध्यनी की व्यक्तिगत सूचनायें है तथा इसको उपलब्ध नही कराया जा सकता । हालाँकि यह प्रकरण अब उत्तराखण्ड राज्य सूचना आयोग में लाम्बित है तथा १८ दिसम्बर २००९ को इस पर पहली सुनवाई की जायेगी ।जिस प्रकार पिटकुल द्वारा ध्यानी द्वारा काथित एल. एल बी. करने के दौरान अवकाशों का विवरण न देने से डिग्री फर्ज़ी होने कि बात को बल मिलता है।यहाँ आपको बताते चलें कि इसी कथित एल. एल.बी. उपाधि के आधार पर ध्यानी को यौन शोषण की शिकायतों का निस्तारण करने के लिये गठित कमेटी में मैम्बर लीगल बैकग्राउण्ड यानी कानूनी प्रष्ठ भूमि का सदस्य बनाया गया।और यहाँ यह और भी महत्वपूर्ण इस लिये हो जाता है क्योंकि पिटकुल के गठन से आज तक यौन शोषण कि दो शिकायतें प्राप्त हुई और दोनों ही केसों में सुप्रीम कोर्ट के दिशा निर्देशों को ताक पर रखकर रफ़ा-दफ़ा कर दिया गया। इससे स्पष्ट हो जाता है या तो ध्यानी को कानूनी ज्ञान नही है य फिर इन्होंने रिश्वत लेकर जानबूझ कर सुप्रीम कोर्ट की अवमानना करवायी है।चूंकि पी. सी. ध्यानी ने अकूत धन अर्जन के साथ-साथ शासन, प्रशासन व सत्ता कि गलियारों में गेहरी पैठ बना ली है जिसके चलते इनके विरुद्ध सरकार द्वारा शायद ही कोई कार्यवाही की जाये।

यौन शोषण की शिकायत के निस्तारण की प्रक्रिया शुरू कर दी

जहाँ एक ओर राष्ट्रीय स्तर पर महिलाओं को समान अधिकारों की बहस छिड़ी है वहीं दूसरी ओर कामकाजी महिलाओं द्वारा यौन शोषण की शिकायत करने पर भी उल्टे महिलाओं को ही दोषी ठहराया जा रहा है।निदेशक(मा.स.) ने तो इन्सानियत की सारी हदें तब पार कर दी जब उनके द्वारा यौन शोषण की शिकायत को ऑफ़िशियल मिसकण्डक्ट में बदला गया।
हुआ कुछ यूं कि पिटकुल मुख्यालय पर तैनात एक महिला अवर अभियन्ता(प्रशिक्षु) द्वारा मुख्यालय में ही तैनात एक उपमहाप्रबन्धक की अश्लील हरकतों से परेशान होकर पहले तो निदेशक(मा.स.) से मौखिक शिकायत की तथा १९ जून २००८ को छुट्टी पर जाने से पूर्व भी उसने निदेशक(मा.स.) से मौखिक शिकायत की। उसके बाद पीड़िता ने २० जून २००८ को प्रबन्ध निदेशक के नाम लिखित शिकायती पत्र भेजा।
चूंकि निदेशक(मा.स.) से पीड़िता ने मौखिक शिकायत २० जून २००८ से पूर्व ही कर दी थी तथा जब पीड़िता १९ जून २००८ से तीन दिन के अवकाश का प्रार्थना पत्र लेकर महाप्रबन्धक(मा.स.) से मिली तब महाप्रबन्धक(मा.स.) व निदेशक(मा.स.)दोनों ने पीड़िता के मूड को भाँपकर यौन शोषण की शिकायत के निस्तारण की प्रक्रिया शुरू कर दी जिसके फ़लस्वरूप उन्होंने इन्टरनेट से यौन शोषण की शिकायत पर सुप्रीम कोर्ट के दिशा निर्देश ढ़ूंढ़ना शुरू कर दिये तथा १९ जून २००८ को ही इन्टरनेट पर एक वेबसाइट

से चार पेज के दिशा निर्देश को प्रिंट किया गया।गौरतलब है कि पीड़िता ने शिकायत २० जून २००८ को की थी फिर यौन शोषण की शिकायतों के निस्तारण हेतु दिशा निर्देश १९ जून २००८ क्यों प्रिंट किये गये?मतलब एकदम साफ है कि पीड़िता कई बार मौखिक रूप से निदेशक(मा.स.) व महाप्रबन्धक(मा.स.)से उपमहाप्रबन्धक द्वारा की जा रही अश्लील हरकतों की शिकायत कर चुकी थी तथा १९ जून २००८ को अन्तिम बार पीड़िता द्वारा महाप्रबन्धक(मा.स.) से ये मौखिक शिकायत की गयी। पीड़िता के तीन दिन की छुट्टी पर जाने से महाप्रबन्धक(मा.स.) व निदेशक(मा.स.)परेशान हो गये तथा उन्होंने यौन शोषण की लिखित शिकायत से पूर्व ही शिकायत के निस्तारण की प्रक्रिया शुरू करते हुए इन्टरनेट से इस प्रकार की शिकायतों के निस्तारण हेतू सुप्रीम कोर्ट के चार पेज के दिशा निर्देश प्रिंट कर लिये।
२०जून २००८ को जैसे ही पीड़िता ने लिखित शिकायत मुख्यालय में जमा करायी वैसे ही मानव संसाधन विभाग हरकत में आ गया और आनन-फ़ानन में एक नोट्स एण्ड ऑर्डर तैयार किया गया तथा उसी दिन प्रबन्ध निदेशक से अनुमोदन भी प्राप्त कर लिया गया जिसमें स्पष्ट रूप से लिखा गया कि यौन शोषण की इस शिकायत का निस्तारण सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों के अनुरूप किया जाये तथा प्रशासनिक कारणों के आधार पर आरोपी का स्थानान्तरण देहरादून से श्रीनगर किया जाये ।गौरतलब है कि प्रबन्ध निदेशक से अनुमोदन मिलने के पश्चात शुरू हुआ आरोपी को बचाने के लिए सौदेबाज़ी का दौर और यदि विभागीय सूत्रों से प्राप्त जानकारी को सच माना जाये तो आरोपी से आरोप मुक्त करते हुए पदोन्नति के साथ देहरादून वापस लाने हेतू मोटी रकम माँगी गयी ।इस खेल के बड़े खिलाड़ी तत्कालीन प्रबन्ध निदेशक , निदेशक (मा.स.), महाप्रबन्ध (मा.स.), प्रबन्धक (मा.स.), महाप्रबन्धक (सी. एण्ड पी.) हैं, जिनको जाँच अधिकारी नियुक्त किया गया था ।
रिश्वत खाकर मानव संसाधन स्कन्ध ने २५ जून २००८ को एक नया नोट्स एण्ड ऑर्डर तैयार किया तथा निदेशक (मा.स.) के हस्ताक्षरों से प्रबन्ध निदेशक का अनुमोदन प्राप्त किया गया । जिसमें लिखा गया कि -
१) श्री अनिल यादव का स्थानान्तरण देहरादून से श्रीनगर चेन प्रोसेस के तहत किया गया है, अतः यह प्रशासनिक आधार पर है, के लिये एक अलग आदेश दिया जाए ।
२) उनको जाँच के दौरान निलम्बित रखा जाये ताकि उपमहाप्रबन्धक (प्रभारी) के पद पर कार्य करते हुए वह जाँच प्रभावित कर सकते हैं ।
३) आरोपी अधिकारी से चार्ज शीट का जवाब मांगा जाये जिसका ड्रॉफ़्ट संलग्न है ।
४) श्री ए. सी. गोयल को जाँच अधिकारी नियुक्त किया जाये ।
चूंकि इस बचाव अभियान में प्रबन्ध निदेशक सहित सभी शामिल थे इसलिए प्रबन्ध निदेशक ने बिन्दु ३ व ४ को ही अनुमोदित किया ।
यहाँ गौरतलब है कि जिस प्रबन्ध निदेशक ने २० जून २००८ को अनुमोदित किया कि जाँच सुप्रीम कोर्ट के दिशा निर्देशों के अनुरूप हो उस ही के द्वारा २५ जून २००८ को नये ड्राफ़्ट का अनुमोदन करना, जो पहले का एकदम उलट हो , प्रबन्ध निदेशक की ईमानदारी के ऊपर एक कलंक है और तत्कालीन प्रबन्ध निदेशक के ईमानदार होने पर एक बडा प्रश्न चिह्न है । वो कौन सी मजबूरी थी जिसके चलते तत्कालीन प्रबन्ध निदेशक ने एक ही प्रकरण में दो विरोधाभाषी आदेश दिये ।
इस प्रकरण के प्रत्येक पहलू से घोर रिश्वत्खोरी की बू आ रही है । सूचना का अधिकार से प्राप्त दस्तावेज़ों से ही यह खुलासा हो सका ।
अब सरकार को चाहिए कि रिश्वत्खोरी के इस प्रकरण के लिये कम से कम सात सदस्यीय उच्च स्तरीय समिति का गठन कर के निष्पक्ष जाँच करायें ताकि दूध का दूध और पानी का पानी हो सके

Monday, November 2, 2009

करनपुर गोली काण्डः कौन है राजेश का हत्यारा

देहरादून। १९९४ के करनपुर गोली कंाड में मारे गये निर्दोष राजेश रावत के हत्यारे कौन हैं यह अभी भी स्पष्ट नहीं हो पाया है। जबकि यह मामला पिछले कई सालों से अदालत में विचाराधीन है। करनपुर के गोली कांड में उस वक्त राज्य आंदोलन के लिए सडकों पर उतर रहे आंदोलनकारियों पर उस समय गोलियां बरसायी गई थी जब वह आंदोलन के लिए करनपुर क्षेत्र में मुलायम सिंह यादव की पार्टी में रहने वाले सूर्यकांत धस्माना के आवास की ओर जा रहे थे। भीड को तितर-बितर करने के लिए सूर्यकांत धस्माना की छत से आंदोलनकारियों पर गोलियां चलाई गई थी और इस गोलीकांड में आंदोलनकारी राजेश रावत की मौत हो गई थी जबकि एक अन्य मोहन रावत इस गोलीकांड में घायल हो गया था। जिसके बाद घायल मोहन रावत ने सूर्यकांत धस्माना पर छत से गोली चलाये जाने की बात कही थी और इस गोलीकांड का मुख्य आरोपी सूर्यकांत धस्माना को बताया गया था। कई सालों से कोर्ट में चल रहे इस मामले की जब सुनवाई तेज हुई तो कोर्ट में भी गवाहों ने धस्माना पर गोली चलाने की बात कही थी। जिसके बाद उस समय सूर्यकांत धस्माना एनसीपी छोडकर कांग्रेस पार्टी में शामिल हो गये थे और गवाहों ने जिस समय कोर्ट मेंधस्माना को गोली चलाने की बात कही थी तो उस समय कांग्रेस ने प्रदेश मीडिया प्रभारी के पद से धस्माना की छुट्टी कर दी थी और धस्माना को कई कांग्रेसी नेताओं ने भी करनपुर गोलीकांड का दोषी करार दिया था। अब करनपुर गोलीकांड की सीबीआई जांच कर रही है और सीबीआई के विशेष न्यायधीश की अदालत में पुलिस के विवेचना अधिकारियों सहित ६ लोग गवाही के लिए पेश नहीं हो सके उस पर भी उंगलियां उठनी शुरू हो गयी हैं। ३ अक्टूबर को हुए करनपुर गोलीकांड में तीन चश्मदीद गवाहों अजीत रावत, धनंजय खंडूरी और रविन्द्र रावत ने अदालत में गवाही के दौरान धस्माना के हाथ में कोई हथियार न होने की जो बात कही है वह उनके पूर्व के दिये गये बयानों में विरोधाभाष पैदा कर रही है। जबकि मोहन रावतं गोली चलाए जाने की बात कह रहे हैं। अब गवाहों के अचानक अपने बयान बदल लेने के पीछे भी राजनैतिक ड्रामा सामने आ गया है। बताया जा रहा है कि गवाहों को बदलने की एवज में कथित रूप् से लाखों रूपये का सौदा किया जा चुका है और गवाहों को कथित रुप से तीन-तीन बिघा जमीन दिये जाने की भी चर्चाएं हो रही हैं इसके साथ ही धस्माना की छत से गोली चलाए जाने की बात पुलिस एवं अन्य गवाहों द्वारा भी की गई है। तो आखिर किस आधार पर कोर्ट में गवाही देने वाले गवाहों ने छत से गोली न चलाए जाने की बात कह डाली है। इस खेल के पीछे मोटी रकम का सौदा होना बताया जा रहा है। हालांकि देर शाम तक बाकी के बचे गवाहों की भी गवाही पूरी हो जाएगी लेकिन कोर्ट अपना फैसला कब सुनाएगी इसका इंतजार मृतक के परिजनों के साथ-साथ उत्तराखंड के आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाने वाले आंदोलनकारियों को भी है। हालांकि सीबीआई के पास इस मामले में धस्माना के खिलापफ महत्वपूर्ण साक्ष्य मौजूद हैं जिसके आधार पर चर्चा थी कि धस्माना को सजा मिलनी तय है। वहीं देहरादून के वरिष्ठ पत्रकार प्रताप सिंह परवाना भी कथित रुप से धस्माना के गोली चलाए जाने की बात सुनने में आई है। कहा जा रहा है कि उनका साफ कहना है कि राज्य आंदोलन के लिए सडकों पर प्रदर्शन कर रही भीड पर सूर्यकांत धस्माना ने अपनी छत से कथित रुप से गोली चलायी थी और उस घटनाक्रम के कई फोटो भी उनके पास है उन्होंने कहा कि यदि इस मामले में धस्माना को कोर्ट से राहत मिलती है तो पीडत पक्ष को सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाना की बात वह कह रहे हैं, जिससे उन्हें न्याय मिल सके। उन्होंने कहा कि करनपुर गलीकांड के कई ऐसे सबूत भी मौजूद हैं जिन्हें यदि सार्वजनिक किया गया तो दूध का दूध और पानी का पानी सामने आ जायेगा। कुल मिलाकर इस पूरे मामले में अब भाजपा का एक गुट भी धस्माना के खिलापफ मोर्चा बांध्ेा हुए है। और उन नेताओंे का साफ कहना है कि करनपुर गोलीकांड में आंदोलनकारी मृतक रावत को तभी न्याय मिलेगा जब उनके हत्यारे को कडी सजा मिल जायेगी। इस पूरे मामले में कई नेताओं द्वारा राजनैतिक रोटियां सेकने के बाद इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया गया और न्याय की आस पाने के लिए मृतक के परिजनों की आंखें तरस गई हैं और अब उन्हें पूरा भरोसा है कि इन्साफ के मंदिर में उन्हें सच्चा न्याय मिलेगा। लेकिन यह कहना गलत नहीं होगा कि जिस तरह से गवाहों ने अपने बयान बदलकर एक आंदोलनकारी के शहीद होने की बात का छिपाने का प्रयास किया है उससे पूरा आंदोलनकारी मंच भी शर्मसार हुआ है। अब ऐसे में किस तरह एक स्वस्थ न्याय की परिकल्पना को साकार किया जा सकता है। यह अपनेआप में देखने वाली बात है। वहीं राजनैतिक दलों में भी यह चर्चाएं हैं कि इस मामले में कहीं शहीद के हत्यारे साफ बच न निकलें।