Saturday, December 12, 2009
Wednesday, December 2, 2009
1300 सीआरपीएफ जवानों को एड्स की बीमारी
नई दिल्ली ।। देश के सबसे बड़े अर्धसैनिक बल सीआरपीएफ के करीब 1300 जवान एड्स से पीड़ित हैं। जवानों को इस
बीमारी से आगाह करने और पर्याप्त जानकारी देने के लिए कई कदम उठाए गए हैं लेकिन पीड़ित जवानों की संख्या लगातार बढ़ रही है। जवानों को सेफ सेक्स के बारे में बताने के लिए सीआरपीएफ मुख्यालय में हेल्पलाइन भी शुरू की गई है। मुख्यालय सूत्रों के मुताबिक, हेल्पलाइन पर रोजाना 150 से 200 कॉल आती हैं। सीआरपीएफ के 39 ग्रुप सेंटरों पर 112 कॉन्डम वेडिंग मशीनें भी लगाई गई हैं। 73 बटालियन मुख्यालयों पर भी ऐसी मशीनें लगी हैं। फोर्स के विस्तार के लिए जवानों के स्वास्थ्य एवं अन्य सुविधाओं पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है। बटालियन स्तर पर जागरुकता अभियान भी चलाए गए हैं।
बीमारी से आगाह करने और पर्याप्त जानकारी देने के लिए कई कदम उठाए गए हैं लेकिन पीड़ित जवानों की संख्या लगातार बढ़ रही है। जवानों को सेफ सेक्स के बारे में बताने के लिए सीआरपीएफ मुख्यालय में हेल्पलाइन भी शुरू की गई है। मुख्यालय सूत्रों के मुताबिक, हेल्पलाइन पर रोजाना 150 से 200 कॉल आती हैं। सीआरपीएफ के 39 ग्रुप सेंटरों पर 112 कॉन्डम वेडिंग मशीनें भी लगाई गई हैं। 73 बटालियन मुख्यालयों पर भी ऐसी मशीनें लगी हैं। फोर्स के विस्तार के लिए जवानों के स्वास्थ्य एवं अन्य सुविधाओं पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है। बटालियन स्तर पर जागरुकता अभियान भी चलाए गए हैं।
अफ्रीकी एड्स के 'इलाज' के लिए करते हैं कुंवारियों से रेप
आज तक आपने अंधविश्वास
के ढेरों किस्से सुने होंगे , लेकिन साउथ अफ्रीका में एड्स के रोगियों का मामला सबसे अलग है। यहां एचआईवी पॉजिटिव कई मरीजों का मानना है कि कमसिन वर्जिन लड़की के साथ सेक्स करने पर यह रोग ठीक हो जाता है। देखें : सबसे सेक्सी बॉडी किसकी यह रोचक वाकया सुनाया है हॉलिवुड की मशहूर ऐक्ट्रिस शार्लीज़ थेरॉन ने। ऑस्कर अवॉर्ड जीत चुकीं थेरॉन यह देखकर काफी व्यथित थीं कि उनके देश के लोगों को इस बीमारी के बारे में सही जानकारी नहीं है। देखें : पैरिस हिल्टन का नया सेक्स विडियो थेरॉन ने एड्स के प्रति लोगों में जागरुकता फैलाने के लिए सन् 1999 में केप टाउन में रेप क्राइसिसस सेंटर खोला था। उन्हें यह जानकर काफी धक्का लगा है कि 10 साल बाद भी लोग इस बीमारी को लेकर तरह - तरह की भ्रांतियों के शिकार हैं। उन्होंने कहा कि वहां काफी लोग एड्स के शिकार हैं लेकिन उन्हें यह नहीं पता है कि वे इस रोग के शिकार कैसे बने। थेरॉन कहती हैं कि अभी भी बहुत सारे लोग मानते हैं कि वर्जिन और कम उम्र की लड़की के साथ सेक्स करने से एड्स ठीक हो सकता है। इसकी वजह से वे टीनएजर के साथ रेप करते हैं और इस रोग को और फैलाते हैं।
के ढेरों किस्से सुने होंगे , लेकिन साउथ अफ्रीका में एड्स के रोगियों का मामला सबसे अलग है। यहां एचआईवी पॉजिटिव कई मरीजों का मानना है कि कमसिन वर्जिन लड़की के साथ सेक्स करने पर यह रोग ठीक हो जाता है। देखें : सबसे सेक्सी बॉडी किसकी यह रोचक वाकया सुनाया है हॉलिवुड की मशहूर ऐक्ट्रिस शार्लीज़ थेरॉन ने। ऑस्कर अवॉर्ड जीत चुकीं थेरॉन यह देखकर काफी व्यथित थीं कि उनके देश के लोगों को इस बीमारी के बारे में सही जानकारी नहीं है। देखें : पैरिस हिल्टन का नया सेक्स विडियो थेरॉन ने एड्स के प्रति लोगों में जागरुकता फैलाने के लिए सन् 1999 में केप टाउन में रेप क्राइसिसस सेंटर खोला था। उन्हें यह जानकर काफी धक्का लगा है कि 10 साल बाद भी लोग इस बीमारी को लेकर तरह - तरह की भ्रांतियों के शिकार हैं। उन्होंने कहा कि वहां काफी लोग एड्स के शिकार हैं लेकिन उन्हें यह नहीं पता है कि वे इस रोग के शिकार कैसे बने। थेरॉन कहती हैं कि अभी भी बहुत सारे लोग मानते हैं कि वर्जिन और कम उम्र की लड़की के साथ सेक्स करने से एड्स ठीक हो सकता है। इसकी वजह से वे टीनएजर के साथ रेप करते हैं और इस रोग को और फैलाते हैं।
भारत-श्रीलंका तीसरा टेस्ट मैच @ मुंबई: ओपनर तिलकरत्ने ने जमाई सेंचुरी। श्रीलंका 5 विकेट के नुकसान पर 268 रन पार। स्कोरकार्ड देखने के लिए यहां क्लिक
दुनिया भर में तेजी से पांव पसारते जा रहे एड्स का इलाज इससे बचाव में ही है। इस स्थिति की भयावहता का ही
यह परिणाम है कि एचआईवी पॉजिटिव होने का मतलब आमतौर पर जिंदगी का अंत मान लिया जाता है, लेकिन यह अधूरा सच है। अगर डॉक्टरों की सलाह के मुताबिक चला जाए तो एचआईवी पॉजिटिव लोग भी लंबे समय तक सामान्य जीवन जी सकते हैं। एचआईवी और एड्स पर विशेषज्ञों से बात करके पूरी जानकारी दे रहे हैं प्रभात गौड़ क्या है एचआईवी और एड्स ? एचआईवी (ह्यूमन इम्यूनोडिफिशिएंसी वायरस) एक ऐसा वायरस है, जिसकी वजह से एड्स होता है। यह वायरस एक इंसान से दूसरे इंसान में फैलता है। जिस इंसान में इस वायरस की मौजूदगी होती है, उसे हम एचआईवी पॉजिटिव कहते हैं। आमतौर पर लोग एचआईवी पॉजिटिव होने का मतलब ही एड्स समझने लगते हैं, लेकिन ऐसा नहीं है। दरअसल, होता यह है कि एचआईवी के शरीर में प्रवेश कर जाने के बाद शरीर की प्रतिरोधक क्षमता (बीमारियों से लड़ने की क्षमता) धीरे-धीरे कम होने लगती है। प्रतिरोधक क्षमता कम होने से शरीर पर तमाम तरह की बीमारियां और इन्फेक्शन पैदा करने वाले वायरस आदि अटैक करने लगते हैं। एचआईवी पॉजिटिव होने के करीब 8 से 10 साल बाद इन तमाम बीमारियों के लक्षण दिखने शुरू हो जाते हैं। इस स्थिति को ही एड्स कहा जाता है। वैसे, एचआईवी पॉजिटिव होने के बाद से एड्स होने तक के वक्त को दवाओं की मदद से बढ़ाया जा सकता है और कुछ बीमारियों को ठीक भी किया जा सकता है। जाहिर है, एचआईवी पॉजिटिव होना या एड्स अपने आप में कोई बीमारी नहीं हैं, बल्कि इसकी वजह से बीमारियों से लड़ने की शरीर की क्षमता कम हो जाती है और तमाम बीमारियां अटैक कर देती हैं। ................................................एचआईवी दो तरह का होता है - एचआईवी-1 और एचआईवी-2। एचआईवी-1 पूरी दुनिया में पाया जाता है और भारत में भी 80 फीसदी मामले इसी के हैं। एचआईवी-2 खासतौर से अफ्रीका में मिलता है। भारत में भी कुछ लोगों में इसका इन्फेक्शन देखा गया है। कुछ लोगों को दोनों वायरस की वजह से इन्फेक्शन होता है। वैसे, एचआईवी-2 इन्फेक्शन वाले लोग एचआईवी-1 वालों से ज्यादा जीते हैं। मां से बच्चे में एचआईवी-2 ट्रांसफर होने के चांस न के बराबर होते हैं। शरीर में घुसने के बाद यह वायरस वाइट ब्लड सेल्स पर अटैक करता है और धीरे-धीरे उन्हें मारता रहता है। इन सेल्स के खत्म होने के बाद इन्फेक्शन और बीमारियों से लड़ने की हमारे शरीर की क्षमता कम होने लगती है। नतीजा यह होता है कि आए दिन शरीर में तमाम तरह के इन्फेक्शन होने लगते हैं। एचआईवी इन्फेक्शन की यह लास्ट स्टेज है और इसी स्टेज को एड्स कहा जाता है। ऐसे फैल सकता है एचआईवी पॉजिटिव पुरुष या महिला के साथ अनसेफ (कॉन्डम यूज किए बिना) सेक्स से, चाहे सेक्स होमोसेक्सुअल ही क्यों न हो। संक्रमित (इन्फेक्टेड) खून चढ़ाने से। एचआईवी पॉजिटिव महिला से पैदा हुए बच्चे में। बच्चा होने के बाद एचआईवी ग्रस्त मां के दूध पिलाने से भी इन्फेक्शन फैल सकता है। खून का सैंपल लेने या खून चढ़ाने में डिस्पोजेबल सिरिंज (सिर्फ एक ही बार इस्तेमाल में आने वाली सुई) न यूज करने से या फिर स्टर्लाइज किए बिना निडल और सिरिंज का यूज करने से। हेयर ड्रेसर (नाई) के यहां बिना स्टर्लाइज्ड (रोगाणु-मुक्त) उस्तरा, पुराना इन्फेक्टेड ब्लेड यूज करने से। सलून में इन्फेक्टेड व्यक्ति की शेव में यूज किए ब्लेड से। सलून में हमेशा नया ब्लेड यूज हो रहा है, यह इंशुअर करें। ऐसे नहीं फैलता चूमने से। लेकिन अगर किसी व्यक्ति को एड्स है और उसके मुंह में कट या मसूड़े में सूजन जैसी समस्या है, तो इस तरह के व्यक्ति को चूमने से भी एड्स फैल सकता है। यानी एड्स का संक्रमण चूमने पर भी फैल सकता है, अगर सावधानी न बरती जाए। हाथ मिलाना, गले मिलना, एक ही टॉयलेट को यूज करना, एक ही गिलास में पानी पीना, छीकने, खांसने से इन्फेक्शन नहीं फैलता। एचआईवी शरीर के बाहर ज्यादा देर तक नहीं रह सकता, इसलिए यह खाने और हवा से भी नहीं फैलता। रक्तदान करने से बशर्ते खून निकालने में डिस्पोजेबल (इस्तेमाल के बाद फेंक दी जाने वाली) सुई का इस्तेमाल किया गया हो। मच्छर काटने से। टैटू बनवाने से, बशर्ते इस्तेमाल किए जा रहे औजार स्टर्लाइज्ड हों। डॉक्टर या डेंटिस्ट के पास इलाज कराने से। ये लोग भी आमतौर पर स्टरलाइज्ड औजारों का ही इस्तेमाल करते हैं। इनके जरिए पहुंचता है वायरस ब्लड सीमेन (वीर्य) वैजाइनल फ्लूइड (स्त्रियों के जननांग से निकलने वाला दव) ब्रेस्ट मिल्क शरीर का कोई भी दूसरा फ्लूइड, जिसमें ब्लड हो मसलन, बलगम इनसे भी फैल सकता है एड्स (इनके संपर्क में अक्सर मेडिकल पेशे से जुड़े लोग ही आते हैं) दिमाग और स्पाइनल कॉर्ड के इर्द-गिर्द रहने वाला दव हड्डी के जोड़ों के आसपास का दव भ्रूण के आसपास का दव इन दवों से नहीं होता हालांकि लार (सलाइवा), यूरिन और आंसुओं में भी इक्का-दुक्का मामलों में एचआईवी पाया गया है, लेकिन अब तक ऐसा कोई सबूत नहीं मिला है, जिसके आधार पर इन दवों से एचआईवी फैलने की पुष्टि हो। कौन कराए टेस्ट टेस्ट कराएं अगर किसी व्यक्ति को लगता है कि कभी वह एचआईवी के संपर्क में आ गया होगा। पिछले 12 महीनों के दौरान अगर एक से ज्यादा पार्टनर के साथ उसके सेक्स संबंध रहे हों। अपने पार्टनर के सेक्सुअल बिहेवियर को लेकर वह निश्चिंत न हो। वह पुरुष हो और उसने कभी किसी पुरुष के साथ अनसेफ सेक्स किया हो। उसे एसटीडी (सेक्सुअली ट्रांसमिटेड डिजीज) हो। वह हेल्थ वर्कर हो, जो ब्लड आदि के सीधे संपर्क में आता हो। वह प्रेग्नेंट हो। ये लक्षण हैं तो शक करें एचआईवी से ग्रस्त इंसान शुरू में बिल्कुल नॉर्मल और सेहतमंद लगता है। कुछ साल बाद ही इसके लक्षण सामने आते हैं। अगर किसी को नीचे दिए गए लक्षण हैं, तो उसे एचआईवी का टेस्ट कराना चाहिए : एक महीने से ज्यादा समय तक बुखार बने रहना, जिसकी कोई खास वजह भी पता न चले। बिना किसी वजह के लगातार डायरिया बने रहना। लगातार सूखी खांसी। मुंह में सफेद छाले जैसे निशान होना। बिना किसी वजह के लगातार थकान बने रहना और तेजी से वजन गिरना। याददाश्त में कमी, डिप्रेशन आदि। (नोट : ये सभी लक्षण किसी साधारण बीमारी में भी हो सकते हैं। ) एचआईवी के लिए मेडिकल टेस्ट किसी को एचआईवी इन्फेक्शन है या नहीं, यह पता करने का अकेला तरीका यही है कि उस इंसान का ब्लड टेस्ट किया जाए। लक्षणों के आधार पर शक किया जा सकता है, लेकिन यह पक्के तौर पर नहीं कह सकते कि एचआईवी है या नहीं, क्योंकि एचआईवी के लक्षण किसी दूसरी बीमारी के लक्षण भी हो सकते हैं। कई मामलों में ऐसा भी होता है कि एचआईवी पॉजिटिव होने के बाद कई साल तक कोई लक्षण सामने नहीं आता। एचआईवी टेस्ट और काउंसलिंग के लिए सरकार ने पूरे देश में 5 हजार इंटिग्रेटेड काउंसलिंग एंड टेस्टिंग सेंटर (आईसीटीसी) बनाए हैं। इन सेंटरों पर व्यक्ति की काउंसलिंग और उसके बाद बाजू से खून लेकर जांच की जाती है। यह जांच फ्री होती है और रिपोर्ट आधे घंटे में मिल जाती है। आमतौर पर सभी जिला अस्पतालों, मेडिकल कॉलेजों और कुछ कम्यूनिटी हेल्थ सेंटरों पर यह सुविधा उपलब्ध है। यहां पूरी जांच के दौरान व्यक्ति की आइडेंटिटी गुप्त रखी जाती है। पहले रैपिड या स्पॉट टेस्ट होता है, लेकिन इस टेस्ट में कई मामलों में गलत रिपोर्ट भी पाई गई हैं। इसलिए स्पॉट टेस्ट में पॉजिटिव आने के बाद व्यक्ति का एलाइजा टेस्ट किया जाता है। एलाइजा टेस्ट में कन्फर्म होने के बाद व्यक्ति को एचआईवी पॉजिटिव होने की रिपोर्ट दे दी जाती है। एचआईवी कन्फर्म हो जाने के बाद मरीज को इलाज के लिए एआरटी सेंटर पर भेजा जाता है। पूरे देश में ऐसे करीब 280 एआरटी सेंटर हैं। इन सेंटरों पर इलाज शुरू करने से पहले व्यक्ति का एक और ब्लड टेस्ट किया जाता है, जिसमें उसकी सीडी-4 सेल्स की संख्या का पता लगाया जाता है। अगर यह संख्या 250 से कम है तो व्यक्ति का फौरन इलाज शुरू कर दिया जाता है और अगर उससे ज्यादा है तो डॉक्टर उसे कुछ दिन बाद आने की सलाह दे सकते हैं। इन सेंटरों पर भी काउंसिलर भी होते हैं, जो इलाज के साथ-साथ व्यक्ति की काउंसलिंग भी करते हैं। इलाज फ्री होता है और व्यक्ति की पहचान गुप्त रखी जाती है। दिल्ली की बात करें तो यहां आरएमएल, एलएनजेपी, मौलाना आजाद मेडिकल कॉलेज, एम्स, सफदरजंग जैसे सभी बड़े सरकारी अस्पतालों में ट्रीटमेंट सेंटर और टेस्टिंग सेंटर हैं। एलएनजेपी में ओपीडी के रूम नंबर 32 में ट्रीटमेंट सेंटर है और मौलाना आजाद के रूम नंबर 281 में टेस्टिंग सेंटर काम कर रहा है। इसी तरह दूसरे अस्पतालों में भी ये सेंटर्स काम कर रहे हैं। ट्रीटमेंट सेंटर्स पर आईसीटीसी (सरकारी टेस्टिंग सेंटर) की रिपोर्ट को मान्यता दी जाती है। प्राइवेट लैब में सिर्फ डॉ. लाल और रैनबैक्सी लैब्स की रिपोर्टों को ही मान्यता दी जाती है। इसके अलावा अगर कहीं से कोई एचआईवी टेस्ट रिपोर्ट लेकर ट्रीटमेंट सेंटर जाता है तो उसे दोबारा आईसीटीसी पर टेस्ट कराने को बोला जाता है। ज्यादातर मामलों में एचआईवी इन्फेक्शन हो जाने के दो हफ्ते के बाद टेस्ट कराने पर ही टेस्ट में इन्फेक्शन आ पाता है, उससे पहले नहीं। कई बार इसमें छह महीने भी लग जाते हैं। ऐसे में अगर किसी को लगता है कि उसका कहीं एचआईवी के प्रति एक्सपोजर हुआ है और फौरन टेस्ट कराता है, तो टेस्ट का रिजल्ट नेगटिव भी आ सकता है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि उस व्यक्ति को इन्फेक्शन नहीं हो सकता। ध्यान रखें कि एचआईवी को शरीर में एक्टिव होने में छह महीने तक लग सकते हैं। इसलिए छह महीने बाद एक बार फिर टेस्ट कराना चाहिए। छह महीने बाद भी अगर नेगेटिव आता है तो आप खुद को सेफ मान सकते हैं। शरीर में वायरस की एंट्री से लेकर उसके एक्टिव होने तक के समय को विंडो पीरियड कहा जाता है। इस पीरियड में एचआईवी का टेस्ट से भी पता भले ही न चलता हो, लेकिन जिसके शरीर में वायरस है वह इसे दूसरे को ट्रांसफर जरूर कर सकता है। एड्स का इलाज एचआईवी का कोई इलाज नहीं है। एक बार शरीर में आ जाने के बाद वायरस ताउम्र शरीर में रहता है। फिर भी दवाओं की मदद से एचआईवी पॉजिटिव होने से लेकर एड्स होने तक के गैप को बढ़ाया जा सकता है। कोशिश की जाती है कि व्यक्ति ज्यादा लंबे समय तक बीमारियों से बचा रहे। एचआईवी पॉजिटिव व्यक्ति को इलाज के दौरान एंटी-रेट्रोवायरल ड्रग्स दिए जाते हैं। एजेडटी, डीडीएल, डीडीसी कुछ कॉमन ड्रग्स हैं, लेकिन इनका असर कुछ ही वक्त के लिए होता है। फिर ये बेहद महंगी भी होती हैं। वैसे, डब्ल्यूएचओ की पॉलिसी यह है कि एंटी-रेट्रोवायरल ड्रग्स के बजाय एचआईवी की वजह से होने वाले इन्फेक्शन जैसे टीबी और डायरिया का क्लिनिकल मैनेजमेंट किया जाए। होम्योपैथी होम्योपैथी का बेसिक ही यह है कि बीमारियों से नहीं लड़ा जाता, बल्कि शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को बेहतर बनाया जाता है। होम्योपैथिक विशेषज्ञ एड्स का इलाज करते वक्त शरीर के इम्युनिटी लेवल को बढ़ाने की कोशिश करते हैं। इसके अलावा एड्स में होने वाले इन्फेक्शन जैसे हर्पीज, डायरिया, बुखार आदि का इलाज किया जाता है। एड्स के मरीजों में मानसिक तनाव दबाव भी अक्सर देखने को मिलता है। होम्योपैथिक इलाज के दौरान इसका भी इलाज किया जाता है। होम्योपैथिक विशेषज्ञों का कहना है कि एड्स के इलाज में उन्हें बहुत अच्छे रिजल्ट मिले हैं। होम्योपैथी में भी बीमारी पूरी तरह से ठीक नहीं होती। बस उसके बढ़ने की रफ्तार कम हो जाती है। योग योगाचार्यों के मुताबिक अगर नीचे दिए गए प्राणायाम नियम से किए जाएं तो बीमारी के बढ़ने की गति को धीमा किया जा सकता है : कपालभाति प्राणायाम 7 मिनट तक फिर अनुलोम-विलोम प्राणायाम 10 मिनट तक और फिर भस्त्रिका 3 मिनट तक करें। ओम का जाप 11 बार करें। यह पूरा सेट दिन में दो बार करें। एड्स के साथ जिंदगी एचआईवी पॉजिटिव पाए जाने का मतलब यह नहीं है कि जिंदगी में कुछ नहीं रहा। एचआईवी पॉजिटिव व्यक्ति भी आम लोगों की तरह जिंदगी जी सकते हैं। फिर भी ऐसे लोगों को इन बातों का ध्यान रखना चाहिए : अपने डॉक्टर से मिलकर एचआईवी इन्फेक्शन से संबंधित अपना पूरा मेडिकल चेकअप कराएं। टीबी और एसटीडी का चेकअप भी जरूर करा लें। डॉक्टर की सलाह के मुताबिक दवाएं लें। महिलाएं थोड़े-थोड़े दिनों बाद अपनी गाइनिकॉलिजकल जांच कराती रहें। अपने पार्टनर को इस बारे में बता दें। दूसरे लोग वायरस से प्रभावित न हों, इसके लिए पूरी तरह से सावधानी बरतें। अल्कोहल और ड्रग्स का इस्तेमाल बंद कर दें। अच्छी पौष्टिक डाइट लें और टेंशन से दूर रहें। नजदीकी लोगों से मदद लें और वक्त-वक्त पर प्रफेशनल काउंसलिंग कराते रहें। ब्लड, प्लाज्मा, सीमेन या कोई भी बॉडी ऑर्गन डोनेट न करें। प्रेग्नेंट महिलाएं और एड्स एचआईवी प्रेग्नेंट महिलाओं से उनके बच्चों में पहुंच जाता है, लेकिन ऐसा केवल एक तिहाई मामलों में ही होता है। हर प्रेग्नेंट महिला को अपना एचआईवी टेस्ट जरूर कराना चाहिए। कई महिलाएं प्रेग्नेंसी के दौरान एचआईवी इन्फेक्शन का पता चलने पर अबॉर्शन का फैसला लेती हैं। यह पूरी तरह से पर्सनल चॉइस है, हालांकि डॉक्टर ऐसी महिलाओं को बच्चा न गिराने की सलाह देते हैं। ऐसी महिलाओं को डॉक्टर से लगातार सलाह करनी चाहिए। डिलिवरी से पहले मां को और बच्चा होते ही बच्चे को नेवरीपिन नाम की दवा की एक डोज दे दी जाती है। इससे बच्चे के पॉजिटिव होने की आशंका एक तिहाई की भी एक तिहाई रह जाती है। जन्म लेने के बाद बच्चे का एचआईवी टेस्ट किया जा सकता है, लेकिन इससे यह पता नहीं लग सकता कि बच्चे को इन्फेक्शन है या नहीं, क्योंकि यह टेस्ट एचआईवी एंटीबॉडी टेस्ट होता है और एचआईवी पॉजिटिव मां से पैदा होने वाले हर बच्चे के शरीर में जन्म के वक्त एचआईवी एंटीबॉडी होते ही हैं। इनमें से जो बच्चे एचआईवी पॉजिटिव नहीं होते, वे डेढ़ साल की उम्र तक एचआईवी एंटीबॉडी छोड़ देते हैं। ऐसे में 18 महीने के बाद ही बच्चे का टेस्ट कराया जाए तो अच्छा है। वैसे, पीसीआर टेस्ट से तीन महीने के बच्चे के बारे में भी पता लग जाता है कि वह एचआईवी पॉजिटिव है या नहीं। बच्चा हो जाने के बाद एचआईवी से ग्रस्त मां को बच्चे को अपना दूध नहीं पिलाना चाहिए। अगर कोई महिला एचआईवी पॉजिटिव है, तो वह कंसीव (गर्भधारण) कर सकती है। वैसे, कुछ डॉक्टरों का मानना है कि एचआईवी महिला प्रेग्नेंट होने के बाद ज्यादा बीमार हो सकती है। सेफ ब्लड का मामला संक्रमित खून भी एचआईवी इन्फेक्शन की एक वजह होती है। ऐसे में यह सुनिश्चित करना बेहद जरूरी है कि जो ब्लड चढ़ाया जा रहा है, वह संक्रमित न हो। नैको के नैशनल ब्लड सेफ्टी प्रोग्राम के मुताबिक सभी ब्लड बैंकों के लिए ब्लड के हर यूनिट को टेस्ट करना अनिवार्य है। ट्रांसफ्यूजन के लिए इशू करने से पहले इस ब्लड को एचआईवी, सिफलिस, हिपेटाइटिस बी व सी व मलेरिया के लिए टेस्ट किया जाता है। पिछले दिनों एम्स के एक सर्वे से सामने आया कि एलाइसा टेस्ट (इस टेस्ट के बाद ही ब्लड बैंक ब्लड को चढ़ाने के लिए ओके करते हैं) होने के बावजूद ब्लड में हिपेटाइटिस बी और सी या एचआईवी इन्फेक्शन होने की आशंका रह जाती है, भले ही ऐसा बहुत कम मामलों में होता है। कहने का मतलब यह हुआ कि एलाइजा टेस्ट होने के बाद जो खून आमतौर पर लोगों को चढ़ाया जाता है, वह हिपेटाइटिस और एचआईवी इन्फेक्शन से पूरी तरह सुरक्षित नहीं भी हो सकता है। इसके बाद सरकार की ओर से देश भर में ऐसी व्यवस्था लागू करने की बात कही गई है, जिसमें ट्रांसफ्यूजन करने से पहले ब्लड का न्यूक्लिक एसिड टेस्ट (एनएटी) भी किया जाएगा। इस टेस्ट के बाद ब्लड को पूरी तरह सुरक्षित माना जा सकता है। फिलहाल एम्स और राम मनोहर लोहिया अस्पताल में इसे शुरू कर दिया गया है। वैसे कुछ प्राइवेट हॉस्पिटल पहले से ही इस टेस्ट को करने के बाद ही मरीज को ब्लड चढ़ाते हैं, जिसके लिए अलग से चार्ज किया जाता है। मरीज की पूरी सेफ्टी के लिए ब्लड चढ़वाने से पहले यह पक्का किया जाए कि उस ब्लड का एनएटी टेस्ट हुआ हो। जरूरी सवाल-जवाब दो एचआईवी पॉजिटिव लोग क्या आपस में सेक्स कर सकते हैं? कॉन्डम के साथ कर सकते हैं। अनसेफ सेक्स न करें, नहीं तो कुछ और भी इन्फेक्शन होने की आशंका है। कंडोम कई मामलों में फेल भी हो जाते हैं। फिर तो कॉन्डम के साथ सेक्स करने से भी एचआईवी इंफेक्शन हो सकता है? सही क्वॉलिटी का कॉन्डम सही तरीके से इस्तेमाल किया जाए, तब ही कंडोम एचआईवी से बचाव करता है। अगर कॉन्डम फट जाए या गलत तरीके से यूज किया जाए तो इससे इन्फेक्शन होने की आशंका रहती है। क्या ऐसे एक से ज्यादा लोगों के साथ अनसेफ सेक्स किया जा सकता है, जो सौ फीसदी श्योर हैं कि उन्हें एचआईवी नहीं है? एचआईवी न होने की सौ फीसदी गारंटी बेहद मुश्किल है इसलिए एक ही पार्टनर के साथ संबंध बनाने चाहिए या दूसरे पार्टनर के साथ सेक्स करने पर कॉन्डम यूज करना चाहिए। वैसे, अगर सौ फीसदी गारंटी मिल जाती है, तो फिर एचआईवी होने की आशंका नहीं है। क्या फीमेल कॉन्डम एड्स रोकता है? रोकता है, लेकिन यह उतना विश्वसनीय नहीं है जितना मेल कॉन्डम। अगर फीमेल पार्टनर अपने मेल पार्टनर को कॉन्डम यूज करने के लिए तैयार नहीं कर पा रही है, तो फिर फीमेल कॉन्डम का ऑप्शन अपनाया जाना ठीक है। क्या एड्स एसटीडी है? एसटीडी वह होते हैं जो सिर्फ सेक्सुअली कॉन्टैक्ट में आने से फैलते हैं। एड्स सेक्स के जरिए फैलता है, मगर इसके अलावा भी इसका इन्फेक्शन कई और तरीकों से फैल सकता है। इसलिए एड्स को एसटीडी न मानना ही तर्कसंगत है। अगर एसटीडी है तो क्या एड्स के चांस ज्यादा होते हैं? अगर एसटीडी है, तो एचआईवी इन्फेक्शन होने की आशंका बढ़ जाती है। एसटीडी अगर सिफलिस, कैंक्रॉइड्स, जेनिटल हपीर्ज या गोनोरिया है, तब यह आशंका बहुत ज्यादा होती है। अनसेफ एनल सेक्स करने से एड्स हो सकता है? अनसेफ एनल सेक्स करने से दोनों में किसी भी पार्टनर को एचआईवी हो सकता है, इसलिए कॉन्डम का इस्तेमाल जरूर करें। अगर एक पार्टनर का टेस्ट एचआईवी नेगेटिव आता है तो क्या दूसरा पार्टनर भी नेगटिव होगा? कोई जरूरी नहीं है। एक पार्टनर का नेगेटिव होना इस बात की गारंटी नहीं है कि दूसरा पार्टनर भी नेगेटिव होगा। एक्सपर्ट्स पैनल मयंक अग्रवाल, जॉइंट डायरेक्टर, नैशनल एड्स कंट्रोल ऑर्गनाइजेशन (नैको) डॉ. अजय खेड़ा, असिस्टेंट डायरेक्टर जनरल, नैको डॉ. टी. डी. चुघ, सीनियर फिजीशियन, सर गंगाराम हॉस्पिटल डॉ. अनिल कुमारी, प्रिंसिपल, नेहरू होम्योपैथिक कॉलेज सुरक्षित गोस्वामी, योग गुरु
यह परिणाम है कि एचआईवी पॉजिटिव होने का मतलब आमतौर पर जिंदगी का अंत मान लिया जाता है, लेकिन यह अधूरा सच है। अगर डॉक्टरों की सलाह के मुताबिक चला जाए तो एचआईवी पॉजिटिव लोग भी लंबे समय तक सामान्य जीवन जी सकते हैं। एचआईवी और एड्स पर विशेषज्ञों से बात करके पूरी जानकारी दे रहे हैं प्रभात गौड़ क्या है एचआईवी और एड्स ? एचआईवी (ह्यूमन इम्यूनोडिफिशिएंसी वायरस) एक ऐसा वायरस है, जिसकी वजह से एड्स होता है। यह वायरस एक इंसान से दूसरे इंसान में फैलता है। जिस इंसान में इस वायरस की मौजूदगी होती है, उसे हम एचआईवी पॉजिटिव कहते हैं। आमतौर पर लोग एचआईवी पॉजिटिव होने का मतलब ही एड्स समझने लगते हैं, लेकिन ऐसा नहीं है। दरअसल, होता यह है कि एचआईवी के शरीर में प्रवेश कर जाने के बाद शरीर की प्रतिरोधक क्षमता (बीमारियों से लड़ने की क्षमता) धीरे-धीरे कम होने लगती है। प्रतिरोधक क्षमता कम होने से शरीर पर तमाम तरह की बीमारियां और इन्फेक्शन पैदा करने वाले वायरस आदि अटैक करने लगते हैं। एचआईवी पॉजिटिव होने के करीब 8 से 10 साल बाद इन तमाम बीमारियों के लक्षण दिखने शुरू हो जाते हैं। इस स्थिति को ही एड्स कहा जाता है। वैसे, एचआईवी पॉजिटिव होने के बाद से एड्स होने तक के वक्त को दवाओं की मदद से बढ़ाया जा सकता है और कुछ बीमारियों को ठीक भी किया जा सकता है। जाहिर है, एचआईवी पॉजिटिव होना या एड्स अपने आप में कोई बीमारी नहीं हैं, बल्कि इसकी वजह से बीमारियों से लड़ने की शरीर की क्षमता कम हो जाती है और तमाम बीमारियां अटैक कर देती हैं। ................................................एचआईवी दो तरह का होता है - एचआईवी-1 और एचआईवी-2। एचआईवी-1 पूरी दुनिया में पाया जाता है और भारत में भी 80 फीसदी मामले इसी के हैं। एचआईवी-2 खासतौर से अफ्रीका में मिलता है। भारत में भी कुछ लोगों में इसका इन्फेक्शन देखा गया है। कुछ लोगों को दोनों वायरस की वजह से इन्फेक्शन होता है। वैसे, एचआईवी-2 इन्फेक्शन वाले लोग एचआईवी-1 वालों से ज्यादा जीते हैं। मां से बच्चे में एचआईवी-2 ट्रांसफर होने के चांस न के बराबर होते हैं। शरीर में घुसने के बाद यह वायरस वाइट ब्लड सेल्स पर अटैक करता है और धीरे-धीरे उन्हें मारता रहता है। इन सेल्स के खत्म होने के बाद इन्फेक्शन और बीमारियों से लड़ने की हमारे शरीर की क्षमता कम होने लगती है। नतीजा यह होता है कि आए दिन शरीर में तमाम तरह के इन्फेक्शन होने लगते हैं। एचआईवी इन्फेक्शन की यह लास्ट स्टेज है और इसी स्टेज को एड्स कहा जाता है। ऐसे फैल सकता है एचआईवी पॉजिटिव पुरुष या महिला के साथ अनसेफ (कॉन्डम यूज किए बिना) सेक्स से, चाहे सेक्स होमोसेक्सुअल ही क्यों न हो। संक्रमित (इन्फेक्टेड) खून चढ़ाने से। एचआईवी पॉजिटिव महिला से पैदा हुए बच्चे में। बच्चा होने के बाद एचआईवी ग्रस्त मां के दूध पिलाने से भी इन्फेक्शन फैल सकता है। खून का सैंपल लेने या खून चढ़ाने में डिस्पोजेबल सिरिंज (सिर्फ एक ही बार इस्तेमाल में आने वाली सुई) न यूज करने से या फिर स्टर्लाइज किए बिना निडल और सिरिंज का यूज करने से। हेयर ड्रेसर (नाई) के यहां बिना स्टर्लाइज्ड (रोगाणु-मुक्त) उस्तरा, पुराना इन्फेक्टेड ब्लेड यूज करने से। सलून में इन्फेक्टेड व्यक्ति की शेव में यूज किए ब्लेड से। सलून में हमेशा नया ब्लेड यूज हो रहा है, यह इंशुअर करें। ऐसे नहीं फैलता चूमने से। लेकिन अगर किसी व्यक्ति को एड्स है और उसके मुंह में कट या मसूड़े में सूजन जैसी समस्या है, तो इस तरह के व्यक्ति को चूमने से भी एड्स फैल सकता है। यानी एड्स का संक्रमण चूमने पर भी फैल सकता है, अगर सावधानी न बरती जाए। हाथ मिलाना, गले मिलना, एक ही टॉयलेट को यूज करना, एक ही गिलास में पानी पीना, छीकने, खांसने से इन्फेक्शन नहीं फैलता। एचआईवी शरीर के बाहर ज्यादा देर तक नहीं रह सकता, इसलिए यह खाने और हवा से भी नहीं फैलता। रक्तदान करने से बशर्ते खून निकालने में डिस्पोजेबल (इस्तेमाल के बाद फेंक दी जाने वाली) सुई का इस्तेमाल किया गया हो। मच्छर काटने से। टैटू बनवाने से, बशर्ते इस्तेमाल किए जा रहे औजार स्टर्लाइज्ड हों। डॉक्टर या डेंटिस्ट के पास इलाज कराने से। ये लोग भी आमतौर पर स्टरलाइज्ड औजारों का ही इस्तेमाल करते हैं। इनके जरिए पहुंचता है वायरस ब्लड सीमेन (वीर्य) वैजाइनल फ्लूइड (स्त्रियों के जननांग से निकलने वाला दव) ब्रेस्ट मिल्क शरीर का कोई भी दूसरा फ्लूइड, जिसमें ब्लड हो मसलन, बलगम इनसे भी फैल सकता है एड्स (इनके संपर्क में अक्सर मेडिकल पेशे से जुड़े लोग ही आते हैं) दिमाग और स्पाइनल कॉर्ड के इर्द-गिर्द रहने वाला दव हड्डी के जोड़ों के आसपास का दव भ्रूण के आसपास का दव इन दवों से नहीं होता हालांकि लार (सलाइवा), यूरिन और आंसुओं में भी इक्का-दुक्का मामलों में एचआईवी पाया गया है, लेकिन अब तक ऐसा कोई सबूत नहीं मिला है, जिसके आधार पर इन दवों से एचआईवी फैलने की पुष्टि हो। कौन कराए टेस्ट टेस्ट कराएं अगर किसी व्यक्ति को लगता है कि कभी वह एचआईवी के संपर्क में आ गया होगा। पिछले 12 महीनों के दौरान अगर एक से ज्यादा पार्टनर के साथ उसके सेक्स संबंध रहे हों। अपने पार्टनर के सेक्सुअल बिहेवियर को लेकर वह निश्चिंत न हो। वह पुरुष हो और उसने कभी किसी पुरुष के साथ अनसेफ सेक्स किया हो। उसे एसटीडी (सेक्सुअली ट्रांसमिटेड डिजीज) हो। वह हेल्थ वर्कर हो, जो ब्लड आदि के सीधे संपर्क में आता हो। वह प्रेग्नेंट हो। ये लक्षण हैं तो शक करें एचआईवी से ग्रस्त इंसान शुरू में बिल्कुल नॉर्मल और सेहतमंद लगता है। कुछ साल बाद ही इसके लक्षण सामने आते हैं। अगर किसी को नीचे दिए गए लक्षण हैं, तो उसे एचआईवी का टेस्ट कराना चाहिए : एक महीने से ज्यादा समय तक बुखार बने रहना, जिसकी कोई खास वजह भी पता न चले। बिना किसी वजह के लगातार डायरिया बने रहना। लगातार सूखी खांसी। मुंह में सफेद छाले जैसे निशान होना। बिना किसी वजह के लगातार थकान बने रहना और तेजी से वजन गिरना। याददाश्त में कमी, डिप्रेशन आदि। (नोट : ये सभी लक्षण किसी साधारण बीमारी में भी हो सकते हैं। ) एचआईवी के लिए मेडिकल टेस्ट किसी को एचआईवी इन्फेक्शन है या नहीं, यह पता करने का अकेला तरीका यही है कि उस इंसान का ब्लड टेस्ट किया जाए। लक्षणों के आधार पर शक किया जा सकता है, लेकिन यह पक्के तौर पर नहीं कह सकते कि एचआईवी है या नहीं, क्योंकि एचआईवी के लक्षण किसी दूसरी बीमारी के लक्षण भी हो सकते हैं। कई मामलों में ऐसा भी होता है कि एचआईवी पॉजिटिव होने के बाद कई साल तक कोई लक्षण सामने नहीं आता। एचआईवी टेस्ट और काउंसलिंग के लिए सरकार ने पूरे देश में 5 हजार इंटिग्रेटेड काउंसलिंग एंड टेस्टिंग सेंटर (आईसीटीसी) बनाए हैं। इन सेंटरों पर व्यक्ति की काउंसलिंग और उसके बाद बाजू से खून लेकर जांच की जाती है। यह जांच फ्री होती है और रिपोर्ट आधे घंटे में मिल जाती है। आमतौर पर सभी जिला अस्पतालों, मेडिकल कॉलेजों और कुछ कम्यूनिटी हेल्थ सेंटरों पर यह सुविधा उपलब्ध है। यहां पूरी जांच के दौरान व्यक्ति की आइडेंटिटी गुप्त रखी जाती है। पहले रैपिड या स्पॉट टेस्ट होता है, लेकिन इस टेस्ट में कई मामलों में गलत रिपोर्ट भी पाई गई हैं। इसलिए स्पॉट टेस्ट में पॉजिटिव आने के बाद व्यक्ति का एलाइजा टेस्ट किया जाता है। एलाइजा टेस्ट में कन्फर्म होने के बाद व्यक्ति को एचआईवी पॉजिटिव होने की रिपोर्ट दे दी जाती है। एचआईवी कन्फर्म हो जाने के बाद मरीज को इलाज के लिए एआरटी सेंटर पर भेजा जाता है। पूरे देश में ऐसे करीब 280 एआरटी सेंटर हैं। इन सेंटरों पर इलाज शुरू करने से पहले व्यक्ति का एक और ब्लड टेस्ट किया जाता है, जिसमें उसकी सीडी-4 सेल्स की संख्या का पता लगाया जाता है। अगर यह संख्या 250 से कम है तो व्यक्ति का फौरन इलाज शुरू कर दिया जाता है और अगर उससे ज्यादा है तो डॉक्टर उसे कुछ दिन बाद आने की सलाह दे सकते हैं। इन सेंटरों पर भी काउंसिलर भी होते हैं, जो इलाज के साथ-साथ व्यक्ति की काउंसलिंग भी करते हैं। इलाज फ्री होता है और व्यक्ति की पहचान गुप्त रखी जाती है। दिल्ली की बात करें तो यहां आरएमएल, एलएनजेपी, मौलाना आजाद मेडिकल कॉलेज, एम्स, सफदरजंग जैसे सभी बड़े सरकारी अस्पतालों में ट्रीटमेंट सेंटर और टेस्टिंग सेंटर हैं। एलएनजेपी में ओपीडी के रूम नंबर 32 में ट्रीटमेंट सेंटर है और मौलाना आजाद के रूम नंबर 281 में टेस्टिंग सेंटर काम कर रहा है। इसी तरह दूसरे अस्पतालों में भी ये सेंटर्स काम कर रहे हैं। ट्रीटमेंट सेंटर्स पर आईसीटीसी (सरकारी टेस्टिंग सेंटर) की रिपोर्ट को मान्यता दी जाती है। प्राइवेट लैब में सिर्फ डॉ. लाल और रैनबैक्सी लैब्स की रिपोर्टों को ही मान्यता दी जाती है। इसके अलावा अगर कहीं से कोई एचआईवी टेस्ट रिपोर्ट लेकर ट्रीटमेंट सेंटर जाता है तो उसे दोबारा आईसीटीसी पर टेस्ट कराने को बोला जाता है। ज्यादातर मामलों में एचआईवी इन्फेक्शन हो जाने के दो हफ्ते के बाद टेस्ट कराने पर ही टेस्ट में इन्फेक्शन आ पाता है, उससे पहले नहीं। कई बार इसमें छह महीने भी लग जाते हैं। ऐसे में अगर किसी को लगता है कि उसका कहीं एचआईवी के प्रति एक्सपोजर हुआ है और फौरन टेस्ट कराता है, तो टेस्ट का रिजल्ट नेगटिव भी आ सकता है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि उस व्यक्ति को इन्फेक्शन नहीं हो सकता। ध्यान रखें कि एचआईवी को शरीर में एक्टिव होने में छह महीने तक लग सकते हैं। इसलिए छह महीने बाद एक बार फिर टेस्ट कराना चाहिए। छह महीने बाद भी अगर नेगेटिव आता है तो आप खुद को सेफ मान सकते हैं। शरीर में वायरस की एंट्री से लेकर उसके एक्टिव होने तक के समय को विंडो पीरियड कहा जाता है। इस पीरियड में एचआईवी का टेस्ट से भी पता भले ही न चलता हो, लेकिन जिसके शरीर में वायरस है वह इसे दूसरे को ट्रांसफर जरूर कर सकता है। एड्स का इलाज एचआईवी का कोई इलाज नहीं है। एक बार शरीर में आ जाने के बाद वायरस ताउम्र शरीर में रहता है। फिर भी दवाओं की मदद से एचआईवी पॉजिटिव होने से लेकर एड्स होने तक के गैप को बढ़ाया जा सकता है। कोशिश की जाती है कि व्यक्ति ज्यादा लंबे समय तक बीमारियों से बचा रहे। एचआईवी पॉजिटिव व्यक्ति को इलाज के दौरान एंटी-रेट्रोवायरल ड्रग्स दिए जाते हैं। एजेडटी, डीडीएल, डीडीसी कुछ कॉमन ड्रग्स हैं, लेकिन इनका असर कुछ ही वक्त के लिए होता है। फिर ये बेहद महंगी भी होती हैं। वैसे, डब्ल्यूएचओ की पॉलिसी यह है कि एंटी-रेट्रोवायरल ड्रग्स के बजाय एचआईवी की वजह से होने वाले इन्फेक्शन जैसे टीबी और डायरिया का क्लिनिकल मैनेजमेंट किया जाए। होम्योपैथी होम्योपैथी का बेसिक ही यह है कि बीमारियों से नहीं लड़ा जाता, बल्कि शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को बेहतर बनाया जाता है। होम्योपैथिक विशेषज्ञ एड्स का इलाज करते वक्त शरीर के इम्युनिटी लेवल को बढ़ाने की कोशिश करते हैं। इसके अलावा एड्स में होने वाले इन्फेक्शन जैसे हर्पीज, डायरिया, बुखार आदि का इलाज किया जाता है। एड्स के मरीजों में मानसिक तनाव दबाव भी अक्सर देखने को मिलता है। होम्योपैथिक इलाज के दौरान इसका भी इलाज किया जाता है। होम्योपैथिक विशेषज्ञों का कहना है कि एड्स के इलाज में उन्हें बहुत अच्छे रिजल्ट मिले हैं। होम्योपैथी में भी बीमारी पूरी तरह से ठीक नहीं होती। बस उसके बढ़ने की रफ्तार कम हो जाती है। योग योगाचार्यों के मुताबिक अगर नीचे दिए गए प्राणायाम नियम से किए जाएं तो बीमारी के बढ़ने की गति को धीमा किया जा सकता है : कपालभाति प्राणायाम 7 मिनट तक फिर अनुलोम-विलोम प्राणायाम 10 मिनट तक और फिर भस्त्रिका 3 मिनट तक करें। ओम का जाप 11 बार करें। यह पूरा सेट दिन में दो बार करें। एड्स के साथ जिंदगी एचआईवी पॉजिटिव पाए जाने का मतलब यह नहीं है कि जिंदगी में कुछ नहीं रहा। एचआईवी पॉजिटिव व्यक्ति भी आम लोगों की तरह जिंदगी जी सकते हैं। फिर भी ऐसे लोगों को इन बातों का ध्यान रखना चाहिए : अपने डॉक्टर से मिलकर एचआईवी इन्फेक्शन से संबंधित अपना पूरा मेडिकल चेकअप कराएं। टीबी और एसटीडी का चेकअप भी जरूर करा लें। डॉक्टर की सलाह के मुताबिक दवाएं लें। महिलाएं थोड़े-थोड़े दिनों बाद अपनी गाइनिकॉलिजकल जांच कराती रहें। अपने पार्टनर को इस बारे में बता दें। दूसरे लोग वायरस से प्रभावित न हों, इसके लिए पूरी तरह से सावधानी बरतें। अल्कोहल और ड्रग्स का इस्तेमाल बंद कर दें। अच्छी पौष्टिक डाइट लें और टेंशन से दूर रहें। नजदीकी लोगों से मदद लें और वक्त-वक्त पर प्रफेशनल काउंसलिंग कराते रहें। ब्लड, प्लाज्मा, सीमेन या कोई भी बॉडी ऑर्गन डोनेट न करें। प्रेग्नेंट महिलाएं और एड्स एचआईवी प्रेग्नेंट महिलाओं से उनके बच्चों में पहुंच जाता है, लेकिन ऐसा केवल एक तिहाई मामलों में ही होता है। हर प्रेग्नेंट महिला को अपना एचआईवी टेस्ट जरूर कराना चाहिए। कई महिलाएं प्रेग्नेंसी के दौरान एचआईवी इन्फेक्शन का पता चलने पर अबॉर्शन का फैसला लेती हैं। यह पूरी तरह से पर्सनल चॉइस है, हालांकि डॉक्टर ऐसी महिलाओं को बच्चा न गिराने की सलाह देते हैं। ऐसी महिलाओं को डॉक्टर से लगातार सलाह करनी चाहिए। डिलिवरी से पहले मां को और बच्चा होते ही बच्चे को नेवरीपिन नाम की दवा की एक डोज दे दी जाती है। इससे बच्चे के पॉजिटिव होने की आशंका एक तिहाई की भी एक तिहाई रह जाती है। जन्म लेने के बाद बच्चे का एचआईवी टेस्ट किया जा सकता है, लेकिन इससे यह पता नहीं लग सकता कि बच्चे को इन्फेक्शन है या नहीं, क्योंकि यह टेस्ट एचआईवी एंटीबॉडी टेस्ट होता है और एचआईवी पॉजिटिव मां से पैदा होने वाले हर बच्चे के शरीर में जन्म के वक्त एचआईवी एंटीबॉडी होते ही हैं। इनमें से जो बच्चे एचआईवी पॉजिटिव नहीं होते, वे डेढ़ साल की उम्र तक एचआईवी एंटीबॉडी छोड़ देते हैं। ऐसे में 18 महीने के बाद ही बच्चे का टेस्ट कराया जाए तो अच्छा है। वैसे, पीसीआर टेस्ट से तीन महीने के बच्चे के बारे में भी पता लग जाता है कि वह एचआईवी पॉजिटिव है या नहीं। बच्चा हो जाने के बाद एचआईवी से ग्रस्त मां को बच्चे को अपना दूध नहीं पिलाना चाहिए। अगर कोई महिला एचआईवी पॉजिटिव है, तो वह कंसीव (गर्भधारण) कर सकती है। वैसे, कुछ डॉक्टरों का मानना है कि एचआईवी महिला प्रेग्नेंट होने के बाद ज्यादा बीमार हो सकती है। सेफ ब्लड का मामला संक्रमित खून भी एचआईवी इन्फेक्शन की एक वजह होती है। ऐसे में यह सुनिश्चित करना बेहद जरूरी है कि जो ब्लड चढ़ाया जा रहा है, वह संक्रमित न हो। नैको के नैशनल ब्लड सेफ्टी प्रोग्राम के मुताबिक सभी ब्लड बैंकों के लिए ब्लड के हर यूनिट को टेस्ट करना अनिवार्य है। ट्रांसफ्यूजन के लिए इशू करने से पहले इस ब्लड को एचआईवी, सिफलिस, हिपेटाइटिस बी व सी व मलेरिया के लिए टेस्ट किया जाता है। पिछले दिनों एम्स के एक सर्वे से सामने आया कि एलाइसा टेस्ट (इस टेस्ट के बाद ही ब्लड बैंक ब्लड को चढ़ाने के लिए ओके करते हैं) होने के बावजूद ब्लड में हिपेटाइटिस बी और सी या एचआईवी इन्फेक्शन होने की आशंका रह जाती है, भले ही ऐसा बहुत कम मामलों में होता है। कहने का मतलब यह हुआ कि एलाइजा टेस्ट होने के बाद जो खून आमतौर पर लोगों को चढ़ाया जाता है, वह हिपेटाइटिस और एचआईवी इन्फेक्शन से पूरी तरह सुरक्षित नहीं भी हो सकता है। इसके बाद सरकार की ओर से देश भर में ऐसी व्यवस्था लागू करने की बात कही गई है, जिसमें ट्रांसफ्यूजन करने से पहले ब्लड का न्यूक्लिक एसिड टेस्ट (एनएटी) भी किया जाएगा। इस टेस्ट के बाद ब्लड को पूरी तरह सुरक्षित माना जा सकता है। फिलहाल एम्स और राम मनोहर लोहिया अस्पताल में इसे शुरू कर दिया गया है। वैसे कुछ प्राइवेट हॉस्पिटल पहले से ही इस टेस्ट को करने के बाद ही मरीज को ब्लड चढ़ाते हैं, जिसके लिए अलग से चार्ज किया जाता है। मरीज की पूरी सेफ्टी के लिए ब्लड चढ़वाने से पहले यह पक्का किया जाए कि उस ब्लड का एनएटी टेस्ट हुआ हो। जरूरी सवाल-जवाब दो एचआईवी पॉजिटिव लोग क्या आपस में सेक्स कर सकते हैं? कॉन्डम के साथ कर सकते हैं। अनसेफ सेक्स न करें, नहीं तो कुछ और भी इन्फेक्शन होने की आशंका है। कंडोम कई मामलों में फेल भी हो जाते हैं। फिर तो कॉन्डम के साथ सेक्स करने से भी एचआईवी इंफेक्शन हो सकता है? सही क्वॉलिटी का कॉन्डम सही तरीके से इस्तेमाल किया जाए, तब ही कंडोम एचआईवी से बचाव करता है। अगर कॉन्डम फट जाए या गलत तरीके से यूज किया जाए तो इससे इन्फेक्शन होने की आशंका रहती है। क्या ऐसे एक से ज्यादा लोगों के साथ अनसेफ सेक्स किया जा सकता है, जो सौ फीसदी श्योर हैं कि उन्हें एचआईवी नहीं है? एचआईवी न होने की सौ फीसदी गारंटी बेहद मुश्किल है इसलिए एक ही पार्टनर के साथ संबंध बनाने चाहिए या दूसरे पार्टनर के साथ सेक्स करने पर कॉन्डम यूज करना चाहिए। वैसे, अगर सौ फीसदी गारंटी मिल जाती है, तो फिर एचआईवी होने की आशंका नहीं है। क्या फीमेल कॉन्डम एड्स रोकता है? रोकता है, लेकिन यह उतना विश्वसनीय नहीं है जितना मेल कॉन्डम। अगर फीमेल पार्टनर अपने मेल पार्टनर को कॉन्डम यूज करने के लिए तैयार नहीं कर पा रही है, तो फिर फीमेल कॉन्डम का ऑप्शन अपनाया जाना ठीक है। क्या एड्स एसटीडी है? एसटीडी वह होते हैं जो सिर्फ सेक्सुअली कॉन्टैक्ट में आने से फैलते हैं। एड्स सेक्स के जरिए फैलता है, मगर इसके अलावा भी इसका इन्फेक्शन कई और तरीकों से फैल सकता है। इसलिए एड्स को एसटीडी न मानना ही तर्कसंगत है। अगर एसटीडी है तो क्या एड्स के चांस ज्यादा होते हैं? अगर एसटीडी है, तो एचआईवी इन्फेक्शन होने की आशंका बढ़ जाती है। एसटीडी अगर सिफलिस, कैंक्रॉइड्स, जेनिटल हपीर्ज या गोनोरिया है, तब यह आशंका बहुत ज्यादा होती है। अनसेफ एनल सेक्स करने से एड्स हो सकता है? अनसेफ एनल सेक्स करने से दोनों में किसी भी पार्टनर को एचआईवी हो सकता है, इसलिए कॉन्डम का इस्तेमाल जरूर करें। अगर एक पार्टनर का टेस्ट एचआईवी नेगेटिव आता है तो क्या दूसरा पार्टनर भी नेगटिव होगा? कोई जरूरी नहीं है। एक पार्टनर का नेगेटिव होना इस बात की गारंटी नहीं है कि दूसरा पार्टनर भी नेगेटिव होगा। एक्सपर्ट्स पैनल मयंक अग्रवाल, जॉइंट डायरेक्टर, नैशनल एड्स कंट्रोल ऑर्गनाइजेशन (नैको) डॉ. अजय खेड़ा, असिस्टेंट डायरेक्टर जनरल, नैको डॉ. टी. डी. चुघ, सीनियर फिजीशियन, सर गंगाराम हॉस्पिटल डॉ. अनिल कुमारी, प्रिंसिपल, नेहरू होम्योपैथिक कॉलेज सुरक्षित गोस्वामी, योग गुरु
Thursday, November 26, 2009
यौन शोषण की शिकायतों को दबाने व सुप्रीम कोर्ट के दिशा निर्देशों की धज्जियाँ
यौन शोषण की शिकायतों को दबाने व सुप्रीम कोर्ट के दिशा निर्देशों की धज्जियाँ उड़ाने में माहिर पिटकुल अधिकारियों द्वारा अपनाये गये हथकण्डों का खुलासा करने में सूचना का अधिकार एक धारदार हथियार साबित हुआ।
सूचना का अधिकार के तहत, २६ मई २००९ को पिटकुल में प्राप्त यौन शोषण सम्बन्धी शिकायतों पर कृत कार्यवाही का ब्यौरा व जाँच समिति के सदस्यों के नाम व पदनाम मांगे जाने से अधिकारियों में हड़कंप मच गय तथा परिणाम स्वरुप नयी कमेटी का गठन १२ जून २००९ को कर दिया गया जिसका अध्यक्ष उत्तराखण्ड राज्य महिला आयोग की अध्यक्षा को बनाया गया है।
अधिनियम के तहत प्राप्त दस्तावेज़ों ने पिटकुल अधिकारियों द्वारा प्रकरण को दबाने की कलई खोल दी।
इस प्रकरण में कई शर्मनाक पहलू उजागर हुए जो निम्न प्रकार हैं :-१) ९ जनवरी २००७ को एक महिला अवर अभियन्ता द्वारा एक पुरुष अवर अभियन्ता पर यौन शोषण का आरोप लगाया।२) शिकायत पर कार्यवाही करते हुए १२ जनवरी २००९ को सुप्रीम कोर्ट की अवमानना करते हुए जाँच एकल समिति (पुरुष) को सौंप दी जबकि जांच समिति में कम से कम तीन सदस्य तथा अध्यक्ष व आधे सद्स्य महिलाये होनी चाहिय थी(सुप्रीम कोर्ट द्वारा विशाका बनाम रजास्थान राज्य)
३)जाँच आधिकरी उपमहाप्रबन्धक कमल कान्त ने जाँच शुरु की किन्तु पी.सी.ध्यनी की युनियन व फ़ोन पर मिली धमकी के चलते जाँच आधिकरी नेजाँच से इन्कार किया(पत्राँक १९८/ई टी सी आर/इन्क्वायरी दि. १६/०१/०७)
४) प्रबन्ध निदेशक ने पत्राँक १७८/प्र. नि./पिटकुल/ई-११ दिनाँकित २० जनवरी २००७ को पुनः सुप्रीम कोर्ट की अवमानना करते हुए तीन सदस्यीय (तीनों पुरुष) समिति का गठन किया गया।
५) इस समिति का अध्यक्ष जे. पी. तोमर लगभग डेढ वर्ष पूर्व सेवा निवृत्त हो चुका है।
६) २६ मई २००९ तक सूचना के अधिकार के तहत सूचना माँगे जाने तक मामला लगभग २ वर्ष ६ माह तक लम्बित रहा ।
७) १२ मई २००९ को नई जांच समिति का गठन किया गया जिसका अध्यक्ष राज्य महिला आयोग की अध्यक्षा को बनाया गया है।
८) नई समिति के गठन तक दोनों पक्षों में कोई समझौता हुआ था। इस समिति के गठन के बाद एक जनसेवक द्वारा इस प्रकरण को नई समिति के सुपुर्द करने हेतु पिटकुल अधिकारियों को एक ज्ञापन दिया गया।
९) उक्त ज्ञापन से पिटकुल अधिकारियों में एक बार फ़िर हड़कंप मच गया और आनन फ़ानन मे पुरानी जाँच समिति के सदस्यों के समक्ष दोनों पक्षों मे. १३ जुलाई २००९ को समझौता दर्शाया गया है जो कानूनी रूप से अवैध है।
यहाँ गौरतलब है कि यौन शोषण की शिकायत को ९० दिनों के भीतर निस्तारित करने के बजाय लगभग ढाई वर्ष तक लम्बित रखा गया। इसके पीछे क्लर्क से वरिष्ठ प्रबन्धक बने कर्मचारी व अधिकारि युनियन के अध्यक्ष पी.सी.ध्यानी ही हैं क्योंकि आरोपित अधिकारी ध्यानी की युनियन का न केवल सक्रिय सदस्य है बल्कि ध्यानी का एक मोहरा है जो ध्यानी के लिए कुछ भी कर सकता है।
अब प्रश्न उठता है कि लगभग ढाई वर्षों तक न्याय की राह देखने वाली महिला अधिकारी ने अचानक समझौता कैसे कर लिया । विभाग से छ्न कर आने वाली खबरों को यदि सच माना जाये तो उक्त महिला अधिकारी ने एक लाख रुपये तथा पति के स्थानान्तरण के आश्वासन के बाद ही समझौते पर हस्ताक्षर किये हैं ।
यदि इसमें ज़रा सी भी सच्चाई है तो निश्चित रुप से यह एक कलंक से कम नहीं क्योंकि कुछ महिलायें किसी पुरुष अधिकारी पर आरोप लगाकर अपना हित साध सकती हैं किन्तु इसक एक दूसरा पहलू भी है कि एक जूनियर अधिकारी अपने ही विभाग से उलझने की हिम्मत नहीं कर सकती और अधिकारियों के दबाव के चलते उसने इस समझौते पर हस्ताक्षर किये हों ।
चाहे जो भी पहलू हों किन्तु इस प्रकरण को पुनः जाँच कमेटी को सुपुर्द करके निष्पक्ष जाँच करायी जाए
सूचना का अधिकार के तहत, २६ मई २००९ को पिटकुल में प्राप्त यौन शोषण सम्बन्धी शिकायतों पर कृत कार्यवाही का ब्यौरा व जाँच समिति के सदस्यों के नाम व पदनाम मांगे जाने से अधिकारियों में हड़कंप मच गय तथा परिणाम स्वरुप नयी कमेटी का गठन १२ जून २००९ को कर दिया गया जिसका अध्यक्ष उत्तराखण्ड राज्य महिला आयोग की अध्यक्षा को बनाया गया है।
अधिनियम के तहत प्राप्त दस्तावेज़ों ने पिटकुल अधिकारियों द्वारा प्रकरण को दबाने की कलई खोल दी।
इस प्रकरण में कई शर्मनाक पहलू उजागर हुए जो निम्न प्रकार हैं :-१) ९ जनवरी २००७ को एक महिला अवर अभियन्ता द्वारा एक पुरुष अवर अभियन्ता पर यौन शोषण का आरोप लगाया।२) शिकायत पर कार्यवाही करते हुए १२ जनवरी २००९ को सुप्रीम कोर्ट की अवमानना करते हुए जाँच एकल समिति (पुरुष) को सौंप दी जबकि जांच समिति में कम से कम तीन सदस्य तथा अध्यक्ष व आधे सद्स्य महिलाये होनी चाहिय थी(सुप्रीम कोर्ट द्वारा विशाका बनाम रजास्थान राज्य)
३)जाँच आधिकरी उपमहाप्रबन्धक कमल कान्त ने जाँच शुरु की किन्तु पी.सी.ध्यनी की युनियन व फ़ोन पर मिली धमकी के चलते जाँच आधिकरी नेजाँच से इन्कार किया(पत्राँक १९८/ई टी सी आर/इन्क्वायरी दि. १६/०१/०७)
४) प्रबन्ध निदेशक ने पत्राँक १७८/प्र. नि./पिटकुल/ई-११ दिनाँकित २० जनवरी २००७ को पुनः सुप्रीम कोर्ट की अवमानना करते हुए तीन सदस्यीय (तीनों पुरुष) समिति का गठन किया गया।
५) इस समिति का अध्यक्ष जे. पी. तोमर लगभग डेढ वर्ष पूर्व सेवा निवृत्त हो चुका है।
६) २६ मई २००९ तक सूचना के अधिकार के तहत सूचना माँगे जाने तक मामला लगभग २ वर्ष ६ माह तक लम्बित रहा ।
७) १२ मई २००९ को नई जांच समिति का गठन किया गया जिसका अध्यक्ष राज्य महिला आयोग की अध्यक्षा को बनाया गया है।
८) नई समिति के गठन तक दोनों पक्षों में कोई समझौता हुआ था। इस समिति के गठन के बाद एक जनसेवक द्वारा इस प्रकरण को नई समिति के सुपुर्द करने हेतु पिटकुल अधिकारियों को एक ज्ञापन दिया गया।
९) उक्त ज्ञापन से पिटकुल अधिकारियों में एक बार फ़िर हड़कंप मच गया और आनन फ़ानन मे पुरानी जाँच समिति के सदस्यों के समक्ष दोनों पक्षों मे. १३ जुलाई २००९ को समझौता दर्शाया गया है जो कानूनी रूप से अवैध है।
यहाँ गौरतलब है कि यौन शोषण की शिकायत को ९० दिनों के भीतर निस्तारित करने के बजाय लगभग ढाई वर्ष तक लम्बित रखा गया। इसके पीछे क्लर्क से वरिष्ठ प्रबन्धक बने कर्मचारी व अधिकारि युनियन के अध्यक्ष पी.सी.ध्यानी ही हैं क्योंकि आरोपित अधिकारी ध्यानी की युनियन का न केवल सक्रिय सदस्य है बल्कि ध्यानी का एक मोहरा है जो ध्यानी के लिए कुछ भी कर सकता है।
अब प्रश्न उठता है कि लगभग ढाई वर्षों तक न्याय की राह देखने वाली महिला अधिकारी ने अचानक समझौता कैसे कर लिया । विभाग से छ्न कर आने वाली खबरों को यदि सच माना जाये तो उक्त महिला अधिकारी ने एक लाख रुपये तथा पति के स्थानान्तरण के आश्वासन के बाद ही समझौते पर हस्ताक्षर किये हैं ।
यदि इसमें ज़रा सी भी सच्चाई है तो निश्चित रुप से यह एक कलंक से कम नहीं क्योंकि कुछ महिलायें किसी पुरुष अधिकारी पर आरोप लगाकर अपना हित साध सकती हैं किन्तु इसक एक दूसरा पहलू भी है कि एक जूनियर अधिकारी अपने ही विभाग से उलझने की हिम्मत नहीं कर सकती और अधिकारियों के दबाव के चलते उसने इस समझौते पर हस्ताक्षर किये हों ।
चाहे जो भी पहलू हों किन्तु इस प्रकरण को पुनः जाँच कमेटी को सुपुर्द करके निष्पक्ष जाँच करायी जाए
पिट्कुल अधिकारियों ने इंसानियत की सारी हदें तब पार कर दी
पिट्कुल अधिकारियों ने इंसानियत की सारी हदें तब पार कर दी जब एक उप महाप्रबन्धक के विरुद्ध यौन शौषण की शिकायत दर्ज कराने वाली महिला अवर अभियन्ता(प्रशिक्षु) पर स्थानान्तरण के लिये झूठा आरोप लगाकर आरोपी उपमहाप्रबन्धक को ना केवल आरोपमुक्त किया गया बल्की उसे पदोन्नत करके मलाईदार पद से भी नवाजा गया।सूचना का अधिकार के तहत प्राप्त दस्त्तावेजों से पिट्कुल मे व्याप्त नैतिक व आर्थिक भ्रष्टाचार क परत दर परत खुलासा निम्न प्रकार है:-
१.) मुख्यालय पर तैनात एक महिला अवर अभियन्ता(प्रशिक्षु) ने एक उप महाप्रबन्धक के विरुद्ध यौन शौषण की शिकायत २० जून २००८ को प्रबन्ध निदेशक के समक्ष की गयी।
२.) २० जून २००८ को ही निदेशक(मा.स.) द्वारा नोट्स एवं ऑर्डर तैयार करके प्रबन्ध निदेशक से अनुमोदन प्राप्त कर लिया गया।
३.)२० जून २००८ को तैयार नोट्स एवं ऑर्डर में सुप्रीम कोर्ट के दिशा निर्देशों का हवाला देते हुए। इन्टरनेट से डाउनलोड किये गये १ से ४ तक कुल चार पृष्ठ के दिशा निर्देशों को भी संलग्न किया गया।
४.) निदेशक(मा.स.)द्वारा तैयार उक्त नोट्स एण्ड ऑर्डर के साथ संलग्नक के रूप में सुप्रीमे कोर्ट के दिशा निर्देशों के पेज संख्या ४ पर बिन्दु ७ पर स्पष्ट रूप से लिखा है कि जाँच समिती क गठन इस प्रकार किया जाये कि समिती का अध्यक्ष महिला होने के साथ साथ आधे सदस्य भी महिलायें होनी चाहिये।
५.) इस प्रकरण का सबसे शर्मनाक पहलू यह है कि रिश्वत खा कर उच्च अधिकारियों द्वारा यौन शौषण कि शिकायत को ऑफ़िशियल मिस्कण्डक्ट की शिकायत मे बदल दिया।
६.) २५ जून २००८ तक कोई कार्यावाही नही होने के कारण शिकायत कर्ता द्वारा आरोपि उपमहाप्रबन्धक द्वारा भेजे गये एस एम एस की प्रति भी संलग्न की।
७.) निदेशक(मा.स.) द्वारा पुन: नोट्स एण्ड ऑर्डर तैयार कर प्रबन्ध निदेशक से अनुमोदन प्राप्त किया।
८.) इस बार निदेशक(मा.स.)द्वारा अपने नोट्स एण्ड ऑर्डर में यौन शौषण के स्थान पर आफिशियल मिसकण्डक्ट शब्द का प्रयोग किया गया। ॰ इससे शर्मनाक और क्या हो सकता था कि एक अबला द्वारा अपना सम्मान बचाने के लिये की गयी शिकायत को निदेशक(मा॰ स॰) व अन्य अपनी कमाई का जरिया बनाकर पहले यौन शोष्ण का हव्वा खडा करेगें और रिशवत खाकर जाँच का विषय ही बदल देंगे।॰ इस प्रकार एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट अवमानना करते हूए पिटकुल अधिकारियों द्वारा एक अबला को चरित्र हनन किया है क्योंकि उक्तमहिला को ही स्थानान्तरण के लिये झूठी शिकायत करने का दोषी करार करते हुए आरोपित उपमहाप्रबन्धक को आरोप मुक्त करके पदोन्नत किया गया ।
९.) एक बार फ़िर सुप्रीम कोर्ट की अवमानना करते हुए निदेशक(म.स.)ने यौन शौषण की शिकायत को ऑफ़िसियल मिसक्ण्डक्ट मे बदल दिया।
१०.) जाँच महाप्रबन्धक(सी एंड पी) एस.सी.गोयल को सौंपी गयी तथा महाप्रबन्धक(मा.स.)को प्रिजंइन्टिन्ग ऑफ़िसर बनया गया।
११.) यौन शौषण की शिकायत पर जाँच के दौरान, आरोपित अधिकारी पीड़ित महिला व्यक्तिगत रूप से क्रास परिक्षण नहीं कर सकता जब तक पीड़ित महिला इसके लिये अनुमति न दे।
१२.)इस प्रकरण में पीड़िता का क्रास परिक्षण न केवल आरोपित अधिकारी द्वारा किया बल्की आरोपित के कानूनी सहायक ने भी पीड़िता का क्रास परिक्षण किया।
१३.) क्या ये सम्भव है कि एक पद में सब से छोटे स्तर(अवर अभियन्ता) पर कार्यरत एक महिला(प्रशिक्षु) अधिकारी अपने ही विभाग के दो महाप्रबन्धकों ,एक उप महाप्रब्न्धक व एक कानूनी सहायक की उपस्थिति में अपना बयान दे सकती है और उनके द्वारा क्रास परिक्षण मे दागे गये प्रश्नों का उत्तर दे सकती है।
१४.) इससे पीड़िता के ऊपर मानसिक दबाव बनाकर आरोपित के पक्ष में बयान दर्ज कराया गया है।
१५.) आरोपित अधिकारी ने अपने मोबाईल से पीड़िता के मोबाईल पर भेजे गये मैसेज के बारे में सफ़ाई दी कि उसका मोबाईल किसी ने हैक करके पीड़िता के मोबाईल पर मैसेज भेजे गये हैं इसके समर्थन में समाचार पत्र में प्रकाशित एक लेख की छायाप्रति लगायी गयी है।
१.) मुख्यालय पर तैनात एक महिला अवर अभियन्ता(प्रशिक्षु) ने एक उप महाप्रबन्धक के विरुद्ध यौन शौषण की शिकायत २० जून २००८ को प्रबन्ध निदेशक के समक्ष की गयी।
२.) २० जून २००८ को ही निदेशक(मा.स.) द्वारा नोट्स एवं ऑर्डर तैयार करके प्रबन्ध निदेशक से अनुमोदन प्राप्त कर लिया गया।
३.)२० जून २००८ को तैयार नोट्स एवं ऑर्डर में सुप्रीम कोर्ट के दिशा निर्देशों का हवाला देते हुए। इन्टरनेट से डाउनलोड किये गये १ से ४ तक कुल चार पृष्ठ के दिशा निर्देशों को भी संलग्न किया गया।
४.) निदेशक(मा.स.)द्वारा तैयार उक्त नोट्स एण्ड ऑर्डर के साथ संलग्नक के रूप में सुप्रीमे कोर्ट के दिशा निर्देशों के पेज संख्या ४ पर बिन्दु ७ पर स्पष्ट रूप से लिखा है कि जाँच समिती क गठन इस प्रकार किया जाये कि समिती का अध्यक्ष महिला होने के साथ साथ आधे सदस्य भी महिलायें होनी चाहिये।
५.) इस प्रकरण का सबसे शर्मनाक पहलू यह है कि रिश्वत खा कर उच्च अधिकारियों द्वारा यौन शौषण कि शिकायत को ऑफ़िशियल मिस्कण्डक्ट की शिकायत मे बदल दिया।
६.) २५ जून २००८ तक कोई कार्यावाही नही होने के कारण शिकायत कर्ता द्वारा आरोपि उपमहाप्रबन्धक द्वारा भेजे गये एस एम एस की प्रति भी संलग्न की।
७.) निदेशक(मा.स.) द्वारा पुन: नोट्स एण्ड ऑर्डर तैयार कर प्रबन्ध निदेशक से अनुमोदन प्राप्त किया।
८.) इस बार निदेशक(मा.स.)द्वारा अपने नोट्स एण्ड ऑर्डर में यौन शौषण के स्थान पर आफिशियल मिसकण्डक्ट शब्द का प्रयोग किया गया। ॰ इससे शर्मनाक और क्या हो सकता था कि एक अबला द्वारा अपना सम्मान बचाने के लिये की गयी शिकायत को निदेशक(मा॰ स॰) व अन्य अपनी कमाई का जरिया बनाकर पहले यौन शोष्ण का हव्वा खडा करेगें और रिशवत खाकर जाँच का विषय ही बदल देंगे।॰ इस प्रकार एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट अवमानना करते हूए पिटकुल अधिकारियों द्वारा एक अबला को चरित्र हनन किया है क्योंकि उक्तमहिला को ही स्थानान्तरण के लिये झूठी शिकायत करने का दोषी करार करते हुए आरोपित उपमहाप्रबन्धक को आरोप मुक्त करके पदोन्नत किया गया ।
९.) एक बार फ़िर सुप्रीम कोर्ट की अवमानना करते हुए निदेशक(म.स.)ने यौन शौषण की शिकायत को ऑफ़िसियल मिसक्ण्डक्ट मे बदल दिया।
१०.) जाँच महाप्रबन्धक(सी एंड पी) एस.सी.गोयल को सौंपी गयी तथा महाप्रबन्धक(मा.स.)को प्रिजंइन्टिन्ग ऑफ़िसर बनया गया।
११.) यौन शौषण की शिकायत पर जाँच के दौरान, आरोपित अधिकारी पीड़ित महिला व्यक्तिगत रूप से क्रास परिक्षण नहीं कर सकता जब तक पीड़ित महिला इसके लिये अनुमति न दे।
१२.)इस प्रकरण में पीड़िता का क्रास परिक्षण न केवल आरोपित अधिकारी द्वारा किया बल्की आरोपित के कानूनी सहायक ने भी पीड़िता का क्रास परिक्षण किया।
१३.) क्या ये सम्भव है कि एक पद में सब से छोटे स्तर(अवर अभियन्ता) पर कार्यरत एक महिला(प्रशिक्षु) अधिकारी अपने ही विभाग के दो महाप्रबन्धकों ,एक उप महाप्रब्न्धक व एक कानूनी सहायक की उपस्थिति में अपना बयान दे सकती है और उनके द्वारा क्रास परिक्षण मे दागे गये प्रश्नों का उत्तर दे सकती है।
१४.) इससे पीड़िता के ऊपर मानसिक दबाव बनाकर आरोपित के पक्ष में बयान दर्ज कराया गया है।
१५.) आरोपित अधिकारी ने अपने मोबाईल से पीड़िता के मोबाईल पर भेजे गये मैसेज के बारे में सफ़ाई दी कि उसका मोबाईल किसी ने हैक करके पीड़िता के मोबाईल पर मैसेज भेजे गये हैं इसके समर्थन में समाचार पत्र में प्रकाशित एक लेख की छायाप्रति लगायी गयी है।
वरिष्ठ प्रबन्धक का सफ़ेद झूठ
वरिष्ठ प्रबन्धक का सफ़ेद झूठ पिट्कुल अधिकारी अपने कुकृत्यों पर पर्दा डालने कि नापाक कोशिश करते हुए एक के बाद एक गलती करते जा रहे हैं। इसी क्रम में एक नमूना वरिष्ठ प्रबन्धक पी.सी. ध्यानी नें २६ सितम्बर २००९ को एक राजनैतिक पार्टी के माहिला प्रकोष्ठ की अध्यक्षता द्वारा पिट्कुल में यौन शौषण मामलों को दबाने के विरोध में कुछ समाचार पत्रों मे प्रकाशित समाचारों के आधार पर निष्पक्ष जाँचें व दोषियों पर कार्यवाही हेतु २२ सितम्बर २००९ को ज्ञाँपन दिया था।उक्त पत्र द्वारा वरिष्ठ प्रबन्धक ने महिला प्रकोष्ठ अध्यक्षा को आश्वस्त किया कि समाचार पत्रों में समाचार तोड़ मरोड़ कर पेश किया गया जिसके समर्थन में कुछ काम कागजात भी अध्यक्षा को भेजे गये। किन्तु ध्यानी द्वारा अध्यक्षा को भेजे गये साक्ष्य अपने आप में झूठ का पुलिन्दा हैं क्योँकि यौन शौषण की पहली शिकायत एक महिला अवर अभियन्ता द्वारा एक पुरुष अभियन्ता के विरुद्ध ९ जनवरी २००७ को दर्ज करायी गयी थी जिस पर कार्यवाही करते हुए पी.सी.ध्यानी ने १२ जनवरी २००७ को नोट्स एवं ऑर्डर का ड्राफ़्ट तैयार किया तथा महाप्रबन्धक(मा.स.) द्वारा १२ जनवरी २००७ को ही सुप्रीम कोर्ट द्वारा विशाखा व अन्य बनाम राजस्थान सरकार व अन्य केस में जारी दिशा निर्देशों तथा दि सैक्सुअल हैरास्स्मैन्ट ऑफ़ वॉमन एट वर्क प्लेस(प्रिवेन्शन,प्रोहिविशन एण्ड रिड्रेशल)बिल २००६ के विरुद्ध एकल जाँच समिति गठित करते हुए उपमहाप्रबन्धक कमल कान्त को जाँच सौंप दी गयी। पी. सी. ध्यानी व अन्य लोगों द्वारा कमल कान्त दबाव व फ़ोन पर मिली धमकी के चलते कमल कान्त नेअपने पत्रांक १९८/ई टी सी आर/एन्क्वाइरी दिनांक १६ जनवरी २००७ का जाँच करने से मना कर दिया। २० जनवरी २००७ को प्रबन्ध निदेशक द्वारा नयी जाँच समिती गठिथ की गयी इस बार भी सुप्रीम कोर्ट के दिशा निर्देशों के विरुद्ध तीन सदस्य समिती बनी किन्तु सुप्रीम कोर्ट के निर्देश अनुसार समिती का अध्यक्ष व कम से कम आधे सदस्य महिलाएं होने चाहिये थे किन्तु इस समिती में तीनों सदस्य पुरुष थे। समिती को ९० दिनों में जाँच पूरी करनी चाहिये थी किन्तु ९ जनवरी २००७ से २६ मई २००९ तक कोई प्रगति नहीं हुई। जो कि सुप्रीम कोर्ट की अवमानना का प्रकरण बनता है। पी.सी.ध्यनी ने प्रकोष्ठ अध्यक्षा को भेजे गये पत्र में उक्त प्रकरण में समझौता पत्र भी साक्ष्य के रूप मे भेजा गया है। यहाँ गौरतलब है कि ध्यानी ने जो समझौता पत्र भेजा है वह कानूनी रूप से वैध्य नहीं है क्योंकि वह समझौता २० जनवरी २००७ को गठित तीन सदस्य समिती के दो सदस्यों के समक्ष होना दर्शाया गया है जिसका अध्यक्ष लगभग डेढ वर्ष पूर्व सेवानिवृत हो चुका है तथा २६ मई २००९ को सूचना का अधिकार में माँगी गयी सूचना के बाद १२ जून २००९ को नई कमेटी स्वत: ही समाप्त हो चुकी है। यानी जन्ता कि आँखों में धूल झोंकते हुए एक ऐसी समिती के समक्ष समझौता दिखाया गया है जो कि अस्तित्व में ही नहीं है।
उनकी यह डिग्री फर्ज़ी है
सूचना का अधिकार के तहत पिटकुल में कार्यरत लिपिक प्रबन्धक के पद तक पहुँचे कर्मचारी अधिकारी यूनियन के अध्यक्ष पी.सी.ध्यानी द्वारा अपनी श्रीनगर गढ्वाल तैनाती के दौरान बरेली कालेज बरेली से संस्थागत छात्र के रूप में एल. एल. बी. की कथित उपाधी प्राप्त की है।विभागीय सूत्रों का कहना है कि उनकी यह डिग्री फर्ज़ी है इसी तथ्य की तह तक पहुँचने की नियत से हमारे द्वारा सूचना का अधिकार अधिनियम के तहत पिटकुल से सूचनायें चाहीं थी कि ध्यानी की डिग्री कि सत्यापित प्रतिलिपि, एल. एल.बी. की शिक्षा ग्रहण करने से पूर्व ली गयी विभागीय अनुमति तथा संस्थागत छात्र के रूप में जरूरी ७५ प्रतिशत उपस्थिति हेतु आवश्यक विभागीय अवकाशों का विवरण तथा सेवा पंजिका की सत्यापित प्रतिलिपि।
जिसके जवाब में केवल एल. एल.बी. तृतीय वर्ष का अंक पत्र उपलब्ध कराया गया । अधिनियम के तहत विभागीय अपील का भी वही आदेश था कि शेष सभी सूचनायें पी.सी.ध्यनी की व्यक्तिगत सूचनायें है तथा इसको उपलब्ध नही कराया जा सकता । हालाँकि यह प्रकरण अब उत्तराखण्ड राज्य सूचना आयोग में लाम्बित है तथा १८ दिसम्बर २००९ को इस पर पहली सुनवाई की जायेगी ।जिस प्रकार पिटकुल द्वारा ध्यानी द्वारा काथित एल. एल बी. करने के दौरान अवकाशों का विवरण न देने से डिग्री फर्ज़ी होने कि बात को बल मिलता है।यहाँ आपको बताते चलें कि इसी कथित एल. एल.बी. उपाधि के आधार पर ध्यानी को यौन शोषण की शिकायतों का निस्तारण करने के लिये गठित कमेटी में मैम्बर लीगल बैकग्राउण्ड यानी कानूनी प्रष्ठ भूमि का सदस्य बनाया गया।और यहाँ यह और भी महत्वपूर्ण इस लिये हो जाता है क्योंकि पिटकुल के गठन से आज तक यौन शोषण कि दो शिकायतें प्राप्त हुई और दोनों ही केसों में सुप्रीम कोर्ट के दिशा निर्देशों को ताक पर रखकर रफ़ा-दफ़ा कर दिया गया। इससे स्पष्ट हो जाता है या तो ध्यानी को कानूनी ज्ञान नही है य फिर इन्होंने रिश्वत लेकर जानबूझ कर सुप्रीम कोर्ट की अवमानना करवायी है।चूंकि पी. सी. ध्यानी ने अकूत धन अर्जन के साथ-साथ शासन, प्रशासन व सत्ता कि गलियारों में गेहरी पैठ बना ली है जिसके चलते इनके विरुद्ध सरकार द्वारा शायद ही कोई कार्यवाही की जाये।
जिसके जवाब में केवल एल. एल.बी. तृतीय वर्ष का अंक पत्र उपलब्ध कराया गया । अधिनियम के तहत विभागीय अपील का भी वही आदेश था कि शेष सभी सूचनायें पी.सी.ध्यनी की व्यक्तिगत सूचनायें है तथा इसको उपलब्ध नही कराया जा सकता । हालाँकि यह प्रकरण अब उत्तराखण्ड राज्य सूचना आयोग में लाम्बित है तथा १८ दिसम्बर २००९ को इस पर पहली सुनवाई की जायेगी ।जिस प्रकार पिटकुल द्वारा ध्यानी द्वारा काथित एल. एल बी. करने के दौरान अवकाशों का विवरण न देने से डिग्री फर्ज़ी होने कि बात को बल मिलता है।यहाँ आपको बताते चलें कि इसी कथित एल. एल.बी. उपाधि के आधार पर ध्यानी को यौन शोषण की शिकायतों का निस्तारण करने के लिये गठित कमेटी में मैम्बर लीगल बैकग्राउण्ड यानी कानूनी प्रष्ठ भूमि का सदस्य बनाया गया।और यहाँ यह और भी महत्वपूर्ण इस लिये हो जाता है क्योंकि पिटकुल के गठन से आज तक यौन शोषण कि दो शिकायतें प्राप्त हुई और दोनों ही केसों में सुप्रीम कोर्ट के दिशा निर्देशों को ताक पर रखकर रफ़ा-दफ़ा कर दिया गया। इससे स्पष्ट हो जाता है या तो ध्यानी को कानूनी ज्ञान नही है य फिर इन्होंने रिश्वत लेकर जानबूझ कर सुप्रीम कोर्ट की अवमानना करवायी है।चूंकि पी. सी. ध्यानी ने अकूत धन अर्जन के साथ-साथ शासन, प्रशासन व सत्ता कि गलियारों में गेहरी पैठ बना ली है जिसके चलते इनके विरुद्ध सरकार द्वारा शायद ही कोई कार्यवाही की जाये।
यौन शोषण की शिकायत के निस्तारण की प्रक्रिया शुरू कर दी
जहाँ एक ओर राष्ट्रीय स्तर पर महिलाओं को समान अधिकारों की बहस छिड़ी है वहीं दूसरी ओर कामकाजी महिलाओं द्वारा यौन शोषण की शिकायत करने पर भी उल्टे महिलाओं को ही दोषी ठहराया जा रहा है।निदेशक(मा.स.) ने तो इन्सानियत की सारी हदें तब पार कर दी जब उनके द्वारा यौन शोषण की शिकायत को ऑफ़िशियल मिसकण्डक्ट में बदला गया।
हुआ कुछ यूं कि पिटकुल मुख्यालय पर तैनात एक महिला अवर अभियन्ता(प्रशिक्षु) द्वारा मुख्यालय में ही तैनात एक उपमहाप्रबन्धक की अश्लील हरकतों से परेशान होकर पहले तो निदेशक(मा.स.) से मौखिक शिकायत की तथा १९ जून २००८ को छुट्टी पर जाने से पूर्व भी उसने निदेशक(मा.स.) से मौखिक शिकायत की। उसके बाद पीड़िता ने २० जून २००८ को प्रबन्ध निदेशक के नाम लिखित शिकायती पत्र भेजा।
चूंकि निदेशक(मा.स.) से पीड़िता ने मौखिक शिकायत २० जून २००८ से पूर्व ही कर दी थी तथा जब पीड़िता १९ जून २००८ से तीन दिन के अवकाश का प्रार्थना पत्र लेकर महाप्रबन्धक(मा.स.) से मिली तब महाप्रबन्धक(मा.स.) व निदेशक(मा.स.)दोनों ने पीड़िता के मूड को भाँपकर यौन शोषण की शिकायत के निस्तारण की प्रक्रिया शुरू कर दी जिसके फ़लस्वरूप उन्होंने इन्टरनेट से यौन शोषण की शिकायत पर सुप्रीम कोर्ट के दिशा निर्देश ढ़ूंढ़ना शुरू कर दिये तथा १९ जून २००८ को ही इन्टरनेट पर एक वेबसाइट
से चार पेज के दिशा निर्देश को प्रिंट किया गया।गौरतलब है कि पीड़िता ने शिकायत २० जून २००८ को की थी फिर यौन शोषण की शिकायतों के निस्तारण हेतु दिशा निर्देश १९ जून २००८ क्यों प्रिंट किये गये?मतलब एकदम साफ है कि पीड़िता कई बार मौखिक रूप से निदेशक(मा.स.) व महाप्रबन्धक(मा.स.)से उपमहाप्रबन्धक द्वारा की जा रही अश्लील हरकतों की शिकायत कर चुकी थी तथा १९ जून २००८ को अन्तिम बार पीड़िता द्वारा महाप्रबन्धक(मा.स.) से ये मौखिक शिकायत की गयी। पीड़िता के तीन दिन की छुट्टी पर जाने से महाप्रबन्धक(मा.स.) व निदेशक(मा.स.)परेशान हो गये तथा उन्होंने यौन शोषण की लिखित शिकायत से पूर्व ही शिकायत के निस्तारण की प्रक्रिया शुरू करते हुए इन्टरनेट से इस प्रकार की शिकायतों के निस्तारण हेतू सुप्रीम कोर्ट के चार पेज के दिशा निर्देश प्रिंट कर लिये।
२०जून २००८ को जैसे ही पीड़िता ने लिखित शिकायत मुख्यालय में जमा करायी वैसे ही मानव संसाधन विभाग हरकत में आ गया और आनन-फ़ानन में एक नोट्स एण्ड ऑर्डर तैयार किया गया तथा उसी दिन प्रबन्ध निदेशक से अनुमोदन भी प्राप्त कर लिया गया जिसमें स्पष्ट रूप से लिखा गया कि यौन शोषण की इस शिकायत का निस्तारण सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों के अनुरूप किया जाये तथा प्रशासनिक कारणों के आधार पर आरोपी का स्थानान्तरण देहरादून से श्रीनगर किया जाये ।गौरतलब है कि प्रबन्ध निदेशक से अनुमोदन मिलने के पश्चात शुरू हुआ आरोपी को बचाने के लिए सौदेबाज़ी का दौर और यदि विभागीय सूत्रों से प्राप्त जानकारी को सच माना जाये तो आरोपी से आरोप मुक्त करते हुए पदोन्नति के साथ देहरादून वापस लाने हेतू मोटी रकम माँगी गयी ।इस खेल के बड़े खिलाड़ी तत्कालीन प्रबन्ध निदेशक , निदेशक (मा.स.), महाप्रबन्ध (मा.स.), प्रबन्धक (मा.स.), महाप्रबन्धक (सी. एण्ड पी.) हैं, जिनको जाँच अधिकारी नियुक्त किया गया था ।
रिश्वत खाकर मानव संसाधन स्कन्ध ने २५ जून २००८ को एक नया नोट्स एण्ड ऑर्डर तैयार किया तथा निदेशक (मा.स.) के हस्ताक्षरों से प्रबन्ध निदेशक का अनुमोदन प्राप्त किया गया । जिसमें लिखा गया कि -
१) श्री अनिल यादव का स्थानान्तरण देहरादून से श्रीनगर चेन प्रोसेस के तहत किया गया है, अतः यह प्रशासनिक आधार पर है, के लिये एक अलग आदेश दिया जाए ।
२) उनको जाँच के दौरान निलम्बित रखा जाये ताकि उपमहाप्रबन्धक (प्रभारी) के पद पर कार्य करते हुए वह जाँच प्रभावित कर सकते हैं ।
३) आरोपी अधिकारी से चार्ज शीट का जवाब मांगा जाये जिसका ड्रॉफ़्ट संलग्न है ।
४) श्री ए. सी. गोयल को जाँच अधिकारी नियुक्त किया जाये ।
चूंकि इस बचाव अभियान में प्रबन्ध निदेशक सहित सभी शामिल थे इसलिए प्रबन्ध निदेशक ने बिन्दु ३ व ४ को ही अनुमोदित किया ।
यहाँ गौरतलब है कि जिस प्रबन्ध निदेशक ने २० जून २००८ को अनुमोदित किया कि जाँच सुप्रीम कोर्ट के दिशा निर्देशों के अनुरूप हो उस ही के द्वारा २५ जून २००८ को नये ड्राफ़्ट का अनुमोदन करना, जो पहले का एकदम उलट हो , प्रबन्ध निदेशक की ईमानदारी के ऊपर एक कलंक है और तत्कालीन प्रबन्ध निदेशक के ईमानदार होने पर एक बडा प्रश्न चिह्न है । वो कौन सी मजबूरी थी जिसके चलते तत्कालीन प्रबन्ध निदेशक ने एक ही प्रकरण में दो विरोधाभाषी आदेश दिये ।
इस प्रकरण के प्रत्येक पहलू से घोर रिश्वत्खोरी की बू आ रही है । सूचना का अधिकार से प्राप्त दस्तावेज़ों से ही यह खुलासा हो सका ।
अब सरकार को चाहिए कि रिश्वत्खोरी के इस प्रकरण के लिये कम से कम सात सदस्यीय उच्च स्तरीय समिति का गठन कर के निष्पक्ष जाँच करायें ताकि दूध का दूध और पानी का पानी हो सके
हुआ कुछ यूं कि पिटकुल मुख्यालय पर तैनात एक महिला अवर अभियन्ता(प्रशिक्षु) द्वारा मुख्यालय में ही तैनात एक उपमहाप्रबन्धक की अश्लील हरकतों से परेशान होकर पहले तो निदेशक(मा.स.) से मौखिक शिकायत की तथा १९ जून २००८ को छुट्टी पर जाने से पूर्व भी उसने निदेशक(मा.स.) से मौखिक शिकायत की। उसके बाद पीड़िता ने २० जून २००८ को प्रबन्ध निदेशक के नाम लिखित शिकायती पत्र भेजा।
चूंकि निदेशक(मा.स.) से पीड़िता ने मौखिक शिकायत २० जून २००८ से पूर्व ही कर दी थी तथा जब पीड़िता १९ जून २००८ से तीन दिन के अवकाश का प्रार्थना पत्र लेकर महाप्रबन्धक(मा.स.) से मिली तब महाप्रबन्धक(मा.स.) व निदेशक(मा.स.)दोनों ने पीड़िता के मूड को भाँपकर यौन शोषण की शिकायत के निस्तारण की प्रक्रिया शुरू कर दी जिसके फ़लस्वरूप उन्होंने इन्टरनेट से यौन शोषण की शिकायत पर सुप्रीम कोर्ट के दिशा निर्देश ढ़ूंढ़ना शुरू कर दिये तथा १९ जून २००८ को ही इन्टरनेट पर एक वेबसाइट
से चार पेज के दिशा निर्देश को प्रिंट किया गया।गौरतलब है कि पीड़िता ने शिकायत २० जून २००८ को की थी फिर यौन शोषण की शिकायतों के निस्तारण हेतु दिशा निर्देश १९ जून २००८ क्यों प्रिंट किये गये?मतलब एकदम साफ है कि पीड़िता कई बार मौखिक रूप से निदेशक(मा.स.) व महाप्रबन्धक(मा.स.)से उपमहाप्रबन्धक द्वारा की जा रही अश्लील हरकतों की शिकायत कर चुकी थी तथा १९ जून २००८ को अन्तिम बार पीड़िता द्वारा महाप्रबन्धक(मा.स.) से ये मौखिक शिकायत की गयी। पीड़िता के तीन दिन की छुट्टी पर जाने से महाप्रबन्धक(मा.स.) व निदेशक(मा.स.)परेशान हो गये तथा उन्होंने यौन शोषण की लिखित शिकायत से पूर्व ही शिकायत के निस्तारण की प्रक्रिया शुरू करते हुए इन्टरनेट से इस प्रकार की शिकायतों के निस्तारण हेतू सुप्रीम कोर्ट के चार पेज के दिशा निर्देश प्रिंट कर लिये।
२०जून २००८ को जैसे ही पीड़िता ने लिखित शिकायत मुख्यालय में जमा करायी वैसे ही मानव संसाधन विभाग हरकत में आ गया और आनन-फ़ानन में एक नोट्स एण्ड ऑर्डर तैयार किया गया तथा उसी दिन प्रबन्ध निदेशक से अनुमोदन भी प्राप्त कर लिया गया जिसमें स्पष्ट रूप से लिखा गया कि यौन शोषण की इस शिकायत का निस्तारण सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों के अनुरूप किया जाये तथा प्रशासनिक कारणों के आधार पर आरोपी का स्थानान्तरण देहरादून से श्रीनगर किया जाये ।गौरतलब है कि प्रबन्ध निदेशक से अनुमोदन मिलने के पश्चात शुरू हुआ आरोपी को बचाने के लिए सौदेबाज़ी का दौर और यदि विभागीय सूत्रों से प्राप्त जानकारी को सच माना जाये तो आरोपी से आरोप मुक्त करते हुए पदोन्नति के साथ देहरादून वापस लाने हेतू मोटी रकम माँगी गयी ।इस खेल के बड़े खिलाड़ी तत्कालीन प्रबन्ध निदेशक , निदेशक (मा.स.), महाप्रबन्ध (मा.स.), प्रबन्धक (मा.स.), महाप्रबन्धक (सी. एण्ड पी.) हैं, जिनको जाँच अधिकारी नियुक्त किया गया था ।
रिश्वत खाकर मानव संसाधन स्कन्ध ने २५ जून २००८ को एक नया नोट्स एण्ड ऑर्डर तैयार किया तथा निदेशक (मा.स.) के हस्ताक्षरों से प्रबन्ध निदेशक का अनुमोदन प्राप्त किया गया । जिसमें लिखा गया कि -
१) श्री अनिल यादव का स्थानान्तरण देहरादून से श्रीनगर चेन प्रोसेस के तहत किया गया है, अतः यह प्रशासनिक आधार पर है, के लिये एक अलग आदेश दिया जाए ।
२) उनको जाँच के दौरान निलम्बित रखा जाये ताकि उपमहाप्रबन्धक (प्रभारी) के पद पर कार्य करते हुए वह जाँच प्रभावित कर सकते हैं ।
३) आरोपी अधिकारी से चार्ज शीट का जवाब मांगा जाये जिसका ड्रॉफ़्ट संलग्न है ।
४) श्री ए. सी. गोयल को जाँच अधिकारी नियुक्त किया जाये ।
चूंकि इस बचाव अभियान में प्रबन्ध निदेशक सहित सभी शामिल थे इसलिए प्रबन्ध निदेशक ने बिन्दु ३ व ४ को ही अनुमोदित किया ।
यहाँ गौरतलब है कि जिस प्रबन्ध निदेशक ने २० जून २००८ को अनुमोदित किया कि जाँच सुप्रीम कोर्ट के दिशा निर्देशों के अनुरूप हो उस ही के द्वारा २५ जून २००८ को नये ड्राफ़्ट का अनुमोदन करना, जो पहले का एकदम उलट हो , प्रबन्ध निदेशक की ईमानदारी के ऊपर एक कलंक है और तत्कालीन प्रबन्ध निदेशक के ईमानदार होने पर एक बडा प्रश्न चिह्न है । वो कौन सी मजबूरी थी जिसके चलते तत्कालीन प्रबन्ध निदेशक ने एक ही प्रकरण में दो विरोधाभाषी आदेश दिये ।
इस प्रकरण के प्रत्येक पहलू से घोर रिश्वत्खोरी की बू आ रही है । सूचना का अधिकार से प्राप्त दस्तावेज़ों से ही यह खुलासा हो सका ।
अब सरकार को चाहिए कि रिश्वत्खोरी के इस प्रकरण के लिये कम से कम सात सदस्यीय उच्च स्तरीय समिति का गठन कर के निष्पक्ष जाँच करायें ताकि दूध का दूध और पानी का पानी हो सके
Monday, November 2, 2009
करनपुर गोली काण्डः कौन है राजेश का हत्यारा
देहरादून। १९९४ के करनपुर गोली कंाड में मारे गये निर्दोष राजेश रावत के हत्यारे कौन हैं यह अभी भी स्पष्ट नहीं हो पाया है। जबकि यह मामला पिछले कई सालों से अदालत में विचाराधीन है। करनपुर के गोली कांड में उस वक्त राज्य आंदोलन के लिए सडकों पर उतर रहे आंदोलनकारियों पर उस समय गोलियां बरसायी गई थी जब वह आंदोलन के लिए करनपुर क्षेत्र में मुलायम सिंह यादव की पार्टी में रहने वाले सूर्यकांत धस्माना के आवास की ओर जा रहे थे। भीड को तितर-बितर करने के लिए सूर्यकांत धस्माना की छत से आंदोलनकारियों पर गोलियां चलाई गई थी और इस गोलीकांड में आंदोलनकारी राजेश रावत की मौत हो गई थी जबकि एक अन्य मोहन रावत इस गोलीकांड में घायल हो गया था। जिसके बाद घायल मोहन रावत ने सूर्यकांत धस्माना पर छत से गोली चलाये जाने की बात कही थी और इस गोलीकांड का मुख्य आरोपी सूर्यकांत धस्माना को बताया गया था। कई सालों से कोर्ट में चल रहे इस मामले की जब सुनवाई तेज हुई तो कोर्ट में भी गवाहों ने धस्माना पर गोली चलाने की बात कही थी। जिसके बाद उस समय सूर्यकांत धस्माना एनसीपी छोडकर कांग्रेस पार्टी में शामिल हो गये थे और गवाहों ने जिस समय कोर्ट मेंधस्माना को गोली चलाने की बात कही थी तो उस समय कांग्रेस ने प्रदेश मीडिया प्रभारी के पद से धस्माना की छुट्टी कर दी थी और धस्माना को कई कांग्रेसी नेताओं ने भी करनपुर गोलीकांड का दोषी करार दिया था। अब करनपुर गोलीकांड की सीबीआई जांच कर रही है और सीबीआई के विशेष न्यायधीश की अदालत में पुलिस के विवेचना अधिकारियों सहित ६ लोग गवाही के लिए पेश नहीं हो सके उस पर भी उंगलियां उठनी शुरू हो गयी हैं। ३ अक्टूबर को हुए करनपुर गोलीकांड में तीन चश्मदीद गवाहों अजीत रावत, धनंजय खंडूरी और रविन्द्र रावत ने अदालत में गवाही के दौरान धस्माना के हाथ में कोई हथियार न होने की जो बात कही है वह उनके पूर्व के दिये गये बयानों में विरोधाभाष पैदा कर रही है। जबकि मोहन रावतं गोली चलाए जाने की बात कह रहे हैं। अब गवाहों के अचानक अपने बयान बदल लेने के पीछे भी राजनैतिक ड्रामा सामने आ गया है। बताया जा रहा है कि गवाहों को बदलने की एवज में कथित रूप् से लाखों रूपये का सौदा किया जा चुका है और गवाहों को कथित रुप से तीन-तीन बिघा जमीन दिये जाने की भी चर्चाएं हो रही हैं इसके साथ ही धस्माना की छत से गोली चलाए जाने की बात पुलिस एवं अन्य गवाहों द्वारा भी की गई है। तो आखिर किस आधार पर कोर्ट में गवाही देने वाले गवाहों ने छत से गोली न चलाए जाने की बात कह डाली है। इस खेल के पीछे मोटी रकम का सौदा होना बताया जा रहा है। हालांकि देर शाम तक बाकी के बचे गवाहों की भी गवाही पूरी हो जाएगी लेकिन कोर्ट अपना फैसला कब सुनाएगी इसका इंतजार मृतक के परिजनों के साथ-साथ उत्तराखंड के आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाने वाले आंदोलनकारियों को भी है। हालांकि सीबीआई के पास इस मामले में धस्माना के खिलापफ महत्वपूर्ण साक्ष्य मौजूद हैं जिसके आधार पर चर्चा थी कि धस्माना को सजा मिलनी तय है। वहीं देहरादून के वरिष्ठ पत्रकार प्रताप सिंह परवाना भी कथित रुप से धस्माना के गोली चलाए जाने की बात सुनने में आई है। कहा जा रहा है कि उनका साफ कहना है कि राज्य आंदोलन के लिए सडकों पर प्रदर्शन कर रही भीड पर सूर्यकांत धस्माना ने अपनी छत से कथित रुप से गोली चलायी थी और उस घटनाक्रम के कई फोटो भी उनके पास है उन्होंने कहा कि यदि इस मामले में धस्माना को कोर्ट से राहत मिलती है तो पीडत पक्ष को सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाना की बात वह कह रहे हैं, जिससे उन्हें न्याय मिल सके। उन्होंने कहा कि करनपुर गलीकांड के कई ऐसे सबूत भी मौजूद हैं जिन्हें यदि सार्वजनिक किया गया तो दूध का दूध और पानी का पानी सामने आ जायेगा। कुल मिलाकर इस पूरे मामले में अब भाजपा का एक गुट भी धस्माना के खिलापफ मोर्चा बांध्ेा हुए है। और उन नेताओंे का साफ कहना है कि करनपुर गोलीकांड में आंदोलनकारी मृतक रावत को तभी न्याय मिलेगा जब उनके हत्यारे को कडी सजा मिल जायेगी। इस पूरे मामले में कई नेताओं द्वारा राजनैतिक रोटियां सेकने के बाद इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया गया और न्याय की आस पाने के लिए मृतक के परिजनों की आंखें तरस गई हैं और अब उन्हें पूरा भरोसा है कि इन्साफ के मंदिर में उन्हें सच्चा न्याय मिलेगा। लेकिन यह कहना गलत नहीं होगा कि जिस तरह से गवाहों ने अपने बयान बदलकर एक आंदोलनकारी के शहीद होने की बात का छिपाने का प्रयास किया है उससे पूरा आंदोलनकारी मंच भी शर्मसार हुआ है। अब ऐसे में किस तरह एक स्वस्थ न्याय की परिकल्पना को साकार किया जा सकता है। यह अपनेआप में देखने वाली बात है। वहीं राजनैतिक दलों में भी यह चर्चाएं हैं कि इस मामले में कहीं शहीद के हत्यारे साफ बच न निकलें।
Thursday, September 24, 2009
आस्ट्रेलिया में पढाई कर रहे छात्रों को मिलता है भारतीयों जैसा प्यार
आस्ट्रेलिया में पढाई कर रहे छात्रों को मिलता है भारतीयों जैसा प्यार
परिजनों की आती है याद तो गोरों का मिल जाता है प्यार
देहरादून। देश की माटी की खुशबु के हजारों किलामीटर देर होने के बाद भी विदेशों में अपनों की खुशबु हिंदुस्तानी बखूबी पहचान लेते हैं। और जब कोई भारतीय विदेशी सरजमीं पर मिल जाता है तो खुशी के मारे आंखों से प्यार के आंसू भी छलक आते हैं। परिजनों से दूर रहकर उनकी याद हमेशा आती है और रोजाना घर पर बातें भी हो जाया करती है। भारतीयों की इसी अपनेपन की खुशबू को लिए आस्ट्रेलिया यूरोप में रहने वाले उत्तराखंड से पढने के लिए गए गदरपुर के छात्र कपिल अरोरा व बाजपुर के देवेन्द्र सिंह से पत्रकार नारायण परगाई की प्रस्तुत है उन बातचीत के प्रमुख अंश
. सवाल-हिंदुस्तान से दूर रहकर विदेश में कैसा महसूस करते हैं
जवाब- हिंदुस्तानसे दूर रहकर हमेशा ही अपनों की कमी खलती रहती है और यहां पर सुख और दुख सबकुछ अपना ही होता है। लेकिन जिंदगी इसी का नाम है कुछ पाने के लिए कुछ तो खोना ही पडता है। अपनों की याद रोजाना आती है और आस्ट्रेलिया से बैठकर ही घरपर पफोन पर बातचीत हो जाया करती है।
. सवाल- विदेशों में लगातार भारतीय काम-काज के लिए जा रहे हैं क्या वहां आय के स्रोत ज्यादा हैं?
जवाब- जी हां हिंदुस्तान से ज्यादा मेहनत यदि हम विदेशो में करते है। तो उसका पफायदा भी निश्चित रूप से हमें ही मिलता है। इंडिया में एक घंटे के काम करने पर महज दो वक्त की रोटी ही नसीब ह पाती है जबकि विदेशों में एक घंटा काम करने के दस डॉलर तक मिल जाते हैं। तो ऐसे में भारतीय विदेशों की तरपफ रूख क्यों न करें।
सवाल- हिंदुस्तान से ज्यादा विदेशों में रहने वोल लोग क्यों मन केा भाज ाते हैं क्या कोई खास कारण है?
जवाब- हिंदुस्तानियों से ज्यादा विदेशी लोग अच्छे होते हैं आस्ट्रलिया में मैंने यह देखा है कि हिंदुस्तानी ही हिंदुस्तानी को आगे बढते हुए नहीं देख सकता जबकि गोरी चमडी वाले लोग हिंदुस्तानियों को ज्यादा पसन्द करते हैं।
-सवाल- सुना है विदेशियों से ज्यादा भारतीय काम अध्कि मेहनत से करते हैं। इसमें क्या सच्चाई है?
जवाब- जी नहीं यह बिल्कुल गलत है कि विदेशियों से ज्यादा भारतीय काम करते हैं। भारतीय तो सिफ मेहनत के लिए काम करते हैं जबकि विदेशी अपनी रोजमर्रा की जिंदगी के लिए काम। विदेशियों की जगह कभी भी हिंदुस्तानी नहीं ले सकते। लेकिन हिंदुस्तानी अपने एक घंटे का काम पूरी महनत के साथ करते हैं।
.सवाल- हर महीने का खर्च विदेशों मेंकितना है और कितना कमा लिया जाता है।
जवाब- वैसे तो हिंदुस्तान के नजरीये से देखा जाय तो विदेशाों में कोई ज्यादा खर्च नही ंहै हर महीने रहने खाने और अपने खर्चों पर करीब
६०० डॉलर खर्च हा ेजाते हैं जबकि एक हफ्रते में पार्ट टाइम के रूप में बीस घंटे काम करने को मिल जाता ह ै। कुल मिलाकर पूरे महीने के खर्चे में कुछ डलर बचत भी हो जाती है।
.सवाल- क्या आस्ट्रलिया में हिंदुस्तानी खाना आराम से मिल जाता है?
जवाब- जी हां आस्ट्रेलिया में रहकर भी हमें पर्थ जेनी में हिंदुस्तानी स्टोरों पर सबकुछ मिल जाता है। इसके साथ ही जलेबी और पंजाबी ढाबा भी खाने को तमिल जाता है। इन दिनों भारतीय स्टोरों पर हम बडे मजे से नवरात्राों के सभी सामान आराम से ले रहे हैं।
.सवाल- कुछ दिनों पूर्व मेलबोर्न में भारतीयों के साथ जो कुछ हुआ उसे किस नजरीये से देखते हैं?
जवाब- आस्ट्रेलिया के मेलबर्न में कुछ गोरी चमडी वाले भारतीयोंसे मेहनत अध्कि करने से चिडतेहैं जिस कारण इस तरह की घटना हुई और वहां भारतीयों को पीटा गया। लेकिन पर्थ जैनी में ाकेई बात नह है हम रोजाना रात दो बजे तक आराम से घूमते हैं और यहां के सभी लोग हिंदुस्तानियों की तरह हैं।
परिजनों की आती है याद तो गोरों का मिल जाता है प्यार
देहरादून। देश की माटी की खुशबु के हजारों किलामीटर देर होने के बाद भी विदेशों में अपनों की खुशबु हिंदुस्तानी बखूबी पहचान लेते हैं। और जब कोई भारतीय विदेशी सरजमीं पर मिल जाता है तो खुशी के मारे आंखों से प्यार के आंसू भी छलक आते हैं। परिजनों से दूर रहकर उनकी याद हमेशा आती है और रोजाना घर पर बातें भी हो जाया करती है। भारतीयों की इसी अपनेपन की खुशबू को लिए आस्ट्रेलिया यूरोप में रहने वाले उत्तराखंड से पढने के लिए गए गदरपुर के छात्र कपिल अरोरा व बाजपुर के देवेन्द्र सिंह से पत्रकार नारायण परगाई की प्रस्तुत है उन बातचीत के प्रमुख अंश
. सवाल-हिंदुस्तान से दूर रहकर विदेश में कैसा महसूस करते हैं
जवाब- हिंदुस्तानसे दूर रहकर हमेशा ही अपनों की कमी खलती रहती है और यहां पर सुख और दुख सबकुछ अपना ही होता है। लेकिन जिंदगी इसी का नाम है कुछ पाने के लिए कुछ तो खोना ही पडता है। अपनों की याद रोजाना आती है और आस्ट्रेलिया से बैठकर ही घरपर पफोन पर बातचीत हो जाया करती है।
. सवाल- विदेशों में लगातार भारतीय काम-काज के लिए जा रहे हैं क्या वहां आय के स्रोत ज्यादा हैं?
जवाब- जी हां हिंदुस्तान से ज्यादा मेहनत यदि हम विदेशो में करते है। तो उसका पफायदा भी निश्चित रूप से हमें ही मिलता है। इंडिया में एक घंटे के काम करने पर महज दो वक्त की रोटी ही नसीब ह पाती है जबकि विदेशों में एक घंटा काम करने के दस डॉलर तक मिल जाते हैं। तो ऐसे में भारतीय विदेशों की तरपफ रूख क्यों न करें।
सवाल- हिंदुस्तान से ज्यादा विदेशों में रहने वोल लोग क्यों मन केा भाज ाते हैं क्या कोई खास कारण है?
जवाब- हिंदुस्तानियों से ज्यादा विदेशी लोग अच्छे होते हैं आस्ट्रलिया में मैंने यह देखा है कि हिंदुस्तानी ही हिंदुस्तानी को आगे बढते हुए नहीं देख सकता जबकि गोरी चमडी वाले लोग हिंदुस्तानियों को ज्यादा पसन्द करते हैं।
-सवाल- सुना है विदेशियों से ज्यादा भारतीय काम अध्कि मेहनत से करते हैं। इसमें क्या सच्चाई है?
जवाब- जी नहीं यह बिल्कुल गलत है कि विदेशियों से ज्यादा भारतीय काम करते हैं। भारतीय तो सिफ मेहनत के लिए काम करते हैं जबकि विदेशी अपनी रोजमर्रा की जिंदगी के लिए काम। विदेशियों की जगह कभी भी हिंदुस्तानी नहीं ले सकते। लेकिन हिंदुस्तानी अपने एक घंटे का काम पूरी महनत के साथ करते हैं।
.सवाल- हर महीने का खर्च विदेशों मेंकितना है और कितना कमा लिया जाता है।
जवाब- वैसे तो हिंदुस्तान के नजरीये से देखा जाय तो विदेशाों में कोई ज्यादा खर्च नही ंहै हर महीने रहने खाने और अपने खर्चों पर करीब
६०० डॉलर खर्च हा ेजाते हैं जबकि एक हफ्रते में पार्ट टाइम के रूप में बीस घंटे काम करने को मिल जाता ह ै। कुल मिलाकर पूरे महीने के खर्चे में कुछ डलर बचत भी हो जाती है।
.सवाल- क्या आस्ट्रलिया में हिंदुस्तानी खाना आराम से मिल जाता है?
जवाब- जी हां आस्ट्रेलिया में रहकर भी हमें पर्थ जेनी में हिंदुस्तानी स्टोरों पर सबकुछ मिल जाता है। इसके साथ ही जलेबी और पंजाबी ढाबा भी खाने को तमिल जाता है। इन दिनों भारतीय स्टोरों पर हम बडे मजे से नवरात्राों के सभी सामान आराम से ले रहे हैं।
.सवाल- कुछ दिनों पूर्व मेलबोर्न में भारतीयों के साथ जो कुछ हुआ उसे किस नजरीये से देखते हैं?
जवाब- आस्ट्रेलिया के मेलबर्न में कुछ गोरी चमडी वाले भारतीयोंसे मेहनत अध्कि करने से चिडतेहैं जिस कारण इस तरह की घटना हुई और वहां भारतीयों को पीटा गया। लेकिन पर्थ जैनी में ाकेई बात नह है हम रोजाना रात दो बजे तक आराम से घूमते हैं और यहां के सभी लोग हिंदुस्तानियों की तरह हैं।
देहरादून जेल में बंद कैदी भगवान राम की भक्ति में रमकर राम नाम का जाप कर रहे हैं।
दून जेल के जेलर एसके सुखीजा की अनूठी पहल
उत्तराखंड की जेल में धर्मिक वातावरण से होगी सार्थक पहल
-नारायण परगांई-
देहरादून,। देशभर में जहां रामलीलाओं की गूंज से प्रभु राम का गुनगान हो रहा है ऐसे में जेलों में बंद कैदी भी अगर राम नाम का जाप करें तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं। इन दिनों देहरादून जेल में बंद कैदी भगवान राम की भक्ति में रमकर राम नाम का जाप कर रहे हैं। और अब तक करीब चार लाख राम नाम लिख चुके हैं। ऐसा पहली बार हुआ है जब उत्तराखंड के किसी जेल में कैदियों ने राम नाम के पाठ का सिमरन किया हो। हालांकि कैदियों को अपने चरित्रा में परिवर्तन लाने के लिए जेल प्रशासन कई तरह के कामों को अंजाम देता है लेकिन इस तरह का यह पहला अनूठा काम जेल परिसर में शुरू हो पाया है। जेल में आने वाले कैदी जहां भगवान राम के नाम से अपने पिछले बिताये पापों का प्रायश्चित करने में जुटे हैं वहीं यह नई पहल जेल के भीतर भी धर्मिक वातावरण को और अध्कि बढा रही है। देहरादून जेल में शुरू से ही जेल से अपराध्यिों के नेटवर्क चलने की बातें सुर्खियों में रहती हैं और अब राम नाम के पाठ से जेल इन दिनों सुर्खियों में छाया हुआ है। देहरादून निवासी राम नाम बैंक के संयोजक संजीव शर्मा का कहना है कि ट्टषिकेश में राम नाम स्तम्भ जिस प्रकार से स्थापित है ठीक उसी प्रकार देहरादून में भी राम नाम स्तम्भ बनाने की उनकी प्रेरणा है और इसी प्रेरणा को उन्होंने जाग्रत करने के लिए करीब पचास अरब राम नाम का संग्रह करने का लक्ष्य रखा गया है। उन्होंने कहा कि इस काम को और अण्कि सार्थक गति देने के लिए उन्होंने देहरादून जेल के जेलर एसके सुखीजा से जेल परिसर में कैदियों को राम नाम का जाप कराने की बात कही जिसकें बाद जेल परिसर में बीते सप्ताह राम नाम का संग्रह करने के लिए कैदियों को कहा गया। जेल में बंद करीब सौ कैदियों ने एक सप्ताह के भीतर ही करीब चार लाख राम नाम के जाप का संग्रह कर डाला। जिससे ऐसा लगा कि जेल के भीतर भी रहने वाले कैदी अपने पापों का प्रायश्चित करने के लिए भगवान की शरण में जाना चाहते हैं। उन्होंने कहा कि जिस तरह से जेल में बंद कैदी भी राम नाम के संग्रह को एकत्रा करने में मदद कर रहे हैं ठीक उसी तरह अन्य सामाजिक व धर्मिक संगठनों से भी इसमें सहयोग मिल रहा है। जेल में बंद कैदियों द्वारा भगवान राम के रंग में रंगकर भक्ति भावना को इस कडी से भी जोडकर देखा जा रहा है कि जेल में आने वाले अध्कितर कैदी वहांधर्मिक वातावरण भी चाहते हैं। निशिचत रूप से इस नई पहल का कई राजनैतिक एवं सामाजिक संगठनों ने भी खुलकर सहयोग करेन की बात कही है और वह दिन दूर नहीं जब जेल में बंद कैदी धर्मिक भावना को आम आदमी से भी पीछे छोडने में एक सार्थक पहल करेंगे। माना जा रहा है कि इस तरह के नए प्रयास से जहां कैदियों के बौ(क एवं उनके विचार धरा में धर्मिक भावना पैदा होगी वहीं जेल से अपनी सजा पूरी करने के बाद एक अच्छे नागरिक के रूप में अपना जीवन यापन कर सकेंगे। देहरादून जेल के जेलर एसके सुखीजा ने बताया कि जेल परिसर के भीतर कैदियों को वैसे तो हर तरह का अच्छा वातावरण उपलब्ध् कराया जाता है लेकिन इस राम नाम की अनूठी पहल से कैदियों में धर्मिक भावना बढी है और निश्चित रूप से यहां आनेवाले कैदियों को धिर्मक वातावरण के साथ-साथ यह पहल एक अनूठी पहल होगी। इसके साथ ही जेल परिसर में एक मन्दिर का भी निर्माण शुरू कराया गया है जहां कैदी जेल में जानेसे पहले अपने पापों का प्रायश्चित भगवान के दरबार में मत्था टेक कर सके। उन्होंने कहा कि जेल परिसर में जहां धर्मिक वातावरण से जेल के अन्य के वातावरण में परिवर्तन होगा वही ं राम नाम की गूंज से कैदियों की बौ(क विचारधरा में भी परिवर्तन आएगा।
उत्तराखंड की जेल में धर्मिक वातावरण से होगी सार्थक पहल
-नारायण परगांई-
देहरादून,। देशभर में जहां रामलीलाओं की गूंज से प्रभु राम का गुनगान हो रहा है ऐसे में जेलों में बंद कैदी भी अगर राम नाम का जाप करें तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं। इन दिनों देहरादून जेल में बंद कैदी भगवान राम की भक्ति में रमकर राम नाम का जाप कर रहे हैं। और अब तक करीब चार लाख राम नाम लिख चुके हैं। ऐसा पहली बार हुआ है जब उत्तराखंड के किसी जेल में कैदियों ने राम नाम के पाठ का सिमरन किया हो। हालांकि कैदियों को अपने चरित्रा में परिवर्तन लाने के लिए जेल प्रशासन कई तरह के कामों को अंजाम देता है लेकिन इस तरह का यह पहला अनूठा काम जेल परिसर में शुरू हो पाया है। जेल में आने वाले कैदी जहां भगवान राम के नाम से अपने पिछले बिताये पापों का प्रायश्चित करने में जुटे हैं वहीं यह नई पहल जेल के भीतर भी धर्मिक वातावरण को और अध्कि बढा रही है। देहरादून जेल में शुरू से ही जेल से अपराध्यिों के नेटवर्क चलने की बातें सुर्खियों में रहती हैं और अब राम नाम के पाठ से जेल इन दिनों सुर्खियों में छाया हुआ है। देहरादून निवासी राम नाम बैंक के संयोजक संजीव शर्मा का कहना है कि ट्टषिकेश में राम नाम स्तम्भ जिस प्रकार से स्थापित है ठीक उसी प्रकार देहरादून में भी राम नाम स्तम्भ बनाने की उनकी प्रेरणा है और इसी प्रेरणा को उन्होंने जाग्रत करने के लिए करीब पचास अरब राम नाम का संग्रह करने का लक्ष्य रखा गया है। उन्होंने कहा कि इस काम को और अण्कि सार्थक गति देने के लिए उन्होंने देहरादून जेल के जेलर एसके सुखीजा से जेल परिसर में कैदियों को राम नाम का जाप कराने की बात कही जिसकें बाद जेल परिसर में बीते सप्ताह राम नाम का संग्रह करने के लिए कैदियों को कहा गया। जेल में बंद करीब सौ कैदियों ने एक सप्ताह के भीतर ही करीब चार लाख राम नाम के जाप का संग्रह कर डाला। जिससे ऐसा लगा कि जेल के भीतर भी रहने वाले कैदी अपने पापों का प्रायश्चित करने के लिए भगवान की शरण में जाना चाहते हैं। उन्होंने कहा कि जिस तरह से जेल में बंद कैदी भी राम नाम के संग्रह को एकत्रा करने में मदद कर रहे हैं ठीक उसी तरह अन्य सामाजिक व धर्मिक संगठनों से भी इसमें सहयोग मिल रहा है। जेल में बंद कैदियों द्वारा भगवान राम के रंग में रंगकर भक्ति भावना को इस कडी से भी जोडकर देखा जा रहा है कि जेल में आने वाले अध्कितर कैदी वहांधर्मिक वातावरण भी चाहते हैं। निशिचत रूप से इस नई पहल का कई राजनैतिक एवं सामाजिक संगठनों ने भी खुलकर सहयोग करेन की बात कही है और वह दिन दूर नहीं जब जेल में बंद कैदी धर्मिक भावना को आम आदमी से भी पीछे छोडने में एक सार्थक पहल करेंगे। माना जा रहा है कि इस तरह के नए प्रयास से जहां कैदियों के बौ(क एवं उनके विचार धरा में धर्मिक भावना पैदा होगी वहीं जेल से अपनी सजा पूरी करने के बाद एक अच्छे नागरिक के रूप में अपना जीवन यापन कर सकेंगे। देहरादून जेल के जेलर एसके सुखीजा ने बताया कि जेल परिसर के भीतर कैदियों को वैसे तो हर तरह का अच्छा वातावरण उपलब्ध् कराया जाता है लेकिन इस राम नाम की अनूठी पहल से कैदियों में धर्मिक भावना बढी है और निश्चित रूप से यहां आनेवाले कैदियों को धिर्मक वातावरण के साथ-साथ यह पहल एक अनूठी पहल होगी। इसके साथ ही जेल परिसर में एक मन्दिर का भी निर्माण शुरू कराया गया है जहां कैदी जेल में जानेसे पहले अपने पापों का प्रायश्चित भगवान के दरबार में मत्था टेक कर सके। उन्होंने कहा कि जेल परिसर में जहां धर्मिक वातावरण से जेल के अन्य के वातावरण में परिवर्तन होगा वही ं राम नाम की गूंज से कैदियों की बौ(क विचारधरा में भी परिवर्तन आएगा।
Monday, September 21, 2009
नवप्रभात के कामों का चिट्ठा मुख्यमंत्री को पेश कर दिया था।
नवप्रभात को उत्तराखण्ड का लालू भी कहा जाता है। चौकिये नहीं, जेट्रोफा में जो घोटाला हुआ वह लालू के चारा घोटाले को भी कोसो पीछे छोड जाता है। कांग्रेस सरकार के ही एक मंत्री ने जेट्रोफा घोटाले की शिकायत तत्कालीन मुख्यमंत्री पं० नारायण दत्त तिवारी से की थी। तत्कालीन वन मंत्री पर ने एक ओर जहां अदालत की अवमानना का आरोप लगा वहीं कैबिनेट के फैसले को जूते की नोंक पर रखने की चर्चा रही।
क्या थे वह तमाम हालात। जिसके मद्देनजर मात्र ५६ वोटों से जीतने वाला एक विधायक बाहुबली और अकूत धन दौलत का मालिक बन गया। फिर विकास नगर की जनता की अदालत में वह कसूरवार सिद्ध हुआ। एक विस्तृत और सम्पूर्ण सहेजने योग्य राजनीतिक दस्तावेज।
वर्ष २००२ में उत्तराखण्ड में पहली निर्वाचित कांग्रेस सरकार का गठन हुआ। धनबल और सांसद पिता की विरासत के बूते विकासनगर विधानसभा क्षेत्र से मात्र ५६ वोटों से जीतकर आए नवप्रभात कांग्रेस सरकार में वनमंत्री पद से नवाजे गये थे। तत्कालीन मुख्यमंत्री एनडी तिवारी ने उन्हें प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और बायो फ्यूल बोर्ड के साथ-साथ वन व शहरी विकास जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालय भी सौंपे। नवप्रभात के अधीन एक भी विभाग ऐसा नही रहा था जिसको लेकर चर्चाएं आम नही रही हो। जब जनता वोट के रूप में अपनी ताकत नवप्रभात के हाथों में सौंप रही थी तो शायद ही उसने उसने सोचा होगा कि उसका कथित रहबर ऐसा निकलेगा। नवप्रभात ने अपने अधीन आने वाले एक भी बोर्ड व विभाग को ऐसा नही छोडा, जहां उसने नियम कायदों को जबरन मोडा-तोडा न हो। मंत्री बनते ही नवप्रभात जनभावनाओं के विपरीत कार्य करते चले गए। वन मंत्री की तानाशाही इतनी बढती चली गयी थी कि एक अन्य कैबिनेट मंत्री ने नवप्रभात के कामों का चिट्ठा मुख्यमंत्री को पेश कर दिया था। करतूते जब हद से पार हो गयी और शिकायत मुख्यमंत्री के दरबार में चली गई, तो मुख्यमंत्री को मजबूरन नवप्रभात को झिडकी लगानी पडी थी। मायावती के उत्तराखण्ड दौरे के समय नवप्रभात अपने खासमखास डिप्टी मेयर उमेश शर्मा ’काऊ‘ को डोईवाला से बसपा का टिकट दिलाने की सिफारिश करने गए तो मीडिया में यह मामला उछला जिससे कांग्रेस सरकार व नवप्रभात की छवि खराब हुई। विकासनगर में वैटलैंड संरक्षण आरक्ष योजना में हुए घोटाले को लेकर जबरदस्त आंदोलन से नवप्रभात की छवि धूमिल हुई थी। पेयजल निर्माण निगम के एमडी को सेवा विस्तार देने में उनकी भूमिका रही या नगर निगम के डिप्टी मेयर के कार्यकाल को बढाने में अपने प्रभाव का इस्तेमाल का मामला तथा तत्कालीन मेयर मनोरमा शर्मा विरुद्ध षडयंत्र रचने में उनकी भूमिका मानी गयी। मुख्यमंत्री के खासमखास रहने के कारण तमाम नियम, कायदे कानूनों को रौंदा। कैबिनेट की सलाह को ताक पर रखा। तत्कालीन कैबिनेट मंत्री प्रीतम ने तो मुख्यमंत्री से लिखित शिकायत की। इसके अलावा पर्यटन मंत्री से भी भिडे। वहीं कांग्रेस की ही मेयर मनोरमा शर्मा से छत्तीस का आंकडा रहा।
नवप्रभात इससे पहले मात्र ५६ वोटों से जीतकर तानाशाह बन गये
मात्र ५६ वोटों से जीतकर आए सूबे के वन, पर्यावरण एवं शहरी विकासमंत्री नवप्रभात ने तानाशाह की तरह सरकारी संपत्ति का दोहन किया वह आश्चर्यजनक ही नही शर्मनाक भी था। जनता अपने बीच से चुनकर जब किसी व्यक्ति को अपना नीति-निर्माता घोषित करती है, तो उसके पीछे उसकी बहुत सी उम्मीदें आशाएं होती है। नवप्रभात ने जिस निर्दयता के साथ जन आशाओं पर पानी फेरा उससे नेताओं से जनता का विश्वास उठना लाजमी था। उनकी विधानसभा क्षेत्र में अपने मंत्री की करतूतों को लेकर जनता में रोष बढता गया, नागरिेकों की तमाम समस्याएं सामने खडी थी। स्थानीय लोग यह मान रहे थे कि नवप्रभात ने जनता की बदौलत हासिल की प्रभुसत्ता का जिस तरह दुरुपयोग किया वह निराशाजनक है। वहीं नवप्रभात सत्ता के मद में चूर होकर इंसान को इंसान समझने के लिए तैयार न थे। वह तो घमण्ड व सत्ता के रथ में सवार होकर सातवें आसमान पर थे। शायद तभी जनता ने उनका धरातल पर लाने के लिए धडाम से जमीन पर पटका और वह विधानसभा चुनाव हार गये।
पर्यावरण मंत्री के रुप में उनका सबसे दूषित कार्य प्रतिबंधित उद्योगों को अनापत्ति प्रमाण पत्र देना था। दून वैली अधिसूचना के अनुसार देहरादून में लाल एवं नारंगी श्रेणी के उद्योगों की स्थापना प्रतिबंधित है, लेकिन बोर्ड द्वारा मंत्री के दबाव में आकर कई फार्मस्यूटिकल कंपनियों की स्थापना के लिए अनापत्ति प्रमाण-पत्र दे दिए गए। जो कि पूर्व में वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के पास विचारार्थ लंबित थे। मंत्री बनने के बाद नवप्रभात ने बडे पैमाने पर जमीनों की खरीद-फरोख्त की। मंत्री ने अपने खास लोगों की एक चौकडी की आड में अपने साम्राज्य विस्तार के इरादों को धरातल दिया था। चर्चा थी कि नवप्रभात की अन्य कई स्थानों पर भी करोडों की संपत्ति है। लेकिन आयकर के अधिकारियों से यह हमेशा महफूज रहे। भगवानपुर रूडकी में नवप्रभात की कई सौ बीधा जमीन जोडी गयी।
मंत्री के रुप में नव प्रभात के काले कारनामे
जेट्रोफा घोटाला
जैट्रोफा एक झाडी है, जो रूखी भूमि पर पर भी आसानी से ग्रोथ कर जाता है। एक ओर जैट्रोफा बोर्ड के अधिकारी कहते हैं कि जैट्रोफा को केवल बंजर जमीन पर ही उगाया जाना चाहिए। इसे सिंचाई की भी आवश्यकता नही होती।फिर इसके लिए अलग से लाख दो लाख नही करोडों रूपए की खाद खरीदी गयी। गौरतलब तथ्य यह है कि वन विभाग की तमाम नर्सरियों में जहां साधारण खाद डाली जाती है। वही जैट्रोफा के लिए बाहरी प्रदेशों से माइकोराजा, बायोमैन्यूर व तमाम कीटनाशक खरीदे गये। बोर्ड ने बताया कि इन दो वर्षों में एक करोड ६०लाख १३हजार रूपए की खाद खरीदी जा चुकी है। बोर्ड के सचिव ने कहा कि उन्नत बीजों की पैदावार के लिए यह जरूरी था। बाहरी प्रदेशों से खाद खरीदने के पीछे वह कहते हैं कि इन सबका टेण्डर डाला गया था। टडर इन्ही संस्थाओं के नाम खुला होगा। बहुचर्चित बायोफ्यूल बोर्ड भी इनमें से एक है। बायोफ्यूल के उत्तराखण्ड के सकल घरेलू उत्पाद में करीब दो सौ करोड रूपए की बढोतरी का सपना सजोने वाले वन विभाग के सपने वर्ष २००४ में बोर्ड की स्थापना के बाद कितने धराशायी हुए यह साफ देखा जा सकता था। विधानसभा सत्र की कार्रवाई के दौरान बायोफ्यूल बोर्ड को लेकर उठे सवालों का स्पष्ट जवाब वनमंत्री नवप्रभात के पास नही था। सदन में भाजपा के तत्कालीन सदस्य अजय भट्ट के एक अल्पसूचित प्रश्न के जवाब में तत्कालीन वनंत्री नवप्रभात ने अवगत कराया था कि राज्य में अब तक १००१६.२३४ हैक्टेयर क्षेत्रफल में एक करोड ८८ लाख १९हजार ९८३ जैट्रोफा पौंधों का रोपण किया जा चुका है।इसके एक दिन पहले भाजपा विधायक विजय बडथ्वाल के एक प्रश्न के जवाब में वनमंत्री ने सदन को बताया था कि प्रदेश में अभी तक ८५५४ हेक्टेयर क्षेत्रफल में ही जेट्रोेफा रोपण किया गया है। वनमंत्री नवप्रीाात द्वारा जैट्रोफा रोपण को लेकर सदन को जो गुमराह किया गया, उससे स्पष्ट होता है कि करीब १४६२ हैक्टेयर भूमि पर जैट्रोफा रोपण नही किया गया। इससे लाखों रूपए की गोलमाल की बात की भी पुष्टि होती है।
बायोफ्यूल बोर्ड के तत्कालीन सचिव एके लोहिया ने बताया था कि एक करोड ८८लाख १९हजार जैट्रोफा पौंध करीब १०हजार हैक्टेयर भूमि पर रोपित की जा चुकी है और दो लाख हैक्टेयर भूमि पर जैट्रोफा रोपण का लक्ष्य है। पिछले दो सालों में जब मात्र १० हजार हैकटेयर भूमि पर जैट्रोफा रोपित किया गया। तो दो लाख हैक्टेयर भूमि पर कितने सालों बाद हो पाएगा, अंदाजा लगाया जा सकता है।खाद खरीदने सहित बोर्ड अभी तक ६करोड रूपए खर्च कर चुका है। ऐसे ही कई अन्य हैरतअंगेज तथ्य थे। बोर्ड ने दावा किया था कि प्रदेश करीब सवा चार सौ गांवों में इस समय जैट्रोफा का कार्य चल रहा है।
मीडिया ने जैट्रोफा पर काम कर रहे इन गांवों का दौरा करने पर पाया कि मात्र जैट्रोफा की सूखी डंठलें खडी हैं। शुरूआती दौर में बोर्ड ने संबंधित गांवों का सर्वे तक नही किया। नतीजन ग्रामीणों ने सैकडों हैक्टेयर भूमि पर जैट्रोफा रोपण दिखाकर पैसे झटक लिए तो कही पौंध की पौंध नदी में बहा दी गई। विभाग ने अब दर्जनभर सर्वेयर रखे हैं। इनका विभिन्न गावों का रोज का टीए, डीए ही हजारों में बैठ जाता है। सालों बाद जब बायोफ्यूल बनकर तैयार होगा तो अनुमान लगाया जा सकता है कि इसकी वास्तविक कीमत आज के पैट्रोल की कीमत को भी मात दे रही होगी।
अब पर्यावरण प्रदूषण बोर्ड में नव प्रभात के काले कारनामे देखिये। पर्यावरण प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड में अपने चहेतों की नियुक्ति को लेकर उठे सवाल ने भी नवप्रभात की छवि को धूमिल किया। प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के सचिव की नियुक्ति की अध्यक्षता में कमेटी गठित की गई। कमेटी ने इस पद के लिए नौ लोगों का साक्षात्कार लिया और योग्यता के आधार पर तीन लोगों का चयन किया गया। वन मंत्री योग्यता क्रम में तीसरे स्थान पर रहे, संजय भूटानी को सदस्य सचिव की कुर्सी पर बैठाना चाहते थे। मंत्री नवप्रभात की सिफारिश पर इस व्यक्ति की फाइल जब ग्राम्य विकास आयुक्त ;वनद्धके पास पहुची तो उन्होंने इस फाइल पर साइन करने से मना कर दिया। नवप्रभात के मनमानी पर उतर जाने पर ग्राम्य विकास आयुक्त (वन) इस मामले को लेकर खुद ही मुख्यमंत्री के दरबार में चली गई, तो मुख्यमंत्री को मजबूरन नवप्रभात को झिडकी लगानी पडी। अनंतः चयन कमेटी द्वारा चयनित सचिव ओएनजीसी से प्रतिनियुक्ति पर आए सीबीएस नेगी ने दो अप्रेल २००३ को बोर्ड में कार्यभार ग्रहण कर लिया। इससे नाखुश नवप्रभात ने अब चुन-चुनकर बदला लेना शुरू कर दिया। इसकी पहली गाज ग्राम्य विकास आयुक्त पर पडी और उन्हें इस महत्वपूर्ण पद से हाथ धोना पडा। प्रदेश के प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड में सचिव की कुर्सी पर अपने चहेतों को बैठाने के लिए नवप्रभात अदालती आदेश की अवमानना करने में भी नहीं हिचकिचाए। मलाईदार कहे जाने वाले इस बोर्ड में नवप्रभात की मंशा के अनुरूप और तय मानकों के विपरीत जब बोर्ड के सदस्य सचिव सीबीएस नेगी ने कार्य करने से मना कर दिया, तो नवप्रभात ने उन्हें बोर्ड से बाहर का रास्ता दिखाकर ही दम लिया। सीबीएस नेगी के नेतृत्व में बोर्ड ने काम करना शुरू कर दिया था। बोर्ड का विधिवत कामकाज शुरू करने के लिए करीब डेढ दर्जन कर्मचारियों को एक वर्ष की संविदा पर रखा गया। नेगी की कुशल कार्यशैली का ही नतीजा था कि ३७ लाख की आर्थिक स्थिति से शुरू हुआ बोर्ड अपनी वित्त क्षमता को बढाकर दो-ढाई वर्ष में पांच करोड तक ले गया। सूत्र बताते हैं कि इस इस बीच नवप्रभात ने अपने चहेते लोगों के उद्योगों को अनापत्ति प्रमाण-पत्र दने के साथ ही उन्हें प्रत्येक महीने कमीशन देने के लिए बोर्ड पर दबाव डाला। सचिव नेगी ने तय मानकों के विपरीत कार्य करने से साफ इनकार कर दिया। यहीं नहीं सोमानी फोम्स जैसी अन्य राज्यों में ब्लैक लिस्टेड कई कंपनियों को नेगी ने उत्तरांचल में उद्योग स्थापित करने के लिए अनापत्ति प्रमाण-पत्र देने से मना कर दिया। इस बीच एक वर्ष पूरा होने के बाद संविदाकर्मियों का कार्यकाल उपलब्धियों के साथ एक वर्ष के लिए बढा दिया गया।
वर्ष २००५ में संविदाकर्मियों का कार्यकाल समाप्त हुआ तो संविदाकर्मियों ने इसे बढाने की मांग उठाई, लेकिन इसे ठुकरा दिया गया। जबकि बोर्ड को इन संविदाकर्मियों की सख्त जरूरत थी। लेकिन नवप्रभात को इन संविदाकर्मियों से चिढ थी।क्योंकि ये सभी पूर्व सचिव सीवीएस नेगी के कार्यकाल में नियुक्त किए गए थे। संविदाकर्मी न्यायालय की शरण में गए तो न्यायालय से १सितंबर २००५ को संविदाकर्मियों को अंतरिम राहत दते हुए बोर्ड द्वारा पूर्व में २६.१०.२००४ को विज्ञप्ति विज्ञापन के क्रम में पदों पर स्थाई नियुक्ति होने तक संविदाकर्मियों को अपने पदों पर यथास्थिति बनाए रखने का निर्णय दिया। इसके बाद भी बोर्ड का रवैया नही बदला। नतीजतन संविदाकर्मियों को आंदोलन का रास्ता अपवनाना पडा। मुख्यमंत्री की शरण में गए तो मुख्यमंत्री ने न्यायालय के आदेश के क्रम में वन एवं पर्यावरण मंत्री की यथोचित कार्रवाई करने को कहा। लेकिन वनमंत्री नहीं माने। नवप्रभात ने कांग्रेस संगठन के पदाधिकारियों की बात भी नहीं मानी।
अपनी एक न चलती देख भला नवप्रभात चुप कैसे बेठते। उन्होंने तमाम तिकडमें भिडाते हुए सचिव नेगी को उनके कार्यकाल की अवधि से पूर्व ही बोर्ड से बाहर का रास्ता दिखा दिया। इसके बाद मंत्री ने बोर्ड का जमकर दोहन किया। ऐसे तमाम उद्योगों को भारी कमीशन देकर अनापत्ति प्रमाण-पत्र दे दिए गए जो कि नेगी के कार्यकाल में अयोग्य ठहरा दिए गए थे। तब चाहे वह काशीपुर की श्याम पेपर मिल हो या फिर सोमानी फोम्स फोम्स कंपनी।
अन्य राज्यों से बाहर कर दिए गए पर्यावरण के लिए खतरनाक कई उद्योगों ने नवप्रभात की मेहरबानी से उत्तराखण्ड में अपनी जडे जमा ली। कमीशन की मोटी रकम पर स्थापित इन उद्योगों का नतीजा था श्याम पेपर मिल और सिडकुल हरिद्वार में स्थापित उद्योंगों में दुर्घटनाएं। जिनमें आग लगने व अन्य कारणों से दो दर्जन कामगारों को अपनी जान से हाथ धोना पडा।
मंत्री बनने के बाद नवप्रभात ने अपने अधीनस्थ विभागों को निजी हित साधने के लिए रौंदना शुरू कर दिया। नवप्रभात की पहली व्यापक चर्चा २००३ के अक्टूबर माह म हुई यह ऐसा मामला था जिसने सबको चौंकाकर रख दिया। ..................................................................................................................... आरक्षित वन क्षत्र में ४५ बीघा जमीन में फार्म हाउसः-
राजधानी से करीब बीस किमी की दूरी पर सहसपुर विकासखंड के अंतर्गत किमाडी नामक स्थान पर आरक्षित वन क्षत्र में वन मंत्री नवप्रभात का ४५ बीघा जमीन में एक फार्म हाउस स्थित है। अपने निजी फार्म हाउस पर सरकारी पैसे से सडक बनवायी। ४५ बीघा जमीन की बाउंड्री बाल ही नहीं करायी गयी। हैरानी की बात यह रही कि वन महकमा जहां एक ओर आरक्षित वन क्षेत्रों को मानवरहित करने में जुटा हुआ है, वहीं उन महकमे का ही मुखिया और जन प्रतिनिधि आरक्षित वनक्षेत्र में खुल्लमखुल्ला अवैध निर्माण किये जाने की चर्चा रही। चारों ओर से घने वनों से घिरे इस फार्म हाउस तक पहुंचने के लिए तत्कालीन वन मंत्री ने वर्ष २००३ में तमाम नियम कानूनों को ठेंगा दिखाते हुए २० फुट चौडी व आधा किमी लंबी सडक बना डाली। रास्ते में आए दर्जनों हरे-भरे पेडों को कटावा दिया गया। देर-सबेर वहां विशाल फार्म हाउस बनाया जाएगा-यह तय है। वर्तमान में फार्म हाउस में किमाडी गांव के दो लोगों को बतौर चौकीदार नौकरी दी गई है। वनमंत्री ने कागजों में यह सडक वानिकी कार्यों के लिए दर्शाई है। वनमंत्री किस तरह से सरकारी खजाने को चूना लगा रहे हैं। इसका अंदाजा तो इसी बात से लगाया जा सकता है कि फार्म हाउस के लिए बनाई जा रही सडक वह खुद के पैसों से नहीं बल्कि अपनी विधायक निधि से बनाई। सडक के किनारे खडे दर्जनों सूखे पेड पहाडों को बेतरतीब ढंग से काटा गया। नवप्रभात ने विधानसभा में ७१वें विधायक के रूप में मनोनीत किए गए आरवी गार्डनर की विधायक निधि से भी फार्महाउस को जाने वाली इस सडक के निर्माण के लिए दो लाख रूपए दिए थे।इस पूरे प्रकरण के खुलासे के बाबजूद भी न तो वन विभाग ने कोई कर्रवाई की और न ही शासन ने। आम आदमी के आरक्षित वन क्षेत्र में घुसने पर भी एतराज करने वाले वन विभाग के तमाम आला अफसरान चुप्पी साधे बैठे रहे। निकटवर्ती गांव डेढ किमी दूर होने के बाबजूद ऊर्जा निगम द्वारा फार्म हाउस के पास ही जंगल में ट्रांसफार्मर स्थापित किया गया। ताकि मंत्री जी के फार्म हाउस में लो वोल्टेज की समस्या खडी न हो। ट्रांसफार्मर दूर होने के कारण पूरे किमाडी गांव में लो वोल्टेज की समस्या होने लगी। इसके अलावा फर्म हाउस के लिए बकायदा अलग से पाइप लाइन भी बिछाई गई।
खनन नीति में भ्रष्टाचार
नवप्रभात ने खनन नीति में भ्रष्टाचार को बढावा दिया। निगमों से खनन कार्य छीनने के लिए कोई खास बजह ढूंढ न पाने के कारण इसी नीति को यथावत रखा। हालाकि वनमंत्री ने अपने चहेतों और खनन माफिया को फायदा पहुंचाने को पूरी जोर आजमाइश की, पर विफल रहे। बात यहां तक पहुचा दी गई थी कि निगमों के साथ-साथ खनन कार्य को समितियों को भी सौंपा जाए।इस कार्य को अंजाम देने के लिए ११अक्टूबर २००२को निर्णय लिया गया परंन्तु लागू नही कर दिया गया। १५ अक्टूबर को वनमंत्री नवप्रभात ने खनन नीति के शासनादेश जारी न करने को कहा और १७ अक्टूबर को इसमें संसोधन करके खनन नीति को जारी किया गया। इस प्रकार इसमें कुछ मनमाफिक प्राविधान जैसे ’निगमों के साथ-साथ समितियों को भी कार्य सौंपा जाए‘ जोडे गए जिससे काफी बबाल मचा।
बैराज स्थित झील में भी जमकर भ्रष्टाचार किया
नवप्रभात वर्ष २००५में आसन बैराज स्थित झील में भी जमकर भ्रष्टाचार हुआ। चकराता वन प्रभाग की रीवर रेंज के अंर्तगत आसान बैराज में प्रतिवर्ष शीतकाल में हजारों विदेशी पक्षी आते है। १३ जनवरी २००५ को वन एवं पर्यावरण मंत्री नवप्रभात की अध्यक्षता में हुई वन विभाग,सिचाई विभाग व जल विद्युत निगम के अधिकारियों की बैठक में इस योजना का खाका तैयार किया गया था। निर्णय हुआ था कि आसन वैटलैंड संरक्षण आरक्ष योजना को मूर्त रूप देने के लिए सिचाई विभाग कार्यदाई संस्था व वन विभाग नोडल एजेंसी करेगी। इसके तहत बैराज के पास चकराता वन प्रभाग की रीवर रेंज के अंतगर्त ४४४.४० हैक्टेयर भूमि पर दो नई झीलें तैयार करने के लिए सिचाई विभाग ने एक निजी सर्वेयर की मदद से लगभग ३.१५करोड रूपए का प्रस्तावित बजट शासन को भेजा था। प्रस्ताव को स्वीकृति दते समय शासन ने प्रथम चरण में लगभग २करोड ३१लाख रूपए हस्तांतरित किए। लेकिन आश्चर्य की बात है कि प्रस्तावित बजट से लगभग ४८ फीसदी कम दरों एक करोड दस लाख रूपए में एक ठेकेदार यह कार्य करने क लिए तैयार हो गया। अनुबंध के तहत ठेकेदार को दो झीलों की खुदाई, कंपेशन व झील की तह पर चिकनी मिट्टी एक फुट मोटी परत डालने का कार्य करना था। इससे पहले कि ४८ फीसदी कम दामों पर कार्य किये जाने से वन विभाग की किरकिरी होती, वनमंत्री नवप्रभात ने झीलों के सौंदर्यीकरण पर शेष एक करोड रूपए का उपयोग करने की बात कहकर मामले को संभाल लिया।
सूत्र बताते हैं कि इतने बडे बजट को ठिकाने लगाने का खेल मिट्टी की खुदाई और ढुलान में किया गया। विभाग का आकलन था कि प्रत्येक झील से लगभग ४५हजार घनमीटर मिट्टी निकलेगी, लेकिन ठेकेदार ने दोनों झीलों सवा दो लाख घनमीटर मिट्टी निकालने का एस्टीमेट विभाग के सुपुर्द कर दिया। विभागीय अधिकारियों ने भी अपने ही आकलन को गलत ठहराते हुए ठेकेदार के ऐस्टीमेट को पास कर दिया।
मानकों की धज्जियां उडाने का यह सिलसिला शुरू हुआ तो फिर पूरे बजट को ठिकाने लगाने के बाद ही रूक पाया। ६०हजार रूपए प्रति घनमीटर की निर्धारित दर के मुकाबले ९०हजार रूपए प्रतिघनमीटर की दर से ठेकेदार को भुगतान किया गया। सबसे अहम बात यह रही कि झील के कंपेक्शन व सतह पर चिकनी मिट्टी की एक फुट मोटी परत को बिछाने के अनुबंध को विभागीय घोषित कर दिया गया। इन दोनों कार्यों के लिए निर्धारित ४०लाख रूपया सीधे-सीधे गोलमाल कर दिया गया। ठेकेदार को निर्धारित राशि से कही अधिक भुगतान ;१करोड ९७लाख ४६हजारद्ध होना दिखा दिया गया। यह भुगतान भी अनुबंधित कार्य पूरा होने से पहले ही वन विभाग की सहमति पर संबंधित ठेकेदार को कर दिया गया। इससे स्पष्ट होता है कि आसन वैटलेंड आरक्ष योजना में करोडों रूपए के वारे-न्यारे किए गए। हकीकत में झीलों के नाम पर कुछ काम तो हुआ नहीं, घोटाला करोडों का कर दिया गया।
विकास नगर में झीलों के सौन्दर्यीकरण के नाम पर करोडों डकारे
विकास नगर की जनता को याद रखना चाहिए कि नवप्रभात ने विकास के नाम पर जमकर करोडों का घोटाला किया। विकासनगर पौंटासाहिब मोटरमार्ग पर आसन बैराज के किनारे जहां पहले ही प्राकृतिक रूप से झीलें बनी हुई थी। कथित रूप से यह दोनों झीलें बनाई गई।झील बनाने के नाम पर इन दोनों स्थानों पर कुछ दिन जेसीबी लगाई गई और मलबा निकालकर अन्यत्र फैकने के बजाय झील के किनारे लगा दिया गया। नाममात्र की यह झीलें इस तरह बनाई गयी जैसे जैसे गड्ढे खोदकर किनारे लगा दिया जाता है। झीलों में पानी के नाम पर गाद और गंदगी भरी हुई है। पक्षी तो शायद ही देखने को मिलें। सौंदर्यीकरण के नाम पर कुछ नहीं हुआ, हॉ, इन सबके नाम पर एक करोड रूपया खर्चा दिखा दिया गया।
इस तरह कुल मिलाकर नवप्रभात पांच साल कैबिनेट मंत्री रहे, विकास नगर विकास की किरण को छू तक नहीं पाया। वन पांच सालों में चाहे वह शहरी विकास हो, वन विभाग हो कोई खास उपलब्धि प्रदेश हासिल नही कर पाया। परन्तु नवप्रभात अकूत धन दौलत के मालिक जरुर बन गये।
एक का दस करने में माहिर हैं
नवप्रभात ने एक खास जमीन को टिहरी बांध विस्थापितों के लिए चयनित किए जाने का भरसक प्रयास किया। लेकिन टिहरी विस्थापित वहंा जाने के लिए तैयार नही हुए और नवप्रभात के मंसूबे धरे के धरे रह गए।इस पर नवप्रभात इस पूरी जमीन को औद्यौगिक क्षेत्र घोषित करा दिया। इस तरह कौडयों के भाव खरीदी इस जमीन से नवप्रभात करोडों रूपए बनाने में सफल रहे।
नवप्रभात के बारे में चर्चा थी कि वह हर जगह जनता के विपरीत खडे हो अपनी मनमानी करते रहे। गढवाल व कुमाऊं मंडल को जोडने वाला रामनगर-कालागढ-कोटद्वार राजमार्ग का रुट बदलकर इसे उत्तरप्रदेश से होकर बनाने के प्रस्ताव में भी वनमंत्री की महत्वपूर्ण भूमिका मानी जाती है। रामनगर-कालागढ-कोटद्वार मोटरमार्ग संघर्ष समिति का कहना था कि नवप्रभात पूंजीपतियों व भू-माफियाओं से मिले हुए है। आरोप था कि नवप्रभात के उद्योगपतियों से भी संबंध है। यूपी से होकर प्रस्तावित इस राज्य राजमार्ग पर थापर सहित कई बडे बिल्डरों व उद्योगपतियों के रिसोर्ट, फार्म हाऊस व जमीन है। इस मार्ग के उत्तर-प्रदेश से होकर बनाने में सबसे ज्यादा फायदा इस मार्ग के आसपास पड रहे रिसोर्ट के मालिकों को होता। समिति का कहना था कि यही एकमात्र मार्ग था जो सीधे गाढवाल व कुमाऊं मंडल को आपस में जोडता है। अभी तक गढवाल व कुमाऊ मंडल जाने के लिए लोगों को लंबी दूरी तय कर उप्र से होकर जाना पडता है।
इससे सबसे ज्यादा नुकसान व्यापारी को उठाना पडता ह। क्योंकि उन्हें दोहरे कर की मार झेलनी पडती है। रामनगर-कालागढ-कोटद्वार राजमार्ग बनने से दोनों मंडलों के बीच दूरी तो घटती ही उत्तर प्रदेश से हांकर जाने में दिए जाने वाले कर आदि समसयाओं से भी छुटकारा मिलता। लेकिन नवप्रभात को राज्यहितों से कोई सरोकार नही है और उन्होंने इसे चुपचाप उप्र से स्वीकृत होने दिया।
कांग्रेस के ही मंत्री से भिडेः-
कांग्रेस के तत्कालीन पर्यटन मंत्री से भिडने में भी उन्होंने गुरेज नही किया। वनमंत्री शिवपुरी आदि स्थानों में रीवर राफ्टिंग वाले क्षेत्रों को इको टूरिज्म के अंतगर्त लाना चाहते थे।जबकि यह क्षेत्र पहले से ही पर्यटन मंत्रालय के अधीन है। रीवर राफ्टिंग के लिए कई मोटरवोट कंपनियां आवेदन करती हैं। बताते हैं कि वनमंत्री अपने एक खास आदमी को इसका ठेका दिलाना चाहते थे। उस पर पर्यटन मंत्री को बाकायदा मुख्यमंखी को पत्र लिखना पडा। पत्र में उन्होंनें नवप्रभात के हस्तक्षेप पर कडा ऐतराज जाहिर किया था। वनमंत्री ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर न सिफ्र नीति -निर्णय बदल डाले, बल्कि तमाम नियम-कानूनों को भी ठेंगा दिखाने से हिचकिचाए नहीं।
इस तरह उनके इस कारनामों को तत्कालीन मीडिया में खूब सुर्खियां मिली थी। जिस पर विकास नगर की जनता ने उन्हें कसूरवार मानकर विधानसभा में नहीं भेजा। अब राजनीतिक हालात का लाभ उठाकर वह विधान सभा में फिर पहुंचना चाहते हैं। अगर वह विधानसभा में पहुंचे तो यह माना जाएगा कि जनता की याददाश्त बडी हल्की होती हैं। यह विस्तृत रिपोर्ट तत्कालीन मंत्री पद पर रहते हुए प्रकाशित हुई थी, जनता की अदालत में हमने इसे फिर से पेश किया ताकि ………………सनद रहे
क्या थे वह तमाम हालात। जिसके मद्देनजर मात्र ५६ वोटों से जीतने वाला एक विधायक बाहुबली और अकूत धन दौलत का मालिक बन गया। फिर विकास नगर की जनता की अदालत में वह कसूरवार सिद्ध हुआ। एक विस्तृत और सम्पूर्ण सहेजने योग्य राजनीतिक दस्तावेज।
वर्ष २००२ में उत्तराखण्ड में पहली निर्वाचित कांग्रेस सरकार का गठन हुआ। धनबल और सांसद पिता की विरासत के बूते विकासनगर विधानसभा क्षेत्र से मात्र ५६ वोटों से जीतकर आए नवप्रभात कांग्रेस सरकार में वनमंत्री पद से नवाजे गये थे। तत्कालीन मुख्यमंत्री एनडी तिवारी ने उन्हें प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और बायो फ्यूल बोर्ड के साथ-साथ वन व शहरी विकास जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालय भी सौंपे। नवप्रभात के अधीन एक भी विभाग ऐसा नही रहा था जिसको लेकर चर्चाएं आम नही रही हो। जब जनता वोट के रूप में अपनी ताकत नवप्रभात के हाथों में सौंप रही थी तो शायद ही उसने उसने सोचा होगा कि उसका कथित रहबर ऐसा निकलेगा। नवप्रभात ने अपने अधीन आने वाले एक भी बोर्ड व विभाग को ऐसा नही छोडा, जहां उसने नियम कायदों को जबरन मोडा-तोडा न हो। मंत्री बनते ही नवप्रभात जनभावनाओं के विपरीत कार्य करते चले गए। वन मंत्री की तानाशाही इतनी बढती चली गयी थी कि एक अन्य कैबिनेट मंत्री ने नवप्रभात के कामों का चिट्ठा मुख्यमंत्री को पेश कर दिया था। करतूते जब हद से पार हो गयी और शिकायत मुख्यमंत्री के दरबार में चली गई, तो मुख्यमंत्री को मजबूरन नवप्रभात को झिडकी लगानी पडी थी। मायावती के उत्तराखण्ड दौरे के समय नवप्रभात अपने खासमखास डिप्टी मेयर उमेश शर्मा ’काऊ‘ को डोईवाला से बसपा का टिकट दिलाने की सिफारिश करने गए तो मीडिया में यह मामला उछला जिससे कांग्रेस सरकार व नवप्रभात की छवि खराब हुई। विकासनगर में वैटलैंड संरक्षण आरक्ष योजना में हुए घोटाले को लेकर जबरदस्त आंदोलन से नवप्रभात की छवि धूमिल हुई थी। पेयजल निर्माण निगम के एमडी को सेवा विस्तार देने में उनकी भूमिका रही या नगर निगम के डिप्टी मेयर के कार्यकाल को बढाने में अपने प्रभाव का इस्तेमाल का मामला तथा तत्कालीन मेयर मनोरमा शर्मा विरुद्ध षडयंत्र रचने में उनकी भूमिका मानी गयी। मुख्यमंत्री के खासमखास रहने के कारण तमाम नियम, कायदे कानूनों को रौंदा। कैबिनेट की सलाह को ताक पर रखा। तत्कालीन कैबिनेट मंत्री प्रीतम ने तो मुख्यमंत्री से लिखित शिकायत की। इसके अलावा पर्यटन मंत्री से भी भिडे। वहीं कांग्रेस की ही मेयर मनोरमा शर्मा से छत्तीस का आंकडा रहा।
नवप्रभात इससे पहले मात्र ५६ वोटों से जीतकर तानाशाह बन गये
मात्र ५६ वोटों से जीतकर आए सूबे के वन, पर्यावरण एवं शहरी विकासमंत्री नवप्रभात ने तानाशाह की तरह सरकारी संपत्ति का दोहन किया वह आश्चर्यजनक ही नही शर्मनाक भी था। जनता अपने बीच से चुनकर जब किसी व्यक्ति को अपना नीति-निर्माता घोषित करती है, तो उसके पीछे उसकी बहुत सी उम्मीदें आशाएं होती है। नवप्रभात ने जिस निर्दयता के साथ जन आशाओं पर पानी फेरा उससे नेताओं से जनता का विश्वास उठना लाजमी था। उनकी विधानसभा क्षेत्र में अपने मंत्री की करतूतों को लेकर जनता में रोष बढता गया, नागरिेकों की तमाम समस्याएं सामने खडी थी। स्थानीय लोग यह मान रहे थे कि नवप्रभात ने जनता की बदौलत हासिल की प्रभुसत्ता का जिस तरह दुरुपयोग किया वह निराशाजनक है। वहीं नवप्रभात सत्ता के मद में चूर होकर इंसान को इंसान समझने के लिए तैयार न थे। वह तो घमण्ड व सत्ता के रथ में सवार होकर सातवें आसमान पर थे। शायद तभी जनता ने उनका धरातल पर लाने के लिए धडाम से जमीन पर पटका और वह विधानसभा चुनाव हार गये।
पर्यावरण मंत्री के रुप में उनका सबसे दूषित कार्य प्रतिबंधित उद्योगों को अनापत्ति प्रमाण पत्र देना था। दून वैली अधिसूचना के अनुसार देहरादून में लाल एवं नारंगी श्रेणी के उद्योगों की स्थापना प्रतिबंधित है, लेकिन बोर्ड द्वारा मंत्री के दबाव में आकर कई फार्मस्यूटिकल कंपनियों की स्थापना के लिए अनापत्ति प्रमाण-पत्र दे दिए गए। जो कि पूर्व में वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के पास विचारार्थ लंबित थे। मंत्री बनने के बाद नवप्रभात ने बडे पैमाने पर जमीनों की खरीद-फरोख्त की। मंत्री ने अपने खास लोगों की एक चौकडी की आड में अपने साम्राज्य विस्तार के इरादों को धरातल दिया था। चर्चा थी कि नवप्रभात की अन्य कई स्थानों पर भी करोडों की संपत्ति है। लेकिन आयकर के अधिकारियों से यह हमेशा महफूज रहे। भगवानपुर रूडकी में नवप्रभात की कई सौ बीधा जमीन जोडी गयी।
मंत्री के रुप में नव प्रभात के काले कारनामे
जेट्रोफा घोटाला
जैट्रोफा एक झाडी है, जो रूखी भूमि पर पर भी आसानी से ग्रोथ कर जाता है। एक ओर जैट्रोफा बोर्ड के अधिकारी कहते हैं कि जैट्रोफा को केवल बंजर जमीन पर ही उगाया जाना चाहिए। इसे सिंचाई की भी आवश्यकता नही होती।फिर इसके लिए अलग से लाख दो लाख नही करोडों रूपए की खाद खरीदी गयी। गौरतलब तथ्य यह है कि वन विभाग की तमाम नर्सरियों में जहां साधारण खाद डाली जाती है। वही जैट्रोफा के लिए बाहरी प्रदेशों से माइकोराजा, बायोमैन्यूर व तमाम कीटनाशक खरीदे गये। बोर्ड ने बताया कि इन दो वर्षों में एक करोड ६०लाख १३हजार रूपए की खाद खरीदी जा चुकी है। बोर्ड के सचिव ने कहा कि उन्नत बीजों की पैदावार के लिए यह जरूरी था। बाहरी प्रदेशों से खाद खरीदने के पीछे वह कहते हैं कि इन सबका टेण्डर डाला गया था। टडर इन्ही संस्थाओं के नाम खुला होगा। बहुचर्चित बायोफ्यूल बोर्ड भी इनमें से एक है। बायोफ्यूल के उत्तराखण्ड के सकल घरेलू उत्पाद में करीब दो सौ करोड रूपए की बढोतरी का सपना सजोने वाले वन विभाग के सपने वर्ष २००४ में बोर्ड की स्थापना के बाद कितने धराशायी हुए यह साफ देखा जा सकता था। विधानसभा सत्र की कार्रवाई के दौरान बायोफ्यूल बोर्ड को लेकर उठे सवालों का स्पष्ट जवाब वनमंत्री नवप्रभात के पास नही था। सदन में भाजपा के तत्कालीन सदस्य अजय भट्ट के एक अल्पसूचित प्रश्न के जवाब में तत्कालीन वनंत्री नवप्रभात ने अवगत कराया था कि राज्य में अब तक १००१६.२३४ हैक्टेयर क्षेत्रफल में एक करोड ८८ लाख १९हजार ९८३ जैट्रोफा पौंधों का रोपण किया जा चुका है।इसके एक दिन पहले भाजपा विधायक विजय बडथ्वाल के एक प्रश्न के जवाब में वनमंत्री ने सदन को बताया था कि प्रदेश में अभी तक ८५५४ हेक्टेयर क्षेत्रफल में ही जेट्रोेफा रोपण किया गया है। वनमंत्री नवप्रीाात द्वारा जैट्रोफा रोपण को लेकर सदन को जो गुमराह किया गया, उससे स्पष्ट होता है कि करीब १४६२ हैक्टेयर भूमि पर जैट्रोफा रोपण नही किया गया। इससे लाखों रूपए की गोलमाल की बात की भी पुष्टि होती है।
बायोफ्यूल बोर्ड के तत्कालीन सचिव एके लोहिया ने बताया था कि एक करोड ८८लाख १९हजार जैट्रोफा पौंध करीब १०हजार हैक्टेयर भूमि पर रोपित की जा चुकी है और दो लाख हैक्टेयर भूमि पर जैट्रोफा रोपण का लक्ष्य है। पिछले दो सालों में जब मात्र १० हजार हैकटेयर भूमि पर जैट्रोफा रोपित किया गया। तो दो लाख हैक्टेयर भूमि पर कितने सालों बाद हो पाएगा, अंदाजा लगाया जा सकता है।खाद खरीदने सहित बोर्ड अभी तक ६करोड रूपए खर्च कर चुका है। ऐसे ही कई अन्य हैरतअंगेज तथ्य थे। बोर्ड ने दावा किया था कि प्रदेश करीब सवा चार सौ गांवों में इस समय जैट्रोफा का कार्य चल रहा है।
मीडिया ने जैट्रोफा पर काम कर रहे इन गांवों का दौरा करने पर पाया कि मात्र जैट्रोफा की सूखी डंठलें खडी हैं। शुरूआती दौर में बोर्ड ने संबंधित गांवों का सर्वे तक नही किया। नतीजन ग्रामीणों ने सैकडों हैक्टेयर भूमि पर जैट्रोफा रोपण दिखाकर पैसे झटक लिए तो कही पौंध की पौंध नदी में बहा दी गई। विभाग ने अब दर्जनभर सर्वेयर रखे हैं। इनका विभिन्न गावों का रोज का टीए, डीए ही हजारों में बैठ जाता है। सालों बाद जब बायोफ्यूल बनकर तैयार होगा तो अनुमान लगाया जा सकता है कि इसकी वास्तविक कीमत आज के पैट्रोल की कीमत को भी मात दे रही होगी।
अब पर्यावरण प्रदूषण बोर्ड में नव प्रभात के काले कारनामे देखिये। पर्यावरण प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड में अपने चहेतों की नियुक्ति को लेकर उठे सवाल ने भी नवप्रभात की छवि को धूमिल किया। प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के सचिव की नियुक्ति की अध्यक्षता में कमेटी गठित की गई। कमेटी ने इस पद के लिए नौ लोगों का साक्षात्कार लिया और योग्यता के आधार पर तीन लोगों का चयन किया गया। वन मंत्री योग्यता क्रम में तीसरे स्थान पर रहे, संजय भूटानी को सदस्य सचिव की कुर्सी पर बैठाना चाहते थे। मंत्री नवप्रभात की सिफारिश पर इस व्यक्ति की फाइल जब ग्राम्य विकास आयुक्त ;वनद्धके पास पहुची तो उन्होंने इस फाइल पर साइन करने से मना कर दिया। नवप्रभात के मनमानी पर उतर जाने पर ग्राम्य विकास आयुक्त (वन) इस मामले को लेकर खुद ही मुख्यमंत्री के दरबार में चली गई, तो मुख्यमंत्री को मजबूरन नवप्रभात को झिडकी लगानी पडी। अनंतः चयन कमेटी द्वारा चयनित सचिव ओएनजीसी से प्रतिनियुक्ति पर आए सीबीएस नेगी ने दो अप्रेल २००३ को बोर्ड में कार्यभार ग्रहण कर लिया। इससे नाखुश नवप्रभात ने अब चुन-चुनकर बदला लेना शुरू कर दिया। इसकी पहली गाज ग्राम्य विकास आयुक्त पर पडी और उन्हें इस महत्वपूर्ण पद से हाथ धोना पडा। प्रदेश के प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड में सचिव की कुर्सी पर अपने चहेतों को बैठाने के लिए नवप्रभात अदालती आदेश की अवमानना करने में भी नहीं हिचकिचाए। मलाईदार कहे जाने वाले इस बोर्ड में नवप्रभात की मंशा के अनुरूप और तय मानकों के विपरीत जब बोर्ड के सदस्य सचिव सीबीएस नेगी ने कार्य करने से मना कर दिया, तो नवप्रभात ने उन्हें बोर्ड से बाहर का रास्ता दिखाकर ही दम लिया। सीबीएस नेगी के नेतृत्व में बोर्ड ने काम करना शुरू कर दिया था। बोर्ड का विधिवत कामकाज शुरू करने के लिए करीब डेढ दर्जन कर्मचारियों को एक वर्ष की संविदा पर रखा गया। नेगी की कुशल कार्यशैली का ही नतीजा था कि ३७ लाख की आर्थिक स्थिति से शुरू हुआ बोर्ड अपनी वित्त क्षमता को बढाकर दो-ढाई वर्ष में पांच करोड तक ले गया। सूत्र बताते हैं कि इस इस बीच नवप्रभात ने अपने चहेते लोगों के उद्योगों को अनापत्ति प्रमाण-पत्र दने के साथ ही उन्हें प्रत्येक महीने कमीशन देने के लिए बोर्ड पर दबाव डाला। सचिव नेगी ने तय मानकों के विपरीत कार्य करने से साफ इनकार कर दिया। यहीं नहीं सोमानी फोम्स जैसी अन्य राज्यों में ब्लैक लिस्टेड कई कंपनियों को नेगी ने उत्तरांचल में उद्योग स्थापित करने के लिए अनापत्ति प्रमाण-पत्र देने से मना कर दिया। इस बीच एक वर्ष पूरा होने के बाद संविदाकर्मियों का कार्यकाल उपलब्धियों के साथ एक वर्ष के लिए बढा दिया गया।
वर्ष २००५ में संविदाकर्मियों का कार्यकाल समाप्त हुआ तो संविदाकर्मियों ने इसे बढाने की मांग उठाई, लेकिन इसे ठुकरा दिया गया। जबकि बोर्ड को इन संविदाकर्मियों की सख्त जरूरत थी। लेकिन नवप्रभात को इन संविदाकर्मियों से चिढ थी।क्योंकि ये सभी पूर्व सचिव सीवीएस नेगी के कार्यकाल में नियुक्त किए गए थे। संविदाकर्मी न्यायालय की शरण में गए तो न्यायालय से १सितंबर २००५ को संविदाकर्मियों को अंतरिम राहत दते हुए बोर्ड द्वारा पूर्व में २६.१०.२००४ को विज्ञप्ति विज्ञापन के क्रम में पदों पर स्थाई नियुक्ति होने तक संविदाकर्मियों को अपने पदों पर यथास्थिति बनाए रखने का निर्णय दिया। इसके बाद भी बोर्ड का रवैया नही बदला। नतीजतन संविदाकर्मियों को आंदोलन का रास्ता अपवनाना पडा। मुख्यमंत्री की शरण में गए तो मुख्यमंत्री ने न्यायालय के आदेश के क्रम में वन एवं पर्यावरण मंत्री की यथोचित कार्रवाई करने को कहा। लेकिन वनमंत्री नहीं माने। नवप्रभात ने कांग्रेस संगठन के पदाधिकारियों की बात भी नहीं मानी।
अपनी एक न चलती देख भला नवप्रभात चुप कैसे बेठते। उन्होंने तमाम तिकडमें भिडाते हुए सचिव नेगी को उनके कार्यकाल की अवधि से पूर्व ही बोर्ड से बाहर का रास्ता दिखा दिया। इसके बाद मंत्री ने बोर्ड का जमकर दोहन किया। ऐसे तमाम उद्योगों को भारी कमीशन देकर अनापत्ति प्रमाण-पत्र दे दिए गए जो कि नेगी के कार्यकाल में अयोग्य ठहरा दिए गए थे। तब चाहे वह काशीपुर की श्याम पेपर मिल हो या फिर सोमानी फोम्स फोम्स कंपनी।
अन्य राज्यों से बाहर कर दिए गए पर्यावरण के लिए खतरनाक कई उद्योगों ने नवप्रभात की मेहरबानी से उत्तराखण्ड में अपनी जडे जमा ली। कमीशन की मोटी रकम पर स्थापित इन उद्योगों का नतीजा था श्याम पेपर मिल और सिडकुल हरिद्वार में स्थापित उद्योंगों में दुर्घटनाएं। जिनमें आग लगने व अन्य कारणों से दो दर्जन कामगारों को अपनी जान से हाथ धोना पडा।
मंत्री बनने के बाद नवप्रभात ने अपने अधीनस्थ विभागों को निजी हित साधने के लिए रौंदना शुरू कर दिया। नवप्रभात की पहली व्यापक चर्चा २००३ के अक्टूबर माह म हुई यह ऐसा मामला था जिसने सबको चौंकाकर रख दिया। ..................................................................................................................... आरक्षित वन क्षत्र में ४५ बीघा जमीन में फार्म हाउसः-
राजधानी से करीब बीस किमी की दूरी पर सहसपुर विकासखंड के अंतर्गत किमाडी नामक स्थान पर आरक्षित वन क्षत्र में वन मंत्री नवप्रभात का ४५ बीघा जमीन में एक फार्म हाउस स्थित है। अपने निजी फार्म हाउस पर सरकारी पैसे से सडक बनवायी। ४५ बीघा जमीन की बाउंड्री बाल ही नहीं करायी गयी। हैरानी की बात यह रही कि वन महकमा जहां एक ओर आरक्षित वन क्षेत्रों को मानवरहित करने में जुटा हुआ है, वहीं उन महकमे का ही मुखिया और जन प्रतिनिधि आरक्षित वनक्षेत्र में खुल्लमखुल्ला अवैध निर्माण किये जाने की चर्चा रही। चारों ओर से घने वनों से घिरे इस फार्म हाउस तक पहुंचने के लिए तत्कालीन वन मंत्री ने वर्ष २००३ में तमाम नियम कानूनों को ठेंगा दिखाते हुए २० फुट चौडी व आधा किमी लंबी सडक बना डाली। रास्ते में आए दर्जनों हरे-भरे पेडों को कटावा दिया गया। देर-सबेर वहां विशाल फार्म हाउस बनाया जाएगा-यह तय है। वर्तमान में फार्म हाउस में किमाडी गांव के दो लोगों को बतौर चौकीदार नौकरी दी गई है। वनमंत्री ने कागजों में यह सडक वानिकी कार्यों के लिए दर्शाई है। वनमंत्री किस तरह से सरकारी खजाने को चूना लगा रहे हैं। इसका अंदाजा तो इसी बात से लगाया जा सकता है कि फार्म हाउस के लिए बनाई जा रही सडक वह खुद के पैसों से नहीं बल्कि अपनी विधायक निधि से बनाई। सडक के किनारे खडे दर्जनों सूखे पेड पहाडों को बेतरतीब ढंग से काटा गया। नवप्रभात ने विधानसभा में ७१वें विधायक के रूप में मनोनीत किए गए आरवी गार्डनर की विधायक निधि से भी फार्महाउस को जाने वाली इस सडक के निर्माण के लिए दो लाख रूपए दिए थे।इस पूरे प्रकरण के खुलासे के बाबजूद भी न तो वन विभाग ने कोई कर्रवाई की और न ही शासन ने। आम आदमी के आरक्षित वन क्षेत्र में घुसने पर भी एतराज करने वाले वन विभाग के तमाम आला अफसरान चुप्पी साधे बैठे रहे। निकटवर्ती गांव डेढ किमी दूर होने के बाबजूद ऊर्जा निगम द्वारा फार्म हाउस के पास ही जंगल में ट्रांसफार्मर स्थापित किया गया। ताकि मंत्री जी के फार्म हाउस में लो वोल्टेज की समस्या खडी न हो। ट्रांसफार्मर दूर होने के कारण पूरे किमाडी गांव में लो वोल्टेज की समस्या होने लगी। इसके अलावा फर्म हाउस के लिए बकायदा अलग से पाइप लाइन भी बिछाई गई।
खनन नीति में भ्रष्टाचार
नवप्रभात ने खनन नीति में भ्रष्टाचार को बढावा दिया। निगमों से खनन कार्य छीनने के लिए कोई खास बजह ढूंढ न पाने के कारण इसी नीति को यथावत रखा। हालाकि वनमंत्री ने अपने चहेतों और खनन माफिया को फायदा पहुंचाने को पूरी जोर आजमाइश की, पर विफल रहे। बात यहां तक पहुचा दी गई थी कि निगमों के साथ-साथ खनन कार्य को समितियों को भी सौंपा जाए।इस कार्य को अंजाम देने के लिए ११अक्टूबर २००२को निर्णय लिया गया परंन्तु लागू नही कर दिया गया। १५ अक्टूबर को वनमंत्री नवप्रभात ने खनन नीति के शासनादेश जारी न करने को कहा और १७ अक्टूबर को इसमें संसोधन करके खनन नीति को जारी किया गया। इस प्रकार इसमें कुछ मनमाफिक प्राविधान जैसे ’निगमों के साथ-साथ समितियों को भी कार्य सौंपा जाए‘ जोडे गए जिससे काफी बबाल मचा।
बैराज स्थित झील में भी जमकर भ्रष्टाचार किया
नवप्रभात वर्ष २००५में आसन बैराज स्थित झील में भी जमकर भ्रष्टाचार हुआ। चकराता वन प्रभाग की रीवर रेंज के अंर्तगत आसान बैराज में प्रतिवर्ष शीतकाल में हजारों विदेशी पक्षी आते है। १३ जनवरी २००५ को वन एवं पर्यावरण मंत्री नवप्रभात की अध्यक्षता में हुई वन विभाग,सिचाई विभाग व जल विद्युत निगम के अधिकारियों की बैठक में इस योजना का खाका तैयार किया गया था। निर्णय हुआ था कि आसन वैटलैंड संरक्षण आरक्ष योजना को मूर्त रूप देने के लिए सिचाई विभाग कार्यदाई संस्था व वन विभाग नोडल एजेंसी करेगी। इसके तहत बैराज के पास चकराता वन प्रभाग की रीवर रेंज के अंतगर्त ४४४.४० हैक्टेयर भूमि पर दो नई झीलें तैयार करने के लिए सिचाई विभाग ने एक निजी सर्वेयर की मदद से लगभग ३.१५करोड रूपए का प्रस्तावित बजट शासन को भेजा था। प्रस्ताव को स्वीकृति दते समय शासन ने प्रथम चरण में लगभग २करोड ३१लाख रूपए हस्तांतरित किए। लेकिन आश्चर्य की बात है कि प्रस्तावित बजट से लगभग ४८ फीसदी कम दरों एक करोड दस लाख रूपए में एक ठेकेदार यह कार्य करने क लिए तैयार हो गया। अनुबंध के तहत ठेकेदार को दो झीलों की खुदाई, कंपेशन व झील की तह पर चिकनी मिट्टी एक फुट मोटी परत डालने का कार्य करना था। इससे पहले कि ४८ फीसदी कम दामों पर कार्य किये जाने से वन विभाग की किरकिरी होती, वनमंत्री नवप्रभात ने झीलों के सौंदर्यीकरण पर शेष एक करोड रूपए का उपयोग करने की बात कहकर मामले को संभाल लिया।
सूत्र बताते हैं कि इतने बडे बजट को ठिकाने लगाने का खेल मिट्टी की खुदाई और ढुलान में किया गया। विभाग का आकलन था कि प्रत्येक झील से लगभग ४५हजार घनमीटर मिट्टी निकलेगी, लेकिन ठेकेदार ने दोनों झीलों सवा दो लाख घनमीटर मिट्टी निकालने का एस्टीमेट विभाग के सुपुर्द कर दिया। विभागीय अधिकारियों ने भी अपने ही आकलन को गलत ठहराते हुए ठेकेदार के ऐस्टीमेट को पास कर दिया।
मानकों की धज्जियां उडाने का यह सिलसिला शुरू हुआ तो फिर पूरे बजट को ठिकाने लगाने के बाद ही रूक पाया। ६०हजार रूपए प्रति घनमीटर की निर्धारित दर के मुकाबले ९०हजार रूपए प्रतिघनमीटर की दर से ठेकेदार को भुगतान किया गया। सबसे अहम बात यह रही कि झील के कंपेक्शन व सतह पर चिकनी मिट्टी की एक फुट मोटी परत को बिछाने के अनुबंध को विभागीय घोषित कर दिया गया। इन दोनों कार्यों के लिए निर्धारित ४०लाख रूपया सीधे-सीधे गोलमाल कर दिया गया। ठेकेदार को निर्धारित राशि से कही अधिक भुगतान ;१करोड ९७लाख ४६हजारद्ध होना दिखा दिया गया। यह भुगतान भी अनुबंधित कार्य पूरा होने से पहले ही वन विभाग की सहमति पर संबंधित ठेकेदार को कर दिया गया। इससे स्पष्ट होता है कि आसन वैटलेंड आरक्ष योजना में करोडों रूपए के वारे-न्यारे किए गए। हकीकत में झीलों के नाम पर कुछ काम तो हुआ नहीं, घोटाला करोडों का कर दिया गया।
विकास नगर में झीलों के सौन्दर्यीकरण के नाम पर करोडों डकारे
विकास नगर की जनता को याद रखना चाहिए कि नवप्रभात ने विकास के नाम पर जमकर करोडों का घोटाला किया। विकासनगर पौंटासाहिब मोटरमार्ग पर आसन बैराज के किनारे जहां पहले ही प्राकृतिक रूप से झीलें बनी हुई थी। कथित रूप से यह दोनों झीलें बनाई गई।झील बनाने के नाम पर इन दोनों स्थानों पर कुछ दिन जेसीबी लगाई गई और मलबा निकालकर अन्यत्र फैकने के बजाय झील के किनारे लगा दिया गया। नाममात्र की यह झीलें इस तरह बनाई गयी जैसे जैसे गड्ढे खोदकर किनारे लगा दिया जाता है। झीलों में पानी के नाम पर गाद और गंदगी भरी हुई है। पक्षी तो शायद ही देखने को मिलें। सौंदर्यीकरण के नाम पर कुछ नहीं हुआ, हॉ, इन सबके नाम पर एक करोड रूपया खर्चा दिखा दिया गया।
इस तरह कुल मिलाकर नवप्रभात पांच साल कैबिनेट मंत्री रहे, विकास नगर विकास की किरण को छू तक नहीं पाया। वन पांच सालों में चाहे वह शहरी विकास हो, वन विभाग हो कोई खास उपलब्धि प्रदेश हासिल नही कर पाया। परन्तु नवप्रभात अकूत धन दौलत के मालिक जरुर बन गये।
एक का दस करने में माहिर हैं
नवप्रभात ने एक खास जमीन को टिहरी बांध विस्थापितों के लिए चयनित किए जाने का भरसक प्रयास किया। लेकिन टिहरी विस्थापित वहंा जाने के लिए तैयार नही हुए और नवप्रभात के मंसूबे धरे के धरे रह गए।इस पर नवप्रभात इस पूरी जमीन को औद्यौगिक क्षेत्र घोषित करा दिया। इस तरह कौडयों के भाव खरीदी इस जमीन से नवप्रभात करोडों रूपए बनाने में सफल रहे।
नवप्रभात के बारे में चर्चा थी कि वह हर जगह जनता के विपरीत खडे हो अपनी मनमानी करते रहे। गढवाल व कुमाऊं मंडल को जोडने वाला रामनगर-कालागढ-कोटद्वार राजमार्ग का रुट बदलकर इसे उत्तरप्रदेश से होकर बनाने के प्रस्ताव में भी वनमंत्री की महत्वपूर्ण भूमिका मानी जाती है। रामनगर-कालागढ-कोटद्वार मोटरमार्ग संघर्ष समिति का कहना था कि नवप्रभात पूंजीपतियों व भू-माफियाओं से मिले हुए है। आरोप था कि नवप्रभात के उद्योगपतियों से भी संबंध है। यूपी से होकर प्रस्तावित इस राज्य राजमार्ग पर थापर सहित कई बडे बिल्डरों व उद्योगपतियों के रिसोर्ट, फार्म हाऊस व जमीन है। इस मार्ग के उत्तर-प्रदेश से होकर बनाने में सबसे ज्यादा फायदा इस मार्ग के आसपास पड रहे रिसोर्ट के मालिकों को होता। समिति का कहना था कि यही एकमात्र मार्ग था जो सीधे गाढवाल व कुमाऊं मंडल को आपस में जोडता है। अभी तक गढवाल व कुमाऊ मंडल जाने के लिए लोगों को लंबी दूरी तय कर उप्र से होकर जाना पडता है।
इससे सबसे ज्यादा नुकसान व्यापारी को उठाना पडता ह। क्योंकि उन्हें दोहरे कर की मार झेलनी पडती है। रामनगर-कालागढ-कोटद्वार राजमार्ग बनने से दोनों मंडलों के बीच दूरी तो घटती ही उत्तर प्रदेश से हांकर जाने में दिए जाने वाले कर आदि समसयाओं से भी छुटकारा मिलता। लेकिन नवप्रभात को राज्यहितों से कोई सरोकार नही है और उन्होंने इसे चुपचाप उप्र से स्वीकृत होने दिया।
कांग्रेस के ही मंत्री से भिडेः-
कांग्रेस के तत्कालीन पर्यटन मंत्री से भिडने में भी उन्होंने गुरेज नही किया। वनमंत्री शिवपुरी आदि स्थानों में रीवर राफ्टिंग वाले क्षेत्रों को इको टूरिज्म के अंतगर्त लाना चाहते थे।जबकि यह क्षेत्र पहले से ही पर्यटन मंत्रालय के अधीन है। रीवर राफ्टिंग के लिए कई मोटरवोट कंपनियां आवेदन करती हैं। बताते हैं कि वनमंत्री अपने एक खास आदमी को इसका ठेका दिलाना चाहते थे। उस पर पर्यटन मंत्री को बाकायदा मुख्यमंखी को पत्र लिखना पडा। पत्र में उन्होंनें नवप्रभात के हस्तक्षेप पर कडा ऐतराज जाहिर किया था। वनमंत्री ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर न सिफ्र नीति -निर्णय बदल डाले, बल्कि तमाम नियम-कानूनों को भी ठेंगा दिखाने से हिचकिचाए नहीं।
इस तरह उनके इस कारनामों को तत्कालीन मीडिया में खूब सुर्खियां मिली थी। जिस पर विकास नगर की जनता ने उन्हें कसूरवार मानकर विधानसभा में नहीं भेजा। अब राजनीतिक हालात का लाभ उठाकर वह विधान सभा में फिर पहुंचना चाहते हैं। अगर वह विधानसभा में पहुंचे तो यह माना जाएगा कि जनता की याददाश्त बडी हल्की होती हैं। यह विस्तृत रिपोर्ट तत्कालीन मंत्री पद पर रहते हुए प्रकाशित हुई थी, जनता की अदालत में हमने इसे फिर से पेश किया ताकि ………………सनद रहे
पतंजलि योगपीठ से समन्वय कर प्रदेश सरकार इस दिशा में कार्य करेगी और उत्तराखण्ड के गांवों को आयुष ग्राम बनाएगी।
मुख्यमंत्री डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक ने कहा है कि वर्ष २०२० तक उत्तराखण्ड को आयुर्वेद एवं योग का विश्व प्रसिद्ध ''हब'' बना दिया जायेगा। उन्होंने कहा कि आने वाले समय में आयुर्वेद की बढ़ती लोकप्रियता को देखते हुए जड़ी-बूटियों की आपूर्ति मांग से कम हो जायेगी। इसे ध्यान में रखते हुए उत्तराखण्ड में जड़ी-बूटियों के संरक्षण के साथ ही इनके वृहद उत्पादन के लिए एक बड़ी कार्ययोजना तैयार की जानी चाहिए। मुख्यमंत्री ने यह बात अपने आवास पर उनसे मिलने आये योग गुरू स्वामी रामदेव तथा परमार्थ निकेतन के परमाध्यक्ष चिदानन्द मुनि जी महाराज से भेंट के अवसर पर कही। योग गुरू रामदेव द्वारा योग और आयुर्वेद के क्षेत्र में किए जा रहे कार्यों की सराहना करते हुए मुख्यमंत्री ने कहा कि पतंजलि योगपीठ से समन्वय कर प्रदेश सरकार इस दिशा में कार्य करेगी और उत्तराखण्ड के गांवों को आयुष ग्राम बनाएगी। मुख्यमंत्री ने कहा कि पतंजलि योगपीठ की भांति ही आयुर्वेद एवं योग के केन्द्र गढ़वाल और कुमांऊ के सुदूर पर्वतीय स्थानों पर भी खोले जाने चाहिए। उन्होंने कहा कि इस दिशा में राज्य सरकार भी हर सम्भव सहयोग देगी। आयुर्वेद विश्वविद्यालय को जड़ी-बूटी के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण कदम बताते हुए मुख्यमंत्री ने कहा कि इस की स्थापना से उत्तराखण्ड की पहचान देश और विदेश में बनेगी। उन्होंने कहा कि योग गुरू द्वारा अपने कर्मस्थली देवभूमि उत्तराखण्ड को बनाया गया है जिसका लाभ प्रदेश को योग और आयुर्वेद के क्षे+त्र में भी मिलेगा। मुख्यमंत्री ने कहा कि चार धाम यात्रा को और अधिक व्यवस्थित रूप से आयोजित करने तथा गंगा की पवित्रता को बनाए रखने में सरकार संतजनों का भी पूरा सहयोग लेगी। इस अवसर पर योग गुरू स्वामी रामदेव ने कहा कि उत्तराखण्ड अनादिकाल से अध्यात्म का सर्वोश केन्द्र है, यहां प्रचुर मात्रा में दुर्लभ जड़ी-बूटियां हैं जो मानव के लिए जीवन दायिनी हैं। योग गुरू ने कहा कि सम्पूर्ण आयुर्वेद की परम्पराओं को लेकर एक आंदोलन चलाने की आवश्यकता है, जिसका नेतृत्व निसन्देह उत्तराखण्ड द्वारा किया जायेगा। उन्होंने कहा कि योग और आयुर्वेद के क्षेत्र में पतंजलि पीठ राज्य सरकार के साथ परस्पर सहयोग से कार्य करेगी और उत्तराखण्ड को आयुर्वेद के क्षेत्र में विश्वस्तर पर स्थापित करेगी। उन्होंने कहा कि स्कूलों में योग शिक्षा के लिए भी राज्य सरकार को प्रभावी पहल करनी होगी। परमार्थ निकेतन के परमाध्यक्ष चिदानन्द मुनि महाराज ने कहा कि उत्तराखण्ड में अध्यात्म पर्यटन योगध्यान पर्यटन, चिकित्सा पर्यटन की प्रचुर सम्भावना है। इन क्षेत्रों को बढ़ावा देकर राज्य के आर्थिक संसाधनों को मजबूत किया जा सकता है। उन्होंने कहा कि देश विदेश आने वाले पर्यटकों एवं श्रद्धालुओं को उत्तराखण्ड में और अधिक सुविधाएं देने के लिए भी कार्य किया जाना चाहिए।
मैदानी जिलों में 532 शिक्षकों की कमी है।
सूबे के नौ पर्वतीय जिलों में छात्र संख्या के मानक के मुताबिक तकरीबन तीन हजार प्राइमरी शिक्षक सरप्लस हैं। वहीं, चार मैदानी जिलों में 532 शिक्षकों की कमी है। सरकार को भर्ती की सूरत नजर नहीं आ रही है। इससे प्राइमरी शिक्षक बनने की चाह रखने वाले युवाओं को करारा झटका लग सकता है। प्राइमरी स्कूलों में अध्यापकों की भर्ती का इंतजार कर रहे प्रशिक्षित बेरोजगारों को जोर का झटका धीरे से लग सकता है। महकमे के आंकड़े साबित कर रहे हैं कि स्कूलों में जरूरत से काफी ज्यादा शिक्षक कार्यरत हैं। नौ पर्वतीय जिलों में लगातार छात्रसंख्या गिरने से शिक्षकों के स्वीकृत पद भी ज्यादा हो गए हैं। बच्चों का जमावड़ा मैदानी जिलों में बढ़ रहा है। इस वजह से इन जिलों में गुरुजनों के स्वीकृत पद भी कम पड़ गए हैं। इन अजीबोगरीब हालात का असर प्राइमरी शिक्षकों की भर्ती पर पडऩे का अनुमान है। शिक्षा महकमा अब सिर्फ सिर्फ स्वीकृत पदों के ब्योरे के आड़ लेकर शिक्षकों की कमी का रोना नहीं रो सकता। तीन हजार से ज्यादा पद अतिरिक्त होने से भर्ती प्रक्रिया शुरू होना तो दूर सरप्लस शिक्षकों को अन्य जिलों में समायोजित करने की समस्या पेश आ सकती है। मौजूदा छात्रसंख्या के आधार पर शिक्षकों की जरूरत सिर्फ देहरादून, हरिद्वार, नैनीताल व ऊधमसिंहनगर जिलों में ही है। दून में स्वीकृत 2321 कुल पदों के अतिरिक्त 25 शिक्षक और चाहिए। हरिद्वार, नैनीताल व ऊधमसिंहनगर में स्वीकृत पदों की संख्या क्रमश: 2627, 1962 व 2528 है। इन जिलों में छात्रसंख्या के मुताबिक क्रमश 25, 240, 92 व 175 शिक्षकों की जरूरत है। चारों जिलों में और 532 शिक्षकों की दरकार है। वहीं, नौ पर्वतीय जिलों रुद्रप्रयाग, चमोली, उत्तरकाशी, टिहरी, पौड़ी, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, चंपावत व बागेश्वर में शिक्षकों के कुल स्वीकृत पद क्रमश: 1295, 2432, 1894, 3301, 4202, 3556, 2640, 1028 व 1069 हैं। महकमे के आंकड़ों के मुताबिक अब छात्रसंख्या गिरने से उक्त जिलों में शिक्षकों के क्रमश 150, 376, 344, 472, 756, 621, 270, 102 व 573 पद सरप्लस हो गए हैं। साढ़े तीन हजार से ज्यादा पद अतिरिक्त होने से महकमे की चिंता बढ गई है। इस बाबत मंत्रालय के सामने भी स्थिति साफ कर दी गई है। नौ जिलों में सरप्लस 3667 पदों के सापेक्ष चार जिलों में 532 पदों की दरकार है। फिलवक्त प्रदेश में 2400 पदों पर विशिष्ट बीटीसी को प्रशिक्षण देकर भर्ती की प्रक्रिया चल रही है। बीटीसी के 1300 पदों के लिए प्रवेश परीक्षा आयोजित की जा चुकी है। शिक्षा सचिव डा. राकेश कुमार ने स्वीकार किया कि प्राइमरी शिक्षकों के सरप्लस पदों को अन्य जिलों में समायोजित करने पर विचार किया जाएगा। शिक्षकों की नियुक्ति संबंधी नीति पर हर तीन साल में पुनर्विचार करने की जरूरत है।
खनन पर लगी रोक का फायदा खनन माफिया जमकर उठा रहे हैं।
दून वैली में खनन पर लगी रोक का फायदा खनन माफिया जमकर उठा रहे हैं। कई जगहों पर धड़ल्ले से अवैध खनन हो रहा है जबकि खनिज विभाग के अधिकारी भी लाचारी दिखा रहे हैं। जब तक खनन विभाग के पास सूचनाएं पहुंचती है, खनन माफिया माल लादकर फरार हो चुके होते हैं। इस संबंध में कार्रवाई के लिए विभागीय अधिकारियों ने पुलिस को भी पत्र लिखा है। दून वैली में खनन कब शुरू होगा, इस संबंध में कुछ नहीं कहा जा सकता है। मानसूनी सीजन के चलते लगाई रोक तो अक्टूबर में समान्त हो जाएगी, जबकि हाईकोर्ट के आदेश के चलते लगी रोक के बारे अभी कोई स्थिति स्पष्ट नहीं है। डीएम की ओर से इस संबंध में शासन से दिशा-निर्देश मांगे गए हैं। दूसरी ओर, जिले के कई खनन क्षेत्रों में धड़ल्ले से अवैध खनन किया जा रहा है। खनिज विभाग के अधिकारी भी दबी जबान से दून में हो रहे अवैध खनन की बात स्वीकार करते हैं। सूत्रों का कहना है कि दून वैली की नदियों में हो रहे खनन के बारे में आए दिन ही अधिकारियों के पास फोन भी आते हैं, लेकिन आमतौर पर खनन की साइट्स शहर से काफी दूर हैं। ऐसे में जब तक अधिकारी अपनी टीम के साथ वहां पहुंचते हैं, खनन माफिया माल ट्रैक्टर या ट्रक पर लदवाकर फरार हो जाते हैं। खासतौर पर साहबनगर, विकासनगर, सुद्घोवाला, मालदेवता आदि से अवैध खनन की ज्यादा शिकायतें आ रही हैं। प्रशासन अपनी तरफ से अभियान चलाकर कार्रवाई भी कर रहा है। वहीं, इस संबंध में पुलिस को भी संपर्क किए जाने की बात कही जा रही है। एडीएम वित्त एवं राजस्व सुशील कुमार शर्मा भी पुलिस व वन विभाग को इस संबंध में पत्र लिखे जाने की पुष्टि करते हैं। उनके मुताबिक सभी विभागों से तालमेल बनाकर खनन पर रोक लगाने का प्रयास किया जा रहा है।
किस उद्देश्य से पहुंचाया जा रहा विस्फोटक नेपाल
एक ओर पड़ोसी देश चीन भारत के सीमाओं पर बार-बार छिछोरापन कर रहा है, वहीं दूसरी ओर उत्तराखंड के सीमांत जनपदों से लगातार विस्फोटक पदार्थ नेपाल पहुंचाया जा रहा है। इसके बावजूद यहां की सुरक्षा एजेंसियों को हवा तक नहीं लग पा रही है। अब तक नेपाली मूल के कई लोग भारत नेपाल सीमा पर विस्फोटक पदार्थो के साथ पकड़े गए हैं। इनमें कई नेपालियों को पुलिस ने स्थानीय लोगों की सूचना पर गिरफ्तार किया। भारत से नेपाल किस प्रकार और क्यों यह सामग्री सप्लाई हो रही है। फिलहाल इसका जवाब किसी के पास नहीं है। यही नहीं नेपाली मूल के लोग यह विस्फोटक सामग्री यहां से कैसे प्रान्त कर रहे हैं? इसका भी किसी के पास कोई ठोस जवाब नहीं है। उल्लेखनीय है कि पिछले कुछ समय से भारत नेपाल सीमा पर में बहराइच, बनबसा समेत कई स्थानों पर विस्फोटक सामग्री पकड़े जाने के मामले लगातार प्रकाश में आ रहे हैं। पिछले कुछ समय में विस्फोटक सामग्री के मामलों पर नजर डालें तो सीमांत जनपद चमोली में गत 4 नवंबर 2008 को सिमली से पुलिस ने एक नेपाली मूल के व्यक्ति से एक देशी तमंचा, 8 जिंदा कारतूस व एक हैंडग्रिनेड समेत गिरफ्तार किया था। इसके बाद भारत नेपाल सीमा पर बीती सात मई को बहराइच में पुलिस ने एक माओवादी मान बहादुर को पकड़ा। इससे पुलिस ने भारी मात्रा में विस्फोटक सामग्री बरामद की गई थी। जब पुलिस ने उससे पूछताछ की तो उसने बताया कि बीपुरम में सडक़ निर्माण कार्य चल रहा है, वह वहीं से विस्फोटक लेकर नेपाल जा रहा था। पुलिस ने लोनिवि टिहरी से जब उक्त निर्माण के बारे में पूछा तो बताया गया था कि उक्त स्थान पर ऐसा किसी भी प्रकार का कोई निर्माण कार्य नहीं किया जा रहा है। इससे पहले टिहरी में बांध क्षेत्र से भी एक माओवादी को विस्फोटक सामग्री के साथ गिरफ्तार किया गया था। यही नहीं अभी करीब डेढ़ माह पूर्व 6 अगस्त को टिहरी जिले के घनसाली से एक नेपाली मूल के व्यक्ति से पांच डेटोनेटर, 150 जिलेटिन की छड़ें व अन्य विस्फोटक सामग्री बरामद की गई थी। इस बीच बीती शुक्रवार को बनबसा में शारदा बैराज चौकी पुलिस ने सीमा पर नेपाली नागरिक को जिलेटिन की आठ छड़े, नान इलेक्ट्रिकल डेटोनेटर, कोडेक्स विस्फोटक सामग्री समेत गिरफ्तार किया। इससे पूर्व भी ऐसे मामले कई प्रकाश में आ चुके हैं। आशंका जताई जा रही है कि पिछले कुछ समय से पहाड़ में बन रही ताबड़तोड़ जल विद्युत परियोजनाओं के निर्माण में विस्फोटक सामग्री का अंधाधुंध प्रयोग किया जा रहा है। पिछले दिनों बनबसा में पकड़े गए नेपाली मूल के नागरिक ने विस्फोटक सामग्री जिले के जोशीमठ क्षेत्र से लाए जाने के मामले में जांच एसएचओ कर्णप्रयाग को सौंपी गई है। यहां पर कंपनियों में काम कर रहे ठेकेदार विस्फोट के लिए जो सामग्री नेपाली नागरिकों को देते हैं उसमें से वह कुछ को बचाकर नेपाल पहुंचा रहे हैं। यह पहला मामला नहीं है जब यहां से विस्फोटक सामग्री सीमा पर पकड़ी गई है। देहरादून के कालसी थाना क्षेत्र$ में तो पूरी जीप ही विस्फोटक से भरी हुयी बरामद हुयी थी। इस तरह से राज्य में लगातार विस्फोटक सामग्री का आवागमन हो रहा है और पुलिस व खुफिया एजेंसियां चुप बैठी हैं।
बूढ़े घोड़ों पर दाँव खेलने में जुटे निशंक
क्या निशंक को जोशीले घोड़ो की तलाश है ?......
उतराखण्ड सरकार में मुख्यमंत्री डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक को देश की कमान सम्भाले तीन माह हो गए हैं। जिन बूढ़े घोड़ों पर पूर्व मुख्यमंत्री खंडूरी ने सवारी की व अपना कार्यकाल पूरा भी नहीं कर पाए। अब उन्हीं घोड़ों की सवारी "निशंक'' कर रहे हैं। हालांकि निशंक की टीम में कई नई चेहरों को जगह मिली है। लेकिन खंडूरी के विश्वास पात्रों को आज भी निशंक की टीम में अहम जिम्मेदारियां मिली हैं। क्या इन विश्वास पात्रों के जरिए निशंक मजबूती से आगे बढ़ पाएंगे ? क्या खंडूरी के विश्वास पात्र निशंक के भरोसेमंद साबित होंगे ? राजनीतिक विश्लेषकों का मत है कि ऐसे माहौल में जब पूर्व मुख्यमंत्री खंडूरी अब निशंक के बढ़ते कद और सफलता को पचा नहीं पा रहे हैं। दीगर है कि खंडूरी के शासनकाल में प्रमुख सचिव मुख्यमंत्री का दायित्व सुभाष कुमार के पास था वहीं अब प्रमुख सचिव के पद पर शत्रुघ्न सिंह की ताजपोशी भी अभी कुछ ही दिन पूर्व हुई है। जबकि आई आर एस सेवा के एक अन्य अधिकारी जेपी ममगाई, अपर सचिव अजय प्रद्योत, विशेष कार्याधिकारी के रूप में कार्य करने वालों में दीपक डिमरी आदि थे। इनमें से सभी अधिकारियों को निशंक ने भी अपनी टीम में शामिल किया है। प्रशासनिक अधिकारी शत्रुघ्न सिंह की प्रोन्नति के बाद से ही अधिकारियों में वर्चस्व की लड़ाई छिड़ गयी है यही कारण है कि अब इनमें ही संघर्ष शुरू हो चला है। इस संघर्ष का यह परिणाम है कि जिस दिन से शत्रुघ्न सिंह की प्रोन्नति सचिव पद से प्रमुख सचिव पद पर हुई है उसी के बाद से प्रमुख सचिव मुख्यमंत्री सुभाष कुमार पहले १५ दिन की छुटटी चले गये और अब पता चलता है कि उन्होंने अपनी छुटिटयां बढ़ा दी है। वहीं सूत्रों ने बताया है कि सचिव से प्रमुख सचिव बने शत्रुघ्न सिंह भी यहाँ अपनी दाल न गलती देख दिल्ली जाने का जुगाड़ बैठाने में लग गये हैं। वहीं जेपी ममगाई को मुख्यमंत्री ने कोई काम तो नहीं दिया है लेकिन बताया जाता है कि उन्हें पूर्व मुख्यमंत्री के खास होने के कारण ही उत्तराखण्ड में रोका गया है। जहां तक मुख्यकार्याधिकारी दीपक डिमरी का इनके साथ भी काम करने का कारण बताया जा रहा है कि वे आरएसएस काडर से सम्बद्ध हैं इसलिये उनको यहां रखा गया है लेकिन यदि जानकारों की मानी जाए तो पिछले ढाई साल से मुख्यमंत्रियों की सेवा कर अस्थायी तौर पर बीस हजार के वेतन पाने वाले डिमरी ने करोड़ों की सम्पति अर्जित कर दी है। जबकि पूर्व मुख्यमंत्रियों के साथ कार्य करने वाले अजय प्रद्योत काम के बोझ से इतने दब चुके हैं कि उन्हें किसी से भी बात करने की फर्सत तक नहीं। अब निशंक टीम में अजय प्रद्योत को अपवाद माना जाय तो शेष सभी अधिकारी वर्चस्व की लड़ाई तथा मोटी रकम कमाने में जुटे हैं।राजधानी में इन दिनों चर्चा आम है कि खण्डूरी की इसी टीम ने उन्हें अर्श से फर्श पर ला दिया। इन अधिकारियों के बुने मायाजाल में पूर्व मुख्यमंत्री इस कदर फंस गये थे कि उन्हें सत्ता से बेदखल होने का पता भी नहीं चल पाया। ऐसे में निशंक को इतिहास से सबक लेकर इन बूढ़े घोड़ों को सत्ता के रेस कोर्स से बाहर करने के बारे में सोचने की जरूरत है। बीते दो महीनों में निशंक ने अपने कार्यों से एक अलग छवि बनायी है ऐसे में उन्हें अपने ही जैसे ऊर्जावान अधिकारियों का उपयोग करना बेहतर होगा।
Sunday, September 20, 2009
डा0 निशंक हुए पहली अग्नि-परीक्षा में सफल
विकास नगर विधानसभा के प्रतिष्ठापूर्ण उपचुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने जीत दर्ज कर जहां कांग्रेस की इस परम्परागत सीट को अपनी झोली में डालने में कामयाबी हासिल कर ली, वहीं प्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ0 रमेश पोखरियाल निशंक ने अपनी पहली अग्नि परीक्षा में सफलता अर्जित कर अपने करिश्मे को बरकरार रखा। राजनीतिक विश्लेषक इस चुनाव परिणाम को सरकार के दो माह के काम-काज पर जनता के इनाम के रूप में देख रहे हैं।विकास नगर उपचुनाव परिणाम के बाद जहां कांग्रेसी शिविर में सन्नाटा पसर गया वहीं भाजपाई खेमे में जश्न का माहौल है। प्रदेश के मुख्यमंत्री डा0 रमेश पोखरियाल निशंक के राजनीतिक भविष्य को लेकर इस उपचुनाव को बेहद महत्वपूर्ण माना जा रहा था। इस चुनाव में प्रत्यक्षत: प्रदेश के मुख्यमंत्री डा0 रमेश पोखरियाल निशंक के साथ ही प्रदेश भाजपा की प्रतिष्ठा पूरी तरह दांव पर थी। हालांकि मतदाताओं के बीच कुलदीप कुमार परासर एक अनजान सा चेहरा था तथापि प्रदेश के करिश्माई मुख्यमंत्री डॉ0 रमेश पोखरियाल निशंक के ऊर्जावान नेतृत्व के बल पर कुलदीप कुमार जीत का सेहरा पहनने में कामयाब रहे। यह जीत सही मायनों में डॉ0 निशंक की है। जबकि डा0 निशंक जीत का श्रेय भाजपा कार्यकर्ताओं तथा विकासनगर की जनता को दे रहे हैं।जिस तरह प्रदेश के मुख्यमंत्री का पद संभालते ही डॉ0 निशंक एक के बाद एक उपलब्धियां अर्जित करते रहे उससे सहज ही यह अनुमान लगाया जा रहा था कि वह बड़ी से बड़ी चुनौतियों का सामना करने में सक्षम हैं। विकास नगर विधानसभा क्षेत्र से उपचुनाव में जीत दर्ज करना भाजपा की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है। ऐसे में जबकि यह सीट परम्परागत रूप से कांग्रेस की रही है। केवल २००७ के विधानसभा चुनावों में मुन्ना सिंह चैाहान जब भाजपा के टिकट से इस सीट से लड़े तो यह सीट भाजपा की हो गई। जबकि मुन्ना को टिकट मिलना भी एक एक्सीडेंट था क्योंकि भाजपा इन्ही कुलदीप कुमार को टिकट देना चाहती थी लेकिन तकनीकी कारणों से टिकट मुन्ना सिंह के नाम आ गया था। मुन्ना सिंह चौहान के भाजपा व विधानसभा की सदस्यता से त्यागपत्र देने के बाद यह सीट फिर खाली हो गई और अब इस सीट पर हुए उपचुनाव में भाजपा ने अपना परचम लहरा दिया।विकास नगर उपचुनाव में जहां तमाम विपक्षी पार्टियों ने भाजपा को हराने के लिए पूरी ताकत झोंक डाली भी वहीं डॉ0 निशंक ने अपनी राजनीतिक सूझ-बूझ व बुद्धि चातुर्य का परिचय देते हुए विरोधी दलों के मंसूबों पर पानी फेर दिया। यही नहीं भाजपा संगठन के अंतर्कलह व भीतरघात से पार पाने में भी डॉ0 निशंक सफल रहे , इतना ही नहीं भाजपा ने कांग्रेस के भीतरघात का भी पूरा फायदा इस चुनाव में लिया । पहली बार भारतीय जनता पार्टी एकजुट होकर डॉ0 निशंंक के नेतृत्व में विकासनगर उपचुनाव में खम ठोककर खड़ी रही ।पार्टी संगठन में इसी एकजुटता का परिणाम है कि विकास नगर विधानसभा सीट से लोकसभा चुनाव में १९ हजार वोटों से पीछे रहने वाली भारतीय जनता पार्टी ने न केवल इस विधानसभा उपचुनाव में १९ हजार वोटों की कमी को पाटा बल्कि ५९६ वोटों की बढ़त हासिल कर अभूतपूर्व विजय हासिल की।इस उपचुनाव के जरिये जनता ने डॉ0 निशंक को जीत का पहला तोहफा भेंट किया है। साथ ही इस अभूतपूर्व विजय ने डॉ0 निशंक को प्रदेश का सर्व स्वीकार्य नेता सबित कर दिया है। मुख्यमंत्री बनने के बाद डॉ0 निशंक के करिश्माई नेतृत्व में प्रदेश की जनता में जो आशा का संचार हुआ उस उत्साह व ऊर्जा का प्रतिफल इस प्रचण्ड जीत के रूप में सामने आया।दरअसल इस जीत के पीछे डॉ0 रमेश पोखरियाल निशंक के दो माह के कामकाज और उनके सादगीपूर्ण व्यवहार को भी मुख्य कारण माना जा रहा है। डॉ0 निशंक ने सूबे के निजाम का पद संभालते ही जिस तरह प्रदेश की बुनियादी सुविधाओं को २४ घंटे के अंदर पटरी पर लाने का काम किया, उससे आम जनमानस में इस सरकार के प्रति विश्वास बढ़ता गया। लोगों ने सरकार के कामकाज का निष्पक्षता से मूल्यांकन कर सरकार के पक्ष में स्पष्ट जनादेश दिया है। अब विधानसभा में भाजपा के कुल ३६ सदस्य हो जायेंगे।विकासगनर उप चुनाव में भाजपा प्रत्याशी कुलदीप कुमार की विजय को भाजपा के पूर्व राज्य सभा सांसद मनोहर कांत ध्यानी,पूर्व मुख्यमंत्री नित्यानन्द स्वामी,प्रदेश महामंत्री अजय भट्ट, तीरथ सिंह रावत, कृषि मंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत, पेयजल मंत्री प्रकाश पंत तथा पूर्व सह मीडिया प्रभारी अजेंद्र अजय ने सरकार के कामकाज पर जनता की मुहर बताया है। इनका कहना है कि विकासनगर चुनाव परिणामों ने साबित कर दिया है कि आम जनमानस में प्रदेश सरकार की रीतियों-नीतियों के प्रति विश्वास बढ़ा हैें। जनता ने प्रदेश सरकार के कामकाज का निष्पक्ष मूल्यांकन कर स्पष्ट जनादेश दिया और भाजपा सरकार की स्थिरता की खातिर अन्य किसी तथ्य को नकार दिया है। उन्होंने कहा कि इस प्रतिष्ठापूर्ण उप चुनाव में भाजपा की विजय एक बड़ी उपलब्धि है। इस विजय से पार्टी कार्यकत्र्ताओं में एक नये उत्साह का संचार हुआ है। उन्होंने कहा कि चुनाव के दौरान कांग्रेस समेत अन्य विपक्षी दलों ने चुनाव परिणामों को अपने पक्ष में करने के लिए कई हथकंडे अपनाये। मगर सब धरे के धरे रह गये और विपक्षियों को मुंह की खानी पड़ी।दरअसल विकास नगर उपचुनाव परिणाम डॉ0 रमेश पोखरियाल निशंक के दो माह के कार्यकाल पर जनता द्वारा दिए गए इनाम के रूप में देखा जा रहा है। इस परिणाम के बाद डॉ0 निशंक की आगे की राह पूरी तरह निष्कंटक हो गई। इस जीत से 'मिशन २०१२ फतहÓ का लक्ष्य भी आसान हो गया है। राजनैतिक गलियारों में चर्चा है कि अब निशंक खुलकर बैटिंग करेगे। ..narayan.pargain
Sunday, September 6, 2009
कोख में बलि चढ़ गईं एक करोड़ बेटियां
पिछले 20 सालों में देश भर में लगभग एक करोड़ बेटियों की जन्म से पहले ही बलि
चढ़ा दी गई। यही वजह है कि आज देश के कई राज्यों में सेक्स रेश्यो एक बड़ी समस्या बन गया है। बावजूद इसके कन्या भ्रूण हत्या पर रोक नहीं लग पा रही है। यह बात पुष्पांजलि क्रॉसले हॉस्पिटल की सीनियर गायनेकॉलजिस्ट डॉ. शारदा जैन ने कहीं। भ्रूण हत्या पर मौलाना आजाद मेडिकल कॉलिज में गुरुवार को आयोजित सेमिनार में उन्होंने कहा कि लड़कों के मुकाबले लड़कियों का लगातार घटता अनुपात बहुत बड़ी सामाजिक समस्या का कारण बन रहा है। हरियाणा के कई जिलों में इसका असर दिखना शुरू हो गया है, जहां शादी के लिए लड़कियां पैसे देकर आदिवासी इलाकों या बांग्लादेश से मंगाई जा रही हैं। एक लड़की से कई भाइयों की शादी के मामले भी सामने आए हैं। बावजूद इसके लोगों की परंपरागत सोच में बदलाव नहीं आ रहा है और बेटे की चाह में कोख में ही बेटियों की हत्या कर दी जाती है। ऐसे में मेडिकल फेटरनिटी की जिम्मेदारी बढ़ जाती है। इस मौके पर मौलाना आजाद मेडिकल कॉलिज के डीन डॉ. ए. के. अग्रवाल ने कहा कि वर्ष 1951 की जनगणना के मुताबिक देश के सिर्फ एक जिले में लड़कियों का अनुपात प्रति एक हजार लड़कों पर 800 के करीब पाया गया था, मगर 2001 तक 800 जिले इस स्थिति में पहुंच गए। भ्रूण हत्या में पंजाब जैसे समृद्घ राज्य भी पीछे नहीं हैं।
चढ़ा दी गई। यही वजह है कि आज देश के कई राज्यों में सेक्स रेश्यो एक बड़ी समस्या बन गया है। बावजूद इसके कन्या भ्रूण हत्या पर रोक नहीं लग पा रही है। यह बात पुष्पांजलि क्रॉसले हॉस्पिटल की सीनियर गायनेकॉलजिस्ट डॉ. शारदा जैन ने कहीं। भ्रूण हत्या पर मौलाना आजाद मेडिकल कॉलिज में गुरुवार को आयोजित सेमिनार में उन्होंने कहा कि लड़कों के मुकाबले लड़कियों का लगातार घटता अनुपात बहुत बड़ी सामाजिक समस्या का कारण बन रहा है। हरियाणा के कई जिलों में इसका असर दिखना शुरू हो गया है, जहां शादी के लिए लड़कियां पैसे देकर आदिवासी इलाकों या बांग्लादेश से मंगाई जा रही हैं। एक लड़की से कई भाइयों की शादी के मामले भी सामने आए हैं। बावजूद इसके लोगों की परंपरागत सोच में बदलाव नहीं आ रहा है और बेटे की चाह में कोख में ही बेटियों की हत्या कर दी जाती है। ऐसे में मेडिकल फेटरनिटी की जिम्मेदारी बढ़ जाती है। इस मौके पर मौलाना आजाद मेडिकल कॉलिज के डीन डॉ. ए. के. अग्रवाल ने कहा कि वर्ष 1951 की जनगणना के मुताबिक देश के सिर्फ एक जिले में लड़कियों का अनुपात प्रति एक हजार लड़कों पर 800 के करीब पाया गया था, मगर 2001 तक 800 जिले इस स्थिति में पहुंच गए। भ्रूण हत्या में पंजाब जैसे समृद्घ राज्य भी पीछे नहीं हैं।
गर्ल्स स्कूल में एजुकेशन की उड़ान
एक स्टडी के अनुसार गर्ल्स स्कूल में पढ़ने वाली लड़कियां को-एड स्कूल में एजुकेशन लेने वाली गर्ल्स से एक
ेडेमिक परफॉर्मेंस के मामले में काफी बेहतर होती हैं। ब्रिटेन में जनरल सर्टिफिकेट ऑफ सेकंडरी एजुकेशन में 7 लाख से ज्यादा लड़कियों के स्कोर का एनालिसिस करने के बाद यह खुलासा किया कि गर्ल्स स्कूल में पढ़ने वाली लड़कियां को-एड स्कूल की गर्ल्स से ज्यादा तेज होती हैं। गर्ल्स स्कूल में पढ़ते समय लड़कियों का लड़कों की वजह से ध्यान भटकने का खतरा नहीं रहता। इन लड़कियों के सामने सिर्फ एक ही मकसद होता है-एग्जाम में किसी भी तरह अच्छे से अच्छे नंबर लाना। इसलिए वह साइंस और मैथ्स जैसे टफ सब्जेक्ट्स पर काफी मेहनत करती हैं और उनकी यह मेहनत सफल भी होती है। शोधकर्ताओं ने एक खास टाइम स्पैन में देखा कि गर्ल्स स्कूल में पढ़ने वाली लड़कियों ने उम्मीद से बेहतर प्रदर्शन किया, जबकि को-एड स्कूलों में पढ़ने वाली गर्ल्स की परफॉर्मेंस आशाओं की कसौटी पर खरी नहीं उतरी। गार्जियन के हवाले से कहा गया कि बच्चों का एडमिशन
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अब कॉन्डम नहीं, ब्रेड मांगिए
खूबसूरत औरतों से बात करते समय सुद्धबुद्ध खो देते हैं पुरुष
सेक्स से दूर भागने के पुरुषों को मिले नए बहाने
सबसे ज्यादा भेजे जाते हैं एडल्ट एसएमएस
ड्रेस चुनने में एक साल लगाती हैं महिलाएं
और समय बहुत से पैरंट्स को सिर्फ को-एड स्कूल के फायदे ही नजर आते हैं। उनको लगता है कि अगर लड़के-लड़कियां साथ-साथ एजुकेशन लेंगे तो जिंदगी में आगे आने वाली किसी भी तरह की चुनौतियों से निपटने के लिए वह हरदम तैयार रहेंगे। लेकिन इसी के साथ गाजिर्यन ने यह भी कहा है, 'जो पैरंट्स अपनी लड़कियों को अच्छी एजुकेशन दिलाना चाहते हैं, उन्हें गर्ल्स स्कूल में अपनी बेटियों का एडमिशन कराना चाहिए। जो गर्ल्स को-एड स्कूल में अच्छी परफॉर्मेंस नहीं दे पा रही हैं, अगर उनका एडमिशन गर्ल्स स्कूल में कराया जाए तो हो सकता है उनकी इंटेलिजेंस और परफॉर्मेंस निखरकर सामने आए।' इंस्टिट्यूट ऑफ एजुकेशन के रिर्सचर एलाइस सुलिवन का कहना है, 'यह काफी दिलचस्प है कि गर्ल्स स्कूल में पढ़ने वाली लड़कियां एग्जाम में अच्छे नंबर लाती है। लेकिन को-एड स्कूल में भी टीचर्स पढ़ाते समय क्लासरूम में लड़के-लड़कियों में कोई भेदभाव नहीं करते। हां, कुछ अंतर जरूर हो सकते हैं। गर्ल्स स्कूल में अपनी बेटियों को पढ़ाने वाले पैरंट्स की अपनी लड़कियों से उम्मीदें कुछ अलग ही होती हैं। र्गल्स स्कूल में मैथ्स, साइंस और फिजिक्स जैसे टफ सब्जेक्ट्स में भी लड़कियां काफी अच्छा स्कोर कर सकती हैं। जिन लड़कियों में सेल्फ कॉन्फिडंस कम है, वह गर्ल्स स्कूल में अच्छे नंबर ला सकती हैं क्योंकि इसमें न तो बॉयज उनका ध्यान बंटाने की कोशिश करते हैं और न ही उन्हें उनसे मुकाबला करना होता है। इसलिए वह सिर्फ एग्जाम में अच्छे नंबर लाने पर फोकस करती हैं।
ेडेमिक परफॉर्मेंस के मामले में काफी बेहतर होती हैं। ब्रिटेन में जनरल सर्टिफिकेट ऑफ सेकंडरी एजुकेशन में 7 लाख से ज्यादा लड़कियों के स्कोर का एनालिसिस करने के बाद यह खुलासा किया कि गर्ल्स स्कूल में पढ़ने वाली लड़कियां को-एड स्कूल की गर्ल्स से ज्यादा तेज होती हैं। गर्ल्स स्कूल में पढ़ते समय लड़कियों का लड़कों की वजह से ध्यान भटकने का खतरा नहीं रहता। इन लड़कियों के सामने सिर्फ एक ही मकसद होता है-एग्जाम में किसी भी तरह अच्छे से अच्छे नंबर लाना। इसलिए वह साइंस और मैथ्स जैसे टफ सब्जेक्ट्स पर काफी मेहनत करती हैं और उनकी यह मेहनत सफल भी होती है। शोधकर्ताओं ने एक खास टाइम स्पैन में देखा कि गर्ल्स स्कूल में पढ़ने वाली लड़कियों ने उम्मीद से बेहतर प्रदर्शन किया, जबकि को-एड स्कूलों में पढ़ने वाली गर्ल्स की परफॉर्मेंस आशाओं की कसौटी पर खरी नहीं उतरी। गार्जियन के हवाले से कहा गया कि बच्चों का एडमिशन
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और समय बहुत से पैरंट्स को सिर्फ को-एड स्कूल के फायदे ही नजर आते हैं। उनको लगता है कि अगर लड़के-लड़कियां साथ-साथ एजुकेशन लेंगे तो जिंदगी में आगे आने वाली किसी भी तरह की चुनौतियों से निपटने के लिए वह हरदम तैयार रहेंगे। लेकिन इसी के साथ गाजिर्यन ने यह भी कहा है, 'जो पैरंट्स अपनी लड़कियों को अच्छी एजुकेशन दिलाना चाहते हैं, उन्हें गर्ल्स स्कूल में अपनी बेटियों का एडमिशन कराना चाहिए। जो गर्ल्स को-एड स्कूल में अच्छी परफॉर्मेंस नहीं दे पा रही हैं, अगर उनका एडमिशन गर्ल्स स्कूल में कराया जाए तो हो सकता है उनकी इंटेलिजेंस और परफॉर्मेंस निखरकर सामने आए।' इंस्टिट्यूट ऑफ एजुकेशन के रिर्सचर एलाइस सुलिवन का कहना है, 'यह काफी दिलचस्प है कि गर्ल्स स्कूल में पढ़ने वाली लड़कियां एग्जाम में अच्छे नंबर लाती है। लेकिन को-एड स्कूल में भी टीचर्स पढ़ाते समय क्लासरूम में लड़के-लड़कियों में कोई भेदभाव नहीं करते। हां, कुछ अंतर जरूर हो सकते हैं। गर्ल्स स्कूल में अपनी बेटियों को पढ़ाने वाले पैरंट्स की अपनी लड़कियों से उम्मीदें कुछ अलग ही होती हैं। र्गल्स स्कूल में मैथ्स, साइंस और फिजिक्स जैसे टफ सब्जेक्ट्स में भी लड़कियां काफी अच्छा स्कोर कर सकती हैं। जिन लड़कियों में सेल्फ कॉन्फिडंस कम है, वह गर्ल्स स्कूल में अच्छे नंबर ला सकती हैं क्योंकि इसमें न तो बॉयज उनका ध्यान बंटाने की कोशिश करते हैं और न ही उन्हें उनसे मुकाबला करना होता है। इसलिए वह सिर्फ एग्जाम में अच्छे नंबर लाने पर फोकस करती हैं।
खूबसूरत औरतों से बात करते समय सुधबुध खो देते हैं पुरुष
खूबसूरत महिलाओ के सामने पुरुष नर्वस फील करने लगते हैं। यह तथ्य हाल ही हुई एक स्टडी के रिजल्ट के तौर पर निकला है। स्टडी के अनुसार खूबसूरत महिलाओं के बात करते समय अधिकांश पुरुष अपनी सुधबुध खो बैठते हैं।
तस्वीरों में : किस्म-किस्म के कामसूत्र
नीदरलैंड के रिसर्चर्स ने अपनी स्टडी में पाया कि बेहद आकर्षक महिलाओं से बातचीत के दौरान पुरुष अपना दिमाग खो बैठते हैं यानी खूबसूरती के सामने उनका दिमाग काम करना बंद कर देता है। रिसर्च यह भी बताती है कि इस तथ्य का प्रभाव लोगों की प्रफेशनल लाइफ पर भी पड़ता है। अक्सर पुरुष ऑफिस में खूबसूरत महिलाओं से फ्लर्ट करने के चक्कर में अपने काम पर पूरा ध्यान नहीं दे पाते हैं। खूबसूरत कलीग से बात करने समय वह ऑफिस और अपने काम के बारे में लापरवाह हो जाते है।
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सॉफ्ट लेडीज, हार्ड जेंटलमैन
जबकि इसके विपरीत महिलाओं को हैंडसम पुरुषों से बात करते समय कोई खास फर्क नहीं पड़ता है। स्टडी कहती है कि यह पुरुषों में स्वाभाविक तौर पर खूबसूरती की ओर अट्रैक्ट होने का गुण है और जिसके चलते वे हमेशा खूबसूरत महिला के प्रभाव में आ जाते हैं।
स्टडी में यह भी पाया गया कि आमदिन में पुरुष ऑफिस में बेहतर काम करते हैं , बनिस्बत उस दिन के जब कोई आकर्षक महिला ऑफिस में हो।
तस्वीरों में : किस्म-किस्म के कामसूत्र
नीदरलैंड के रिसर्चर्स ने अपनी स्टडी में पाया कि बेहद आकर्षक महिलाओं से बातचीत के दौरान पुरुष अपना दिमाग खो बैठते हैं यानी खूबसूरती के सामने उनका दिमाग काम करना बंद कर देता है। रिसर्च यह भी बताती है कि इस तथ्य का प्रभाव लोगों की प्रफेशनल लाइफ पर भी पड़ता है। अक्सर पुरुष ऑफिस में खूबसूरत महिलाओं से फ्लर्ट करने के चक्कर में अपने काम पर पूरा ध्यान नहीं दे पाते हैं। खूबसूरत कलीग से बात करने समय वह ऑफिस और अपने काम के बारे में लापरवाह हो जाते है।
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Saturday, July 18, 2009
पत्रकारिता की राह इतनी आसान नहीं होती. यह काँटों से भरी राह है
वर्तिका नंदा सहाय जानी - मानी टेलीविजन पत्रकार हैं. पंजाब के जालंधर से अपने कॅरियर की शुरुआत कर उन्होंने न्यूज़ की दुनिया में अपनी एक अलग छवि बनाई है. आमतौर पर यह कहा जाता है कि टेलीविजन के पत्रकार लिखते - पढ़ते नहीं हैं, लेकिन वर्तिका नंदा उन चंद पत्रकारों में शामिल हैं जो अपने पेशे के अलावा लिखने - पढने में भी समान रूप से सक्रिय हैं. नियमित रूप से इनके लेख समाचार पत्र और पत्रिकाओं में छपते रहते हैं. इसके अलावा अपराध पत्रकारिता पर इनकी एक किताब भी प्रकाशित हो चुकी है जिसके लिए 2005 में इन्हें भारतेंदु हरिश्चंद्र सम्मान भी मिल चुका है. एनडीटीवी इंडिया, जी न्यूज़, लोकसभा टीवी और सहारा समय में महत्वपूर्ण पदों पर इन्होने काम किया है.
पत्रकारिता की शुरुआत : जालंधर दूरदर्शन में पहला मौका
यदि मेरी बातों को अन्यथा नहीं लिया जाए तो मेरा यह मानना है थोडा बहुत महिलाओं का शोषण या उन्हें परेशान किया जाना बहुत जरूरी है. इसलिए क्योंकि हम सब की जिंदगी में थोडा बहुत दर्द का आना - जाना जरूरी है. वही इंसान बढ़ता है जिसे थोडी परेशानियाँ होती हैं. पर यह सब एक सीमा के अंदर ही होना चाहिए. महिलाऐं थोडी नाज़ुक होती हैं. इसलिए उनके लिए थोड़े बहुत काँटों से भरे क्षण होने चाहिए. यह कांटे बहुत जरूरी हैं. पत्रकारिता की राह इतनी आसान नहीं होती. यह काँटों से भरी राह है और इसमें नाज़ुक बनने से काम नहीं चलेगा.
आमतौर पर जब सफरनामे के बारे में पूछा जाता है तो लोग कहते हैं कि खट्टा रहा - मीठा रहा. लेकिन मुझे लगता है कि मेरा सफ़र पसीने की खुशबू वाला रहा और मुझे इस बात का बहुत गर्व है. मेरी शुरुआत बहुत छोटे शहरों से हुई. पंजाब के जालंधर से मेरे पत्रकारिता जीवन की शुरुआत हुई. मेरी यह खुशनसीबी रही कि जालंधर दूरदर्शन में मुझे सबसे कम उम्र की एंकर बनने का मौका मिला. मै शायद उस समय 10-12 साल की थी. एक प्रोग्राम में हिस्सा लेने के लिए जालंधर दूरदर्शन में गयी थी और बाद में मुझे उसी में एंकरिंग करने का मौका मिल गया था. तब उसे कम्पेयरिंग कहते थे. उस प्रोग्राम की कोई स्क्रिप्ट नहीं होती थी और टेलीप्रोमटर तो उस ज़माने में था ही नहीं. मेरी प्रोड्यूसर काफी डांट - डपट करने वाली, लेकिन बहुत ही अच्छी महिला थी. वो मुझे अंतिम समय तक प्रोग्राम के बारे में नहीं बताती थी. चुकी मुझे कुछ पता नहीं रहता था, इसलिए हमेशा ज्यादा तैयारी करके आती थी. उस ज्यादा तैयारी ने मुझे आगे चलकर बहुत मदद की. बहुत साल बाद मेरे प्रोड्यूसर ने मुझे बताया कि जब उन्होंने मेरा चयन किया था तो उस समय पूरे दूरदर्शन में इसका काफी विरोध हुआ था कि इतनी छोटी लड़की को टीवी के सामने करना ठीक नहीं होगा. लेकिन इन्होने कहा था कि एक मौका देते हैं यदि पहला प्रोग्राम ठीक नहीं होता है तो फिर कभी कम्पेयरिंग नहीं करवाएंगे.
यह एक तरह का प्रयोग रहा जो बहुत अच्छा रहा. कई साल मैंने वो प्रोग्राम किया और इससे मेरी काफी पहचान बनी. उस वक़्त पंजाब में आतंकवाद अपने चरम पर था. मैं जहाँ भी जाती थी, लोग मुझे पहचानते थे. यहाँ तक कि आंतकवादी भी पहचानते थे. हमलोग पठानकोट आ गए लेकिन प्रोग्राम बदस्तूर जारी रहा. सुबह चार बजे की गाड़ी से हमलोग पठानकोट जाते थे. 9 बजे पैसेंजर ट्रेन होती थी. जालंधर कोई दस बजे पहुँचती थी और वापसी में घर पहुँचते- पहुँचते रात के 11 - 12 बज जाते थे. कई बार ऐसा होता थी कि ट्रेन छूट जाती थी. इस तरह के कई कठिनाईयों के बावजूद वह प्रोग्राम चलता रहा. इस तरह से कई साल गुज़र गए. पढने - लिखने में भी बहुत अच्छी थी और मेरी हमेशा कोशिश रहती थी कि सरस्वती मुझसे नाराज़ न हो. लिखने की आदत भी मुझे दूरदर्शन की वजह से पड़ी. मैं कविताएँ और कहानियां लिखने लगी. बाद में कुछ वजह से मैंने कहानियां लिखना छोड़ दी. अभी कोई 15 साल से मैंने कोई कहानी नहीं लिखी है. कविताएँ भी लिखना लगभग बंद हो गया था लेकिन पिछले साल से कविता लिखना मैंने शुरू किया है.
दिल्ली : पत्थरों का शहर , मेरी कर्मभूमि दिल्ली मेरे लिए सपना था. बाद में जब मैं दिल्ली आ गयी तब लगा कि ये बहुत पत्थरों वाला शहर है. उस वक़्त मुझे दिल्ली से बहुत डर लगता था. एक तो मुझे हमेशा लगता था कि यहाँ कोई भी किसी को किडनैप कर सकता है. दूसरा कि यहाँ कोई भी किसी को मूर्ख बना देता है. मुझे बहुत लोगों ने बनाया भी. ऑटो वालों से लेकर बस वालों सब ने कई बार मुझे बेवकूफ बनाया. मुझे समझ में नहीं आया कि इस शहर में लोग इतना झूठ क्यों बोलते हैं. लेकिन इसके बावजूद मेरे लिए यह शहर कर्म भूमि थी . मैं यहाँ सिखने आई थी. मुझे वह दिन भी याद है जब अपने छोटे शहर से दिल्ली आती थी तो मैं बहुत ही बेताबी से बुक स्टाल की तरफ जाती थी. उन किताबों को वहां पर मैं ढूढती थी जो हमारे छोटे शहर में नहीं मिलती थी. इसलिए दिल्ली मेरे लिए बहुत ही महत्वपूर्ण शहर रहा है. इसने मुझे बहुत दिया.
नौकरी का सिलसिला पढाई होते ही फिर नौकरी का सिलसिला शुरू हो गया. दिल्ली में मेरी पहली नौकरी ज़ी टीवी थी. वहां डेढ़ साल काम किया. साउथ एक्स में एक छोटा सा दफ्तर था और मैं हेल्प लाइन नाम के प्रोग्राम में थी. वैसे कुछ समय के लिए न्यूज़ में भी आयी. उसके बाद मैं एनडीटीवी में आ गयी. एनडीटीवी में जब मैंने ज्वाइन किया तब मैं गुड मोर्निंग इंडिया में डेस्क पर थी लेकिन मैं चाहती थी कि मैं रिपोर्टिंग करूँ. इसके लिए मैंने अनुमति और मुझे अनुमति मिल गयी. इसमें प्रणव रॉय और राधिका रॉय का आशीर्वाद रहा . इस तरह से मुझे रिपोर्टिंग करने का मौका मिल गया जो उस वक़्त इतना आसान नहीं था. क्योंकि मैं डेस्क पर थी और रिपोर्टिंग और डेस्क दोनों को जोड़कर करने की अनुमति उस वक़्त नहीं थी और शायद आज भी नहीं है. मैं दोनों काम करने लगी और इसका नतीजा यह हुआ कि सामान्य तौर पर 8-9 घंटे के नौकरी के अलावा भी मैंने काम किया और अपने सात साल के एनडीटीवी के नौकरी में बहुत कम छुट्टियाँ ली. बाद में मुझे एनडीटीवी के क्राईम बीट को हेड करने का मौका मिला. अपराध को मैंने बहुत करीब से देखा और जिस करीब से देखा उसका असर अभी तक नहीं गया है. बहुत सी कहानियां मै ठीक से टीवी पर नहीं दिखा पाई. क्योंकि टीवी की एक सीमा है कि एक मिनट में आपको दर्द भी समेटना है और खबर को भी दिखाना होता है. इसलिए वहां जो दर्द मैंने देखा वह अब भी मेरे जेहन में है और उसी पर मैं कुछ लिखना चाह रही हूँ.
आईआईएमसी से एक नयी पारी
सात साल तक एनडीटीवी में काम करने के बाद मैं बतौर एसोसिएट प्रोफ़ेसर आईआईएमसी में आ गयी. उस वक़्त मैं हिंदुस्तान की सबसे कम उम्र की एसोसिएट प्रोफ़ेसर में से एक थी. यहाँ आकर मुझे अच्छा भी लगा क्योंकि एक बार फिर से पढने - पढाने का सिलसिला शुरू हो गया है जो इस दौरान बिल्कुल छुट सा गया था. तीन साल तक मैं आईआईएमसी से जुडी रही और यह तीन साल जबरदस्त सीखने का समय रहा. इस दौरान कई लोगों ने मुझे कहा कि सरकारी नौकरी का खूब आनंद लेना चाहिए और समय से आईये और समय से जाइए. लेकिन मैंने एक दिन भी ऐसा नहीं किया कि दो बजे आ रही हूँ और चार बजे जा रही हूँ. मैं हमेशा समय पर आती थी. हर दिन 8.30 - 9 बजे आईआईएमसी आ जाती थी और रात के करीब 9 बजे तक वहां रहती थी. पहले दिन आईआईएमसी से मैं रात में निकली तो चौकीदार को लगा कि कोई भूत है. क्योंकि उसे मेरी परछाई सिर्फ दिखायी दी. वह वाकई में घबरा गया. लेकिन बाद में वह समझ गया कि मैं देर तक यहाँ रूकती हूँ और मुझे यहाँ रुकना अच्छा लगता है. मुझे आईआईएमसी ने बहुत कुछ दिया और वहीँ रहते हुए मैंने अपराध पत्रकारिता पर अपनी किताब टेलीविजन और अपराध पत्रकारिता भी लिखी.
लोकसभा टीवी का अनुभव आईआईएमसी के बाद लोकसभा टीवी में मुझे काम करने का मौका मिला. यहाँ सबसे बात यह थी की इसे एकदम शून्य से शुरू करना था. यह सारी बातें हमलोगों को तय करनी थी कि चैनल कैसे चलेगा, कौन - कौन से लोग होंगे और कौन क्या करेगा. एक संस्था को समझने के लिहाज़ से भी यह एक अच्छा अनुभव था. यहाँ मुझे प्रशासनिक अनुभव भी मिला जो पहले मुझे कभी नहीं मिला था. पहली बार जब मैं लोकसभा के सेंट्रल हॉल में गयी तो यह अपने आप में रोमांचक अनुभव था . मुझे यह लगा कि यहाँ आना कितने लोगों का सपना होता है और मैं इतनी आसानी से यहाँ आ जा सकती हूँ. दो मिनट में मैं अपने ऑफिस में हूँ और दो मिनट में सेंट्रल हॉल में पहुँच जाती थी . वहां मैं उन लोगों को देख और उनसे मिल रही हूँ जिन्हें देखने के लिए लोग तरसते हैं. इसके अलावा उसने मुझे सत्ता के गलियारों का खेल भी समझने में मदद की. वहां मैंने देखा कि लोगों के दो -तीन चार चेहरे होते हैं और लोग बड़ी सहजता से अपने सारे चेहरों के साथ चल लेते हैं.
सहारा समय : सबसे कम समय की नौकरी लोकसभा टीवी में करीब दो साल रही. उसके बाद सहारा में बतौर प्रोग्रामिंग हेड आ गयी. वह भी सफ़र ठीक था. पर वह सबसे कम समय की नौकरी रही. इतने कम समय की नौकरी मैंने पहले कभी नहीं की. सहारा समय को छोड़ने की कोई खास वजह नहीं रही. दरअसल मैं कुछ प्रयोग करना चाहती थी और नौकरी करते हुए यह संभव नहीं था.
दूसरी बात कि मैं यह मानती हूँ कि बदलाव तब करना चाहिए जब आप अपने उत्कर्ष पर हों. मुझे एक तरह से यह लगा कि मैं कॅरिअर के उचाइयों के आस - पास हूँ और मुझे अब कुछ नया करना चाहिए. कुछ अलग हट कर के करना चाहिए. मैं जब अध्यापन में भी आयी तो लोगों ने कहा कि इतनी जल्दी अध्यापन में नहीं जाना चाहिए. इससे टीवी के कॅरिअर पर असर पड़ेगा. लेकिन उसके बाद भी मैंने टीवी में वापसी की. मेरे ख्याल से ऐसी कोई दिक्कत नहीं होती है. इंसान जब चाहे तब वह लौट सकता है. अब भी इच्छा हुई तो मैं लौट जाउंगी. फ़िलहाल लिखने -पढने के कुछ काम में मै व्यस्त हूँ और अपने कुछ छोटे -छोटे सपनों पर काम कर रही हूँ. लेकिन टीवी में मैं फिर जरूर लौटूंगी. टीवी से मुझे कोई परहेज नहीं है.
क्राईम बीट के चयन के पीछे कारण दरअसल यह सब धीरे - धीरे हुआ. उन दिनों क्राईम की ख़बरों की रिपोर्टिंग इतने तेज तर्रार तरीके से नहीं की जाती थी. सबसे पहले आजतक ने शुरू किया और उसके बाद कुछ और ऐसी स्टोरी हुई जब मुझे लगा कि इस स्टोरी को करना चाहिए. मैंने यह स्टोरी करने की बात कही और मुझे अनुमति मिल गयी. बाद में यह बीट मुझे पसंद आने लगा क्योंकि यह जिंदगी के सच को दिखाता है. मुझे लगता है कि जिंदगी में ये चीज़ बहुत जरूरी है. अगर पत्रकारिता में एक लम्बी पारी खेलनी है तो क्राईम जरूर कवर चाहिए. क्योंकि अपराध समाज के सच को दिखाता है जो न हमें किताबों में मिलता है और न लोगों से मिलता है. अपराध पत्रकारिता उस दर्द को भी दिखाता है जिसे देखने के बाद कुछ समय के लिए असहज तो होते हैं. लेकिन वह आपको सहजता भी सिखाता है. इसलिए उसने मुझे बहुत मदद की. अभी भी मेरी यह इच्छा है कि मै इसपर कुछ लिखूं. हालाँकि इस विषय पर मेरी किताब टेलीविजन और अपराध पत्रकारिता प्रकाशित हुई लेकिन वह टेक्नीकल ज्यादा थी. उसमें भावुकता काफी कम है. अब जब अगले दौर में मैं इसपर काम करुँगी तो इस लिहाज से करुँगी कि कैमरे ने नहीं देखा लेकिन मैंने देखा.
अपराध पत्रकारिता के दौरान अनुभव एक अनुभव बड़ा दुखदायक रहा जिसे मैं अभी भी भुला नहीं पाती हूँ. मैं शाहदरा के एक मेंटल हॉस्पिटल में गयी तो वहां एक महिला मुझे मिली थी जो बहुत संवेदनशील और भावुक थी. मैंने बहुत देर तक उससे बातचित की और मुझे कभी नहीं लगा कि वह पागल है. बाद में मैंने डॉक्टर से पूछा कि डाक्टर साहब यह तो मुझे पागल नहीं लगती. डाक्टर ने कहा कि यहाँ बहुत सारी महिलाऐं पागल नहीं है. कुछ को उनके पति ने पागल करार दिया है कुछ को सास ने करार कर दिया है और कुछ को परिवारवालों ने पागल करार कर यहाँ भिजवा दिया हैं. चुकी ये कागजों में पागल करार कर दी गयी हैं इसलिए यहाँ आ गयी हैं. हमलोगों ने कई बार इनके परिवार वालों को चिठियाँ लिखी है. लेकिन कोई जवाब नहीं आया. उस महिला ने मुझे अपना पता भी दिया. न जाने कैसे उसका पता मुझसे खो गया और मैं उसकी मदद नहीं कर पाई. इस बात का अफ़सोस मुझे अपनी ज़िंदगी के अंतिम क्षण तक रहेगा. पता नहीं वह महिला अब वहां है या नहीं लेकिन जब भी मुझे उसकी याद आती है तो दुःख होता है और लगता है कि वाकई मुझसे एक पाप हो गया.
टेलीविजन इंडस्ट्री में बदलाव : तकनीक में आगे लेकिन संवेदना में पीछे पिछले 15 साल में तकनीकी रूप से टेलीविजन इंडस्ट्री में काफी बदलाव आया है. इसमें कोई शक नहीं है. तकनीकी रूप से प्रोग्राम की गुणवत्ता काफी बढ़ी है जो पहले सोंची भी नहीं जा सकती थी. लेकिन तकनीक के प्रभाव में हम संवेदना के तौर पर पीछे हो गए. दूसरी जब मैं अब एंकर्स को देखती हूँ तो मैं कई बार सोंचती हूँ यदि सामने जो खिलौना है यानि टेलीप्रोमटर बंद हो जाये तो पूरा प्रोग्राम कैसे जायेगा. पहले इन चीजों पर एंकर की निर्भरता ऐसी नहीं थी. दूरदर्शन की सबसे अच्छी बात यह रही कि उसने लोगों को लिखना सिखाया या शायद कुछ को रटना भी सिखाया. जिनकों लिखना सिखाया वो वाकई में काफी टिकाऊ सिखाया. इसके लिए तो वाकई में मैं दूरदर्शन का एहसान मानती हूँ. ये चीज अब टीवी उतना नहीं सिखा पाता. उसकी एक तो सीमा है . दूसरी कि हमलोग कंप्यूटर और तकनीक पर इतने आश्रित हो गए गए हैं कि अब उसकी जरूरत महसूस नहीं है. इसका परिणाम यह होता है कि स्टूडियो तक तो सब ठीक रहता है लेकिन जब लाईव करना होता है तब हम अटकते हैं. मूलभूत बातें ही भूल जाते हैं. टेलीविजन की जब भी आलोचना होती है तो लोग कहते हैं की भाषा ठीक नहीं है. कई सारे तथ्य गलत थे. लेकिन यह सब अचानक नहीं होता. आपको बैसाखी पर चलने की आदत हो जाती है और जब यह बैसाखी कई बार नहीं मिलती है तब आप गलतियाँ करने लगते हैं. दूरदर्शन ने बिना बैसाखियों के बहुतों को चलना सिखाया.
टेलीविजन इंडस्ट्री और महिला मीडियाकर्मी मीडिया में महिलाओं के संदर्भ में एक चीज़ अच्छी हुई कि महिला पत्रकारों की संख्या में काफी बढोत्तरी हुई. आज़ादी के समय पत्रकारिता के पेशे में महिलाओं का प्रतिशत सिर्फ 2-3 प्रतिशत ही था जो आज काफी बढ़ गया है. दूसरा एनडीटीवी जैसे चैनल में महिलाऐं वरिष्ठ पदों पर आयी हैं जो अपने आप में महतवपूर्ण है.
आमतौर पर महिलाओं में संवेदनशीलता होती है. लेकिन कई बार मीडिया में आने वाली महिलाएं पुरुष बन जाती है तब समस्या होती है. अगर महिला कहीं भी जाये और वह महिला ही बनी रहे तब तो बहुत अच्छा है लेकिन जहाँ महिला पुरुष होने लगती है तब मामला गडबडा जाता है. मुझे मीडिया में यह कई बार दिखाई दिया है.
महिला पत्रकारों के लिए कांटे भरे क्षण जरूरी मैं पहले यह मानती थी कि मीडिया में महिलाओं का शोषण नहीं होता है. लेकिन अब मैं पूरी तरह से मानती हूँ कि मीडिया में महिलाओं का बहुत शोषण होता है. इससे पहले मैंने यह बात कभी नहीं मानी थी और न कभी किसी से कही थी. क्योंकि मुझे ऐसा कभी नहीं लगा था. लेकिन अब मुझे लगने लगा है. वैसे महिलाओं का शोषण लगभग हर स्तर पर होता है. अकेले मीडिया को हम क्यों जिम्मेदार ठहराएँ. बाकी जगहों पर भी ऐसा ही कुछ है. यहाँ तक की घर की चारदीवारी से होता है. बड़े घरों में भी महिलाओं का शोषण होता है लेकिन वह रिपोर्ट नहीं होता है.
मीडिया में महिलाओं का शोषण होता है लेकिन वह दूसरे तरह का शोषण है. अब मीडिया में महिला ही महिला का शोषण उस तरह से नहीं करती है. कुछ हद तक पुरुष शोषण करता है लेकिन बहुत हद तक शोषण करने के लिए उसको उस तरह के आधार की जरूरत होती है जो इतनी आसानी से नहीं मिलता. जैसे कि कुछ एक जगहों पर एक - दो लोगों को निकाला गया जिनपर यह आरोप लगे कि उन्होंने किसी महिला का शोषण करने की कोशिश की. इसके अलावा कुछ जगह पर महिलाओं की आपत्ति और उनकी शिकायत पर सम्बंधित पुरुष सहकर्मी पर कार्यवाई हुई. यानि सुधार करने की कोशिश की गयी.
यदि मेरी बातों को अन्यथा नहीं लिया जाए तो मेरा यह मानना है थोडा बहुत महिलाओं का शोषण या उन्हें परेशान किया जाना बहुत जरूरी है. इसलिए क्योंकि हम सब की जिंदगी में थोडा बहुत दर्द का आना - जाना जरूरी है. वही इंसान बढ़ता है जिसे थोडी परेशानियाँ होती हैं. पर यह सब एक सीमा के अंदर ही होना चाहिए.
महिलाऐं थोडी नाज़ुक होती हैं. इसलिए उनके लिए थोड़े बहुत काँटों से भरे क्षण होने चाहिए. यह कांटे बहुत जरूरी हैं. पत्रकारिता की राह इतनी आसान नहीं होती. यह काँटों से भरी राह है और इसमें नाज़ुक बनने से काम नहीं चलेगा. मैं यह मानती हूँ कि वो लोग खुशनसीब होते हैं जो नाजुक नहीं होते हैं. हाँ बड़े घरों के बच्चे नाजुक होते हैं तो अच्छे लगते हैं. लेकिन पत्रकारिता में बहुत बड़े घरों के बच्चे नहीं आये. पत्रकारिता एक ऐसा पेशा है जिसमें पैसे तो कम मिलते ही हैं साथ संघर्ष करने के लिए भी सदैव तैयार रहना पड़ता है. तो हमलोग क्यों यह मानकर चलते हैं कि हमें सोने का या चांदी का चम्मच मिलेगा.
लेकिन दूसरी तरफ मैं यह भी कहूँगी कि शोषण करने वाले का स्वागत नहीं किया जाना चाहिए. शोषण करने वाले की आँखों में देखकर यह कहने की हिम्मत भी होनी चाहिए कि हम आपको अपना शोषण नहीं करने देंगें.
पत्रकारिता की शुरुआत : जालंधर दूरदर्शन में पहला मौका
यदि मेरी बातों को अन्यथा नहीं लिया जाए तो मेरा यह मानना है थोडा बहुत महिलाओं का शोषण या उन्हें परेशान किया जाना बहुत जरूरी है. इसलिए क्योंकि हम सब की जिंदगी में थोडा बहुत दर्द का आना - जाना जरूरी है. वही इंसान बढ़ता है जिसे थोडी परेशानियाँ होती हैं. पर यह सब एक सीमा के अंदर ही होना चाहिए. महिलाऐं थोडी नाज़ुक होती हैं. इसलिए उनके लिए थोड़े बहुत काँटों से भरे क्षण होने चाहिए. यह कांटे बहुत जरूरी हैं. पत्रकारिता की राह इतनी आसान नहीं होती. यह काँटों से भरी राह है और इसमें नाज़ुक बनने से काम नहीं चलेगा.
आमतौर पर जब सफरनामे के बारे में पूछा जाता है तो लोग कहते हैं कि खट्टा रहा - मीठा रहा. लेकिन मुझे लगता है कि मेरा सफ़र पसीने की खुशबू वाला रहा और मुझे इस बात का बहुत गर्व है. मेरी शुरुआत बहुत छोटे शहरों से हुई. पंजाब के जालंधर से मेरे पत्रकारिता जीवन की शुरुआत हुई. मेरी यह खुशनसीबी रही कि जालंधर दूरदर्शन में मुझे सबसे कम उम्र की एंकर बनने का मौका मिला. मै शायद उस समय 10-12 साल की थी. एक प्रोग्राम में हिस्सा लेने के लिए जालंधर दूरदर्शन में गयी थी और बाद में मुझे उसी में एंकरिंग करने का मौका मिल गया था. तब उसे कम्पेयरिंग कहते थे. उस प्रोग्राम की कोई स्क्रिप्ट नहीं होती थी और टेलीप्रोमटर तो उस ज़माने में था ही नहीं. मेरी प्रोड्यूसर काफी डांट - डपट करने वाली, लेकिन बहुत ही अच्छी महिला थी. वो मुझे अंतिम समय तक प्रोग्राम के बारे में नहीं बताती थी. चुकी मुझे कुछ पता नहीं रहता था, इसलिए हमेशा ज्यादा तैयारी करके आती थी. उस ज्यादा तैयारी ने मुझे आगे चलकर बहुत मदद की. बहुत साल बाद मेरे प्रोड्यूसर ने मुझे बताया कि जब उन्होंने मेरा चयन किया था तो उस समय पूरे दूरदर्शन में इसका काफी विरोध हुआ था कि इतनी छोटी लड़की को टीवी के सामने करना ठीक नहीं होगा. लेकिन इन्होने कहा था कि एक मौका देते हैं यदि पहला प्रोग्राम ठीक नहीं होता है तो फिर कभी कम्पेयरिंग नहीं करवाएंगे.
यह एक तरह का प्रयोग रहा जो बहुत अच्छा रहा. कई साल मैंने वो प्रोग्राम किया और इससे मेरी काफी पहचान बनी. उस वक़्त पंजाब में आतंकवाद अपने चरम पर था. मैं जहाँ भी जाती थी, लोग मुझे पहचानते थे. यहाँ तक कि आंतकवादी भी पहचानते थे. हमलोग पठानकोट आ गए लेकिन प्रोग्राम बदस्तूर जारी रहा. सुबह चार बजे की गाड़ी से हमलोग पठानकोट जाते थे. 9 बजे पैसेंजर ट्रेन होती थी. जालंधर कोई दस बजे पहुँचती थी और वापसी में घर पहुँचते- पहुँचते रात के 11 - 12 बज जाते थे. कई बार ऐसा होता थी कि ट्रेन छूट जाती थी. इस तरह के कई कठिनाईयों के बावजूद वह प्रोग्राम चलता रहा. इस तरह से कई साल गुज़र गए. पढने - लिखने में भी बहुत अच्छी थी और मेरी हमेशा कोशिश रहती थी कि सरस्वती मुझसे नाराज़ न हो. लिखने की आदत भी मुझे दूरदर्शन की वजह से पड़ी. मैं कविताएँ और कहानियां लिखने लगी. बाद में कुछ वजह से मैंने कहानियां लिखना छोड़ दी. अभी कोई 15 साल से मैंने कोई कहानी नहीं लिखी है. कविताएँ भी लिखना लगभग बंद हो गया था लेकिन पिछले साल से कविता लिखना मैंने शुरू किया है.
दिल्ली : पत्थरों का शहर , मेरी कर्मभूमि दिल्ली मेरे लिए सपना था. बाद में जब मैं दिल्ली आ गयी तब लगा कि ये बहुत पत्थरों वाला शहर है. उस वक़्त मुझे दिल्ली से बहुत डर लगता था. एक तो मुझे हमेशा लगता था कि यहाँ कोई भी किसी को किडनैप कर सकता है. दूसरा कि यहाँ कोई भी किसी को मूर्ख बना देता है. मुझे बहुत लोगों ने बनाया भी. ऑटो वालों से लेकर बस वालों सब ने कई बार मुझे बेवकूफ बनाया. मुझे समझ में नहीं आया कि इस शहर में लोग इतना झूठ क्यों बोलते हैं. लेकिन इसके बावजूद मेरे लिए यह शहर कर्म भूमि थी . मैं यहाँ सिखने आई थी. मुझे वह दिन भी याद है जब अपने छोटे शहर से दिल्ली आती थी तो मैं बहुत ही बेताबी से बुक स्टाल की तरफ जाती थी. उन किताबों को वहां पर मैं ढूढती थी जो हमारे छोटे शहर में नहीं मिलती थी. इसलिए दिल्ली मेरे लिए बहुत ही महत्वपूर्ण शहर रहा है. इसने मुझे बहुत दिया.
नौकरी का सिलसिला पढाई होते ही फिर नौकरी का सिलसिला शुरू हो गया. दिल्ली में मेरी पहली नौकरी ज़ी टीवी थी. वहां डेढ़ साल काम किया. साउथ एक्स में एक छोटा सा दफ्तर था और मैं हेल्प लाइन नाम के प्रोग्राम में थी. वैसे कुछ समय के लिए न्यूज़ में भी आयी. उसके बाद मैं एनडीटीवी में आ गयी. एनडीटीवी में जब मैंने ज्वाइन किया तब मैं गुड मोर्निंग इंडिया में डेस्क पर थी लेकिन मैं चाहती थी कि मैं रिपोर्टिंग करूँ. इसके लिए मैंने अनुमति और मुझे अनुमति मिल गयी. इसमें प्रणव रॉय और राधिका रॉय का आशीर्वाद रहा . इस तरह से मुझे रिपोर्टिंग करने का मौका मिल गया जो उस वक़्त इतना आसान नहीं था. क्योंकि मैं डेस्क पर थी और रिपोर्टिंग और डेस्क दोनों को जोड़कर करने की अनुमति उस वक़्त नहीं थी और शायद आज भी नहीं है. मैं दोनों काम करने लगी और इसका नतीजा यह हुआ कि सामान्य तौर पर 8-9 घंटे के नौकरी के अलावा भी मैंने काम किया और अपने सात साल के एनडीटीवी के नौकरी में बहुत कम छुट्टियाँ ली. बाद में मुझे एनडीटीवी के क्राईम बीट को हेड करने का मौका मिला. अपराध को मैंने बहुत करीब से देखा और जिस करीब से देखा उसका असर अभी तक नहीं गया है. बहुत सी कहानियां मै ठीक से टीवी पर नहीं दिखा पाई. क्योंकि टीवी की एक सीमा है कि एक मिनट में आपको दर्द भी समेटना है और खबर को भी दिखाना होता है. इसलिए वहां जो दर्द मैंने देखा वह अब भी मेरे जेहन में है और उसी पर मैं कुछ लिखना चाह रही हूँ.
आईआईएमसी से एक नयी पारी
सात साल तक एनडीटीवी में काम करने के बाद मैं बतौर एसोसिएट प्रोफ़ेसर आईआईएमसी में आ गयी. उस वक़्त मैं हिंदुस्तान की सबसे कम उम्र की एसोसिएट प्रोफ़ेसर में से एक थी. यहाँ आकर मुझे अच्छा भी लगा क्योंकि एक बार फिर से पढने - पढाने का सिलसिला शुरू हो गया है जो इस दौरान बिल्कुल छुट सा गया था. तीन साल तक मैं आईआईएमसी से जुडी रही और यह तीन साल जबरदस्त सीखने का समय रहा. इस दौरान कई लोगों ने मुझे कहा कि सरकारी नौकरी का खूब आनंद लेना चाहिए और समय से आईये और समय से जाइए. लेकिन मैंने एक दिन भी ऐसा नहीं किया कि दो बजे आ रही हूँ और चार बजे जा रही हूँ. मैं हमेशा समय पर आती थी. हर दिन 8.30 - 9 बजे आईआईएमसी आ जाती थी और रात के करीब 9 बजे तक वहां रहती थी. पहले दिन आईआईएमसी से मैं रात में निकली तो चौकीदार को लगा कि कोई भूत है. क्योंकि उसे मेरी परछाई सिर्फ दिखायी दी. वह वाकई में घबरा गया. लेकिन बाद में वह समझ गया कि मैं देर तक यहाँ रूकती हूँ और मुझे यहाँ रुकना अच्छा लगता है. मुझे आईआईएमसी ने बहुत कुछ दिया और वहीँ रहते हुए मैंने अपराध पत्रकारिता पर अपनी किताब टेलीविजन और अपराध पत्रकारिता भी लिखी.
लोकसभा टीवी का अनुभव आईआईएमसी के बाद लोकसभा टीवी में मुझे काम करने का मौका मिला. यहाँ सबसे बात यह थी की इसे एकदम शून्य से शुरू करना था. यह सारी बातें हमलोगों को तय करनी थी कि चैनल कैसे चलेगा, कौन - कौन से लोग होंगे और कौन क्या करेगा. एक संस्था को समझने के लिहाज़ से भी यह एक अच्छा अनुभव था. यहाँ मुझे प्रशासनिक अनुभव भी मिला जो पहले मुझे कभी नहीं मिला था. पहली बार जब मैं लोकसभा के सेंट्रल हॉल में गयी तो यह अपने आप में रोमांचक अनुभव था . मुझे यह लगा कि यहाँ आना कितने लोगों का सपना होता है और मैं इतनी आसानी से यहाँ आ जा सकती हूँ. दो मिनट में मैं अपने ऑफिस में हूँ और दो मिनट में सेंट्रल हॉल में पहुँच जाती थी . वहां मैं उन लोगों को देख और उनसे मिल रही हूँ जिन्हें देखने के लिए लोग तरसते हैं. इसके अलावा उसने मुझे सत्ता के गलियारों का खेल भी समझने में मदद की. वहां मैंने देखा कि लोगों के दो -तीन चार चेहरे होते हैं और लोग बड़ी सहजता से अपने सारे चेहरों के साथ चल लेते हैं.
सहारा समय : सबसे कम समय की नौकरी लोकसभा टीवी में करीब दो साल रही. उसके बाद सहारा में बतौर प्रोग्रामिंग हेड आ गयी. वह भी सफ़र ठीक था. पर वह सबसे कम समय की नौकरी रही. इतने कम समय की नौकरी मैंने पहले कभी नहीं की. सहारा समय को छोड़ने की कोई खास वजह नहीं रही. दरअसल मैं कुछ प्रयोग करना चाहती थी और नौकरी करते हुए यह संभव नहीं था.
दूसरी बात कि मैं यह मानती हूँ कि बदलाव तब करना चाहिए जब आप अपने उत्कर्ष पर हों. मुझे एक तरह से यह लगा कि मैं कॅरिअर के उचाइयों के आस - पास हूँ और मुझे अब कुछ नया करना चाहिए. कुछ अलग हट कर के करना चाहिए. मैं जब अध्यापन में भी आयी तो लोगों ने कहा कि इतनी जल्दी अध्यापन में नहीं जाना चाहिए. इससे टीवी के कॅरिअर पर असर पड़ेगा. लेकिन उसके बाद भी मैंने टीवी में वापसी की. मेरे ख्याल से ऐसी कोई दिक्कत नहीं होती है. इंसान जब चाहे तब वह लौट सकता है. अब भी इच्छा हुई तो मैं लौट जाउंगी. फ़िलहाल लिखने -पढने के कुछ काम में मै व्यस्त हूँ और अपने कुछ छोटे -छोटे सपनों पर काम कर रही हूँ. लेकिन टीवी में मैं फिर जरूर लौटूंगी. टीवी से मुझे कोई परहेज नहीं है.
क्राईम बीट के चयन के पीछे कारण दरअसल यह सब धीरे - धीरे हुआ. उन दिनों क्राईम की ख़बरों की रिपोर्टिंग इतने तेज तर्रार तरीके से नहीं की जाती थी. सबसे पहले आजतक ने शुरू किया और उसके बाद कुछ और ऐसी स्टोरी हुई जब मुझे लगा कि इस स्टोरी को करना चाहिए. मैंने यह स्टोरी करने की बात कही और मुझे अनुमति मिल गयी. बाद में यह बीट मुझे पसंद आने लगा क्योंकि यह जिंदगी के सच को दिखाता है. मुझे लगता है कि जिंदगी में ये चीज़ बहुत जरूरी है. अगर पत्रकारिता में एक लम्बी पारी खेलनी है तो क्राईम जरूर कवर चाहिए. क्योंकि अपराध समाज के सच को दिखाता है जो न हमें किताबों में मिलता है और न लोगों से मिलता है. अपराध पत्रकारिता उस दर्द को भी दिखाता है जिसे देखने के बाद कुछ समय के लिए असहज तो होते हैं. लेकिन वह आपको सहजता भी सिखाता है. इसलिए उसने मुझे बहुत मदद की. अभी भी मेरी यह इच्छा है कि मै इसपर कुछ लिखूं. हालाँकि इस विषय पर मेरी किताब टेलीविजन और अपराध पत्रकारिता प्रकाशित हुई लेकिन वह टेक्नीकल ज्यादा थी. उसमें भावुकता काफी कम है. अब जब अगले दौर में मैं इसपर काम करुँगी तो इस लिहाज से करुँगी कि कैमरे ने नहीं देखा लेकिन मैंने देखा.
अपराध पत्रकारिता के दौरान अनुभव एक अनुभव बड़ा दुखदायक रहा जिसे मैं अभी भी भुला नहीं पाती हूँ. मैं शाहदरा के एक मेंटल हॉस्पिटल में गयी तो वहां एक महिला मुझे मिली थी जो बहुत संवेदनशील और भावुक थी. मैंने बहुत देर तक उससे बातचित की और मुझे कभी नहीं लगा कि वह पागल है. बाद में मैंने डॉक्टर से पूछा कि डाक्टर साहब यह तो मुझे पागल नहीं लगती. डाक्टर ने कहा कि यहाँ बहुत सारी महिलाऐं पागल नहीं है. कुछ को उनके पति ने पागल करार दिया है कुछ को सास ने करार कर दिया है और कुछ को परिवारवालों ने पागल करार कर यहाँ भिजवा दिया हैं. चुकी ये कागजों में पागल करार कर दी गयी हैं इसलिए यहाँ आ गयी हैं. हमलोगों ने कई बार इनके परिवार वालों को चिठियाँ लिखी है. लेकिन कोई जवाब नहीं आया. उस महिला ने मुझे अपना पता भी दिया. न जाने कैसे उसका पता मुझसे खो गया और मैं उसकी मदद नहीं कर पाई. इस बात का अफ़सोस मुझे अपनी ज़िंदगी के अंतिम क्षण तक रहेगा. पता नहीं वह महिला अब वहां है या नहीं लेकिन जब भी मुझे उसकी याद आती है तो दुःख होता है और लगता है कि वाकई मुझसे एक पाप हो गया.
टेलीविजन इंडस्ट्री में बदलाव : तकनीक में आगे लेकिन संवेदना में पीछे पिछले 15 साल में तकनीकी रूप से टेलीविजन इंडस्ट्री में काफी बदलाव आया है. इसमें कोई शक नहीं है. तकनीकी रूप से प्रोग्राम की गुणवत्ता काफी बढ़ी है जो पहले सोंची भी नहीं जा सकती थी. लेकिन तकनीक के प्रभाव में हम संवेदना के तौर पर पीछे हो गए. दूसरी जब मैं अब एंकर्स को देखती हूँ तो मैं कई बार सोंचती हूँ यदि सामने जो खिलौना है यानि टेलीप्रोमटर बंद हो जाये तो पूरा प्रोग्राम कैसे जायेगा. पहले इन चीजों पर एंकर की निर्भरता ऐसी नहीं थी. दूरदर्शन की सबसे अच्छी बात यह रही कि उसने लोगों को लिखना सिखाया या शायद कुछ को रटना भी सिखाया. जिनकों लिखना सिखाया वो वाकई में काफी टिकाऊ सिखाया. इसके लिए तो वाकई में मैं दूरदर्शन का एहसान मानती हूँ. ये चीज अब टीवी उतना नहीं सिखा पाता. उसकी एक तो सीमा है . दूसरी कि हमलोग कंप्यूटर और तकनीक पर इतने आश्रित हो गए गए हैं कि अब उसकी जरूरत महसूस नहीं है. इसका परिणाम यह होता है कि स्टूडियो तक तो सब ठीक रहता है लेकिन जब लाईव करना होता है तब हम अटकते हैं. मूलभूत बातें ही भूल जाते हैं. टेलीविजन की जब भी आलोचना होती है तो लोग कहते हैं की भाषा ठीक नहीं है. कई सारे तथ्य गलत थे. लेकिन यह सब अचानक नहीं होता. आपको बैसाखी पर चलने की आदत हो जाती है और जब यह बैसाखी कई बार नहीं मिलती है तब आप गलतियाँ करने लगते हैं. दूरदर्शन ने बिना बैसाखियों के बहुतों को चलना सिखाया.
टेलीविजन इंडस्ट्री और महिला मीडियाकर्मी मीडिया में महिलाओं के संदर्भ में एक चीज़ अच्छी हुई कि महिला पत्रकारों की संख्या में काफी बढोत्तरी हुई. आज़ादी के समय पत्रकारिता के पेशे में महिलाओं का प्रतिशत सिर्फ 2-3 प्रतिशत ही था जो आज काफी बढ़ गया है. दूसरा एनडीटीवी जैसे चैनल में महिलाऐं वरिष्ठ पदों पर आयी हैं जो अपने आप में महतवपूर्ण है.
आमतौर पर महिलाओं में संवेदनशीलता होती है. लेकिन कई बार मीडिया में आने वाली महिलाएं पुरुष बन जाती है तब समस्या होती है. अगर महिला कहीं भी जाये और वह महिला ही बनी रहे तब तो बहुत अच्छा है लेकिन जहाँ महिला पुरुष होने लगती है तब मामला गडबडा जाता है. मुझे मीडिया में यह कई बार दिखाई दिया है.
महिला पत्रकारों के लिए कांटे भरे क्षण जरूरी मैं पहले यह मानती थी कि मीडिया में महिलाओं का शोषण नहीं होता है. लेकिन अब मैं पूरी तरह से मानती हूँ कि मीडिया में महिलाओं का बहुत शोषण होता है. इससे पहले मैंने यह बात कभी नहीं मानी थी और न कभी किसी से कही थी. क्योंकि मुझे ऐसा कभी नहीं लगा था. लेकिन अब मुझे लगने लगा है. वैसे महिलाओं का शोषण लगभग हर स्तर पर होता है. अकेले मीडिया को हम क्यों जिम्मेदार ठहराएँ. बाकी जगहों पर भी ऐसा ही कुछ है. यहाँ तक की घर की चारदीवारी से होता है. बड़े घरों में भी महिलाओं का शोषण होता है लेकिन वह रिपोर्ट नहीं होता है.
मीडिया में महिलाओं का शोषण होता है लेकिन वह दूसरे तरह का शोषण है. अब मीडिया में महिला ही महिला का शोषण उस तरह से नहीं करती है. कुछ हद तक पुरुष शोषण करता है लेकिन बहुत हद तक शोषण करने के लिए उसको उस तरह के आधार की जरूरत होती है जो इतनी आसानी से नहीं मिलता. जैसे कि कुछ एक जगहों पर एक - दो लोगों को निकाला गया जिनपर यह आरोप लगे कि उन्होंने किसी महिला का शोषण करने की कोशिश की. इसके अलावा कुछ जगह पर महिलाओं की आपत्ति और उनकी शिकायत पर सम्बंधित पुरुष सहकर्मी पर कार्यवाई हुई. यानि सुधार करने की कोशिश की गयी.
यदि मेरी बातों को अन्यथा नहीं लिया जाए तो मेरा यह मानना है थोडा बहुत महिलाओं का शोषण या उन्हें परेशान किया जाना बहुत जरूरी है. इसलिए क्योंकि हम सब की जिंदगी में थोडा बहुत दर्द का आना - जाना जरूरी है. वही इंसान बढ़ता है जिसे थोडी परेशानियाँ होती हैं. पर यह सब एक सीमा के अंदर ही होना चाहिए.
महिलाऐं थोडी नाज़ुक होती हैं. इसलिए उनके लिए थोड़े बहुत काँटों से भरे क्षण होने चाहिए. यह कांटे बहुत जरूरी हैं. पत्रकारिता की राह इतनी आसान नहीं होती. यह काँटों से भरी राह है और इसमें नाज़ुक बनने से काम नहीं चलेगा. मैं यह मानती हूँ कि वो लोग खुशनसीब होते हैं जो नाजुक नहीं होते हैं. हाँ बड़े घरों के बच्चे नाजुक होते हैं तो अच्छे लगते हैं. लेकिन पत्रकारिता में बहुत बड़े घरों के बच्चे नहीं आये. पत्रकारिता एक ऐसा पेशा है जिसमें पैसे तो कम मिलते ही हैं साथ संघर्ष करने के लिए भी सदैव तैयार रहना पड़ता है. तो हमलोग क्यों यह मानकर चलते हैं कि हमें सोने का या चांदी का चम्मच मिलेगा.
लेकिन दूसरी तरफ मैं यह भी कहूँगी कि शोषण करने वाले का स्वागत नहीं किया जाना चाहिए. शोषण करने वाले की आँखों में देखकर यह कहने की हिम्मत भी होनी चाहिए कि हम आपको अपना शोषण नहीं करने देंगें.
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