Thursday, November 26, 2009

यौन शोषण की शिकायत के निस्तारण की प्रक्रिया शुरू कर दी

जहाँ एक ओर राष्ट्रीय स्तर पर महिलाओं को समान अधिकारों की बहस छिड़ी है वहीं दूसरी ओर कामकाजी महिलाओं द्वारा यौन शोषण की शिकायत करने पर भी उल्टे महिलाओं को ही दोषी ठहराया जा रहा है।निदेशक(मा.स.) ने तो इन्सानियत की सारी हदें तब पार कर दी जब उनके द्वारा यौन शोषण की शिकायत को ऑफ़िशियल मिसकण्डक्ट में बदला गया।
हुआ कुछ यूं कि पिटकुल मुख्यालय पर तैनात एक महिला अवर अभियन्ता(प्रशिक्षु) द्वारा मुख्यालय में ही तैनात एक उपमहाप्रबन्धक की अश्लील हरकतों से परेशान होकर पहले तो निदेशक(मा.स.) से मौखिक शिकायत की तथा १९ जून २००८ को छुट्टी पर जाने से पूर्व भी उसने निदेशक(मा.स.) से मौखिक शिकायत की। उसके बाद पीड़िता ने २० जून २००८ को प्रबन्ध निदेशक के नाम लिखित शिकायती पत्र भेजा।
चूंकि निदेशक(मा.स.) से पीड़िता ने मौखिक शिकायत २० जून २००८ से पूर्व ही कर दी थी तथा जब पीड़िता १९ जून २००८ से तीन दिन के अवकाश का प्रार्थना पत्र लेकर महाप्रबन्धक(मा.स.) से मिली तब महाप्रबन्धक(मा.स.) व निदेशक(मा.स.)दोनों ने पीड़िता के मूड को भाँपकर यौन शोषण की शिकायत के निस्तारण की प्रक्रिया शुरू कर दी जिसके फ़लस्वरूप उन्होंने इन्टरनेट से यौन शोषण की शिकायत पर सुप्रीम कोर्ट के दिशा निर्देश ढ़ूंढ़ना शुरू कर दिये तथा १९ जून २००८ को ही इन्टरनेट पर एक वेबसाइट

से चार पेज के दिशा निर्देश को प्रिंट किया गया।गौरतलब है कि पीड़िता ने शिकायत २० जून २००८ को की थी फिर यौन शोषण की शिकायतों के निस्तारण हेतु दिशा निर्देश १९ जून २००८ क्यों प्रिंट किये गये?मतलब एकदम साफ है कि पीड़िता कई बार मौखिक रूप से निदेशक(मा.स.) व महाप्रबन्धक(मा.स.)से उपमहाप्रबन्धक द्वारा की जा रही अश्लील हरकतों की शिकायत कर चुकी थी तथा १९ जून २००८ को अन्तिम बार पीड़िता द्वारा महाप्रबन्धक(मा.स.) से ये मौखिक शिकायत की गयी। पीड़िता के तीन दिन की छुट्टी पर जाने से महाप्रबन्धक(मा.स.) व निदेशक(मा.स.)परेशान हो गये तथा उन्होंने यौन शोषण की लिखित शिकायत से पूर्व ही शिकायत के निस्तारण की प्रक्रिया शुरू करते हुए इन्टरनेट से इस प्रकार की शिकायतों के निस्तारण हेतू सुप्रीम कोर्ट के चार पेज के दिशा निर्देश प्रिंट कर लिये।
२०जून २००८ को जैसे ही पीड़िता ने लिखित शिकायत मुख्यालय में जमा करायी वैसे ही मानव संसाधन विभाग हरकत में आ गया और आनन-फ़ानन में एक नोट्स एण्ड ऑर्डर तैयार किया गया तथा उसी दिन प्रबन्ध निदेशक से अनुमोदन भी प्राप्त कर लिया गया जिसमें स्पष्ट रूप से लिखा गया कि यौन शोषण की इस शिकायत का निस्तारण सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों के अनुरूप किया जाये तथा प्रशासनिक कारणों के आधार पर आरोपी का स्थानान्तरण देहरादून से श्रीनगर किया जाये ।गौरतलब है कि प्रबन्ध निदेशक से अनुमोदन मिलने के पश्चात शुरू हुआ आरोपी को बचाने के लिए सौदेबाज़ी का दौर और यदि विभागीय सूत्रों से प्राप्त जानकारी को सच माना जाये तो आरोपी से आरोप मुक्त करते हुए पदोन्नति के साथ देहरादून वापस लाने हेतू मोटी रकम माँगी गयी ।इस खेल के बड़े खिलाड़ी तत्कालीन प्रबन्ध निदेशक , निदेशक (मा.स.), महाप्रबन्ध (मा.स.), प्रबन्धक (मा.स.), महाप्रबन्धक (सी. एण्ड पी.) हैं, जिनको जाँच अधिकारी नियुक्त किया गया था ।
रिश्वत खाकर मानव संसाधन स्कन्ध ने २५ जून २००८ को एक नया नोट्स एण्ड ऑर्डर तैयार किया तथा निदेशक (मा.स.) के हस्ताक्षरों से प्रबन्ध निदेशक का अनुमोदन प्राप्त किया गया । जिसमें लिखा गया कि -
१) श्री अनिल यादव का स्थानान्तरण देहरादून से श्रीनगर चेन प्रोसेस के तहत किया गया है, अतः यह प्रशासनिक आधार पर है, के लिये एक अलग आदेश दिया जाए ।
२) उनको जाँच के दौरान निलम्बित रखा जाये ताकि उपमहाप्रबन्धक (प्रभारी) के पद पर कार्य करते हुए वह जाँच प्रभावित कर सकते हैं ।
३) आरोपी अधिकारी से चार्ज शीट का जवाब मांगा जाये जिसका ड्रॉफ़्ट संलग्न है ।
४) श्री ए. सी. गोयल को जाँच अधिकारी नियुक्त किया जाये ।
चूंकि इस बचाव अभियान में प्रबन्ध निदेशक सहित सभी शामिल थे इसलिए प्रबन्ध निदेशक ने बिन्दु ३ व ४ को ही अनुमोदित किया ।
यहाँ गौरतलब है कि जिस प्रबन्ध निदेशक ने २० जून २००८ को अनुमोदित किया कि जाँच सुप्रीम कोर्ट के दिशा निर्देशों के अनुरूप हो उस ही के द्वारा २५ जून २००८ को नये ड्राफ़्ट का अनुमोदन करना, जो पहले का एकदम उलट हो , प्रबन्ध निदेशक की ईमानदारी के ऊपर एक कलंक है और तत्कालीन प्रबन्ध निदेशक के ईमानदार होने पर एक बडा प्रश्न चिह्न है । वो कौन सी मजबूरी थी जिसके चलते तत्कालीन प्रबन्ध निदेशक ने एक ही प्रकरण में दो विरोधाभाषी आदेश दिये ।
इस प्रकरण के प्रत्येक पहलू से घोर रिश्वत्खोरी की बू आ रही है । सूचना का अधिकार से प्राप्त दस्तावेज़ों से ही यह खुलासा हो सका ।
अब सरकार को चाहिए कि रिश्वत्खोरी के इस प्रकरण के लिये कम से कम सात सदस्यीय उच्च स्तरीय समिति का गठन कर के निष्पक्ष जाँच करायें ताकि दूध का दूध और पानी का पानी हो सके

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