Saturday, July 18, 2009

पत्रकारिता की राह इतनी आसान नहीं होती. यह काँटों से भरी राह है

वर्तिका नंदा सहाय जानी - मानी टेलीविजन पत्रकार हैं. पंजाब के जालंधर से अपने कॅरियर की शुरुआत कर उन्होंने न्यूज़ की दुनिया में अपनी एक अलग छवि बनाई है. आमतौर पर यह कहा जाता है कि टेलीविजन के पत्रकार लिखते - पढ़ते नहीं हैं, लेकिन वर्तिका नंदा उन चंद पत्रकारों में शामिल हैं जो अपने पेशे के अलावा लिखने - पढने में भी समान रूप से सक्रिय हैं. नियमित रूप से इनके लेख समाचार पत्र और पत्रिकाओं में छपते रहते हैं. इसके अलावा अपराध पत्रकारिता पर इनकी एक किताब भी प्रकाशित हो चुकी है जिसके लिए 2005 में इन्हें भारतेंदु हरिश्चंद्र सम्मान भी मिल चुका है. एनडीटीवी इंडिया, जी न्यूज़, लोकसभा टीवी और सहारा समय में महत्वपूर्ण पदों पर इन्होने काम किया है.

पत्रकारिता की शुरुआत : जालंधर दूरदर्शन में पहला मौका
यदि मेरी बातों को अन्यथा नहीं लिया जाए तो मेरा यह मानना है थोडा बहुत महिलाओं का शोषण या उन्हें परेशान किया जाना बहुत जरूरी है. इसलिए क्योंकि हम सब की जिंदगी में थोडा बहुत दर्द का आना - जाना जरूरी है. वही इंसान बढ़ता है जिसे थोडी परेशानियाँ होती हैं. पर यह सब एक सीमा के अंदर ही होना चाहिए. महिलाऐं थोडी नाज़ुक होती हैं. इसलिए उनके लिए थोड़े बहुत काँटों से भरे क्षण होने चाहिए. यह कांटे बहुत जरूरी हैं. पत्रकारिता की राह इतनी आसान नहीं होती. यह काँटों से भरी राह है और इसमें नाज़ुक बनने से काम नहीं चलेगा.
आमतौर पर जब सफरनामे के बारे में पूछा जाता है तो लोग कहते हैं कि खट्टा रहा - मीठा रहा. लेकिन मुझे लगता है कि मेरा सफ़र पसीने की खुशबू वाला रहा और मुझे इस बात का बहुत गर्व है. मेरी शुरुआत बहुत छोटे शहरों से हुई. पंजाब के जालंधर से मेरे पत्रकारिता जीवन की शुरुआत हुई. मेरी यह खुशनसीबी रही कि जालंधर दूरदर्शन में मुझे सबसे कम उम्र की एंकर बनने का मौका मिला. मै शायद उस समय 10-12 साल की थी. एक प्रोग्राम में हिस्सा लेने के लिए जालंधर दूरदर्शन में गयी थी और बाद में मुझे उसी में एंकरिंग करने का मौका मिल गया था. तब उसे कम्पेयरिंग कहते थे. उस प्रोग्राम की कोई स्क्रिप्ट नहीं होती थी और टेलीप्रोमटर तो उस ज़माने में था ही नहीं. मेरी प्रोड्यूसर काफी डांट - डपट करने वाली, लेकिन बहुत ही अच्छी महिला थी. वो मुझे अंतिम समय तक प्रोग्राम के बारे में नहीं बताती थी. चुकी मुझे कुछ पता नहीं रहता था, इसलिए हमेशा ज्यादा तैयारी करके आती थी. उस ज्यादा तैयारी ने मुझे आगे चलकर बहुत मदद की. बहुत साल बाद मेरे प्रोड्यूसर ने मुझे बताया कि जब उन्होंने मेरा चयन किया था तो उस समय पूरे दूरदर्शन में इसका काफी विरोध हुआ था कि इतनी छोटी लड़की को टीवी के सामने करना ठीक नहीं होगा. लेकिन इन्होने कहा था कि एक मौका देते हैं यदि पहला प्रोग्राम ठीक नहीं होता है तो फिर कभी कम्पेयरिंग नहीं करवाएंगे.
यह एक तरह का प्रयोग रहा जो बहुत अच्छा रहा. कई साल मैंने वो प्रोग्राम किया और इससे मेरी काफी पहचान बनी. उस वक़्त पंजाब में आतंकवाद अपने चरम पर था. मैं जहाँ भी जाती थी, लोग मुझे पहचानते थे. यहाँ तक कि आंतकवादी भी पहचानते थे. हमलोग पठानकोट आ गए लेकिन प्रोग्राम बदस्तूर जारी रहा. सुबह चार बजे की गाड़ी से हमलोग पठानकोट जाते थे. 9 बजे पैसेंजर ट्रेन होती थी. जालंधर कोई दस बजे पहुँचती थी और वापसी में घर पहुँचते- पहुँचते रात के 11 - 12 बज जाते थे. कई बार ऐसा होता थी कि ट्रेन छूट जाती थी. इस तरह के कई कठिनाईयों के बावजूद वह प्रोग्राम चलता रहा. इस तरह से कई साल गुज़र गए. पढने - लिखने में भी बहुत अच्छी थी और मेरी हमेशा कोशिश रहती थी कि सरस्वती मुझसे नाराज़ न हो. लिखने की आदत भी मुझे दूरदर्शन की वजह से पड़ी. मैं कविताएँ और कहानियां लिखने लगी. बाद में कुछ वजह से मैंने कहानियां लिखना छोड़ दी. अभी कोई 15 साल से मैंने कोई कहानी नहीं लिखी है. कविताएँ भी लिखना लगभग बंद हो गया था लेकिन पिछले साल से कविता लिखना मैंने शुरू किया है.
दिल्ली : पत्थरों का शहर , मेरी कर्मभूमि दिल्ली मेरे लिए सपना था. बाद में जब मैं दिल्ली आ गयी तब लगा कि ये बहुत पत्थरों वाला शहर है. उस वक़्त मुझे दिल्ली से बहुत डर लगता था. एक तो मुझे हमेशा लगता था कि यहाँ कोई भी किसी को किडनैप कर सकता है. दूसरा कि यहाँ कोई भी किसी को मूर्ख बना देता है. मुझे बहुत लोगों ने बनाया भी. ऑटो वालों से लेकर बस वालों सब ने कई बार मुझे बेवकूफ बनाया. मुझे समझ में नहीं आया कि इस शहर में लोग इतना झूठ क्यों बोलते हैं. लेकिन इसके बावजूद मेरे लिए यह शहर कर्म भूमि थी . मैं यहाँ सिखने आई थी. मुझे वह दिन भी याद है जब अपने छोटे शहर से दिल्ली आती थी तो मैं बहुत ही बेताबी से बुक स्टाल की तरफ जाती थी. उन किताबों को वहां पर मैं ढूढती थी जो हमारे छोटे शहर में नहीं मिलती थी. इसलिए दिल्ली मेरे लिए बहुत ही महत्वपूर्ण शहर रहा है. इसने मुझे बहुत दिया.
नौकरी का सिलसिला पढाई होते ही फिर नौकरी का सिलसिला शुरू हो गया. दिल्ली में मेरी पहली नौकरी ज़ी टीवी थी. वहां डेढ़ साल काम किया. साउथ एक्स में एक छोटा सा दफ्तर था और मैं हेल्प लाइन नाम के प्रोग्राम में थी. वैसे कुछ समय के लिए न्यूज़ में भी आयी. उसके बाद मैं एनडीटीवी में आ गयी. एनडीटीवी में जब मैंने ज्वाइन किया तब मैं गुड मोर्निंग इंडिया में डेस्क पर थी लेकिन मैं चाहती थी कि मैं रिपोर्टिंग करूँ. इसके लिए मैंने अनुमति और मुझे अनुमति मिल गयी. इसमें प्रणव रॉय और राधिका रॉय का आशीर्वाद रहा . इस तरह से मुझे रिपोर्टिंग करने का मौका मिल गया जो उस वक़्त इतना आसान नहीं था. क्योंकि मैं डेस्क पर थी और रिपोर्टिंग और डेस्क दोनों को जोड़कर करने की अनुमति उस वक़्त नहीं थी और शायद आज भी नहीं है. मैं दोनों काम करने लगी और इसका नतीजा यह हुआ कि सामान्य तौर पर 8-9 घंटे के नौकरी के अलावा भी मैंने काम किया और अपने सात साल के एनडीटीवी के नौकरी में बहुत कम छुट्टियाँ ली. बाद में मुझे एनडीटीवी के क्राईम बीट को हेड करने का मौका मिला. अपराध को मैंने बहुत करीब से देखा और जिस करीब से देखा उसका असर अभी तक नहीं गया है. बहुत सी कहानियां मै ठीक से टीवी पर नहीं दिखा पाई. क्योंकि टीवी की एक सीमा है कि एक मिनट में आपको दर्द भी समेटना है और खबर को भी दिखाना होता है. इसलिए वहां जो दर्द मैंने देखा वह अब भी मेरे जेहन में है और उसी पर मैं कुछ लिखना चाह रही हूँ.
आईआईएमसी से एक नयी पारी
सात साल तक एनडीटीवी में काम करने के बाद मैं बतौर एसोसिएट प्रोफ़ेसर आईआईएमसी में आ गयी. उस वक़्त मैं हिंदुस्तान की सबसे कम उम्र की एसोसिएट प्रोफ़ेसर में से एक थी. यहाँ आकर मुझे अच्छा भी लगा क्योंकि एक बार फिर से पढने - पढाने का सिलसिला शुरू हो गया है जो इस दौरान बिल्कुल छुट सा गया था. तीन साल तक मैं आईआईएमसी से जुडी रही और यह तीन साल जबरदस्त सीखने का समय रहा. इस दौरान कई लोगों ने मुझे कहा कि सरकारी नौकरी का खूब आनंद लेना चाहिए और समय से आईये और समय से जाइए. लेकिन मैंने एक दिन भी ऐसा नहीं किया कि दो बजे आ रही हूँ और चार बजे जा रही हूँ. मैं हमेशा समय पर आती थी. हर दिन 8.30 - 9 बजे आईआईएमसी आ जाती थी और रात के करीब 9 बजे तक वहां रहती थी. पहले दिन आईआईएमसी से मैं रात में निकली तो चौकीदार को लगा कि कोई भूत है. क्योंकि उसे मेरी परछाई सिर्फ दिखायी दी. वह वाकई में घबरा गया. लेकिन बाद में वह समझ गया कि मैं देर तक यहाँ रूकती हूँ और मुझे यहाँ रुकना अच्छा लगता है. मुझे आईआईएमसी ने बहुत कुछ दिया और वहीँ रहते हुए मैंने अपराध पत्रकारिता पर अपनी किताब टेलीविजन और अपराध पत्रकारिता भी लिखी.
लोकसभा टीवी का अनुभव आईआईएमसी के बाद लोकसभा टीवी में मुझे काम करने का मौका मिला. यहाँ सबसे बात यह थी की इसे एकदम शून्य से शुरू करना था. यह सारी बातें हमलोगों को तय करनी थी कि चैनल कैसे चलेगा, कौन - कौन से लोग होंगे और कौन क्या करेगा. एक संस्था को समझने के लिहाज़ से भी यह एक अच्छा अनुभव था. यहाँ मुझे प्रशासनिक अनुभव भी मिला जो पहले मुझे कभी नहीं मिला था. पहली बार जब मैं लोकसभा के सेंट्रल हॉल में गयी तो यह अपने आप में रोमांचक अनुभव था . मुझे यह लगा कि यहाँ आना कितने लोगों का सपना होता है और मैं इतनी आसानी से यहाँ आ जा सकती हूँ. दो मिनट में मैं अपने ऑफिस में हूँ और दो मिनट में सेंट्रल हॉल में पहुँच जाती थी . वहां मैं उन लोगों को देख और उनसे मिल रही हूँ जिन्हें देखने के लिए लोग तरसते हैं. इसके अलावा उसने मुझे सत्ता के गलियारों का खेल भी समझने में मदद की. वहां मैंने देखा कि लोगों के दो -तीन चार चेहरे होते हैं और लोग बड़ी सहजता से अपने सारे चेहरों के साथ चल लेते हैं.
सहारा समय : सबसे कम समय की नौकरी लोकसभा टीवी में करीब दो साल रही. उसके बाद सहारा में बतौर प्रोग्रामिंग हेड आ गयी. वह भी सफ़र ठीक था. पर वह सबसे कम समय की नौकरी रही. इतने कम समय की नौकरी मैंने पहले कभी नहीं की. सहारा समय को छोड़ने की कोई खास वजह नहीं रही. दरअसल मैं कुछ प्रयोग करना चाहती थी और नौकरी करते हुए यह संभव नहीं था.
दूसरी बात कि मैं यह मानती हूँ कि बदलाव तब करना चाहिए जब आप अपने उत्कर्ष पर हों. मुझे एक तरह से यह लगा कि मैं कॅरिअर के उचाइयों के आस - पास हूँ और मुझे अब कुछ नया करना चाहिए. कुछ अलग हट कर के करना चाहिए. मैं जब अध्यापन में भी आयी तो लोगों ने कहा कि इतनी जल्दी अध्यापन में नहीं जाना चाहिए. इससे टीवी के कॅरिअर पर असर पड़ेगा. लेकिन उसके बाद भी मैंने टीवी में वापसी की. मेरे ख्याल से ऐसी कोई दिक्कत नहीं होती है. इंसान जब चाहे तब वह लौट सकता है. अब भी इच्छा हुई तो मैं लौट जाउंगी. फ़िलहाल लिखने -पढने के कुछ काम में मै व्यस्त हूँ और अपने कुछ छोटे -छोटे सपनों पर काम कर रही हूँ. लेकिन टीवी में मैं फिर जरूर लौटूंगी. टीवी से मुझे कोई परहेज नहीं है.
क्राईम बीट के चयन के पीछे कारण दरअसल यह सब धीरे - धीरे हुआ. उन दिनों क्राईम की ख़बरों की रिपोर्टिंग इतने तेज तर्रार तरीके से नहीं की जाती थी. सबसे पहले आजतक ने शुरू किया और उसके बाद कुछ और ऐसी स्टोरी हुई जब मुझे लगा कि इस स्टोरी को करना चाहिए. मैंने यह स्टोरी करने की बात कही और मुझे अनुमति मिल गयी. बाद में यह बीट मुझे पसंद आने लगा क्योंकि यह जिंदगी के सच को दिखाता है. मुझे लगता है कि जिंदगी में ये चीज़ बहुत जरूरी है. अगर पत्रकारिता में एक लम्बी पारी खेलनी है तो क्राईम जरूर कवर चाहिए. क्योंकि अपराध समाज के सच को दिखाता है जो न हमें किताबों में मिलता है और न लोगों से मिलता है. अपराध पत्रकारिता उस दर्द को भी दिखाता है जिसे देखने के बाद कुछ समय के लिए असहज तो होते हैं. लेकिन वह आपको सहजता भी सिखाता है. इसलिए उसने मुझे बहुत मदद की. अभी भी मेरी यह इच्छा है कि मै इसपर कुछ लिखूं. हालाँकि इस विषय पर मेरी किताब टेलीविजन और अपराध पत्रकारिता प्रकाशित हुई लेकिन वह टेक्नीकल ज्यादा थी. उसमें भावुकता काफी कम है. अब जब अगले दौर में मैं इसपर काम करुँगी तो इस लिहाज से करुँगी कि कैमरे ने नहीं देखा लेकिन मैंने देखा.
अपराध पत्रकारिता के दौरान अनुभव एक अनुभव बड़ा दुखदायक रहा जिसे मैं अभी भी भुला नहीं पाती हूँ. मैं शाहदरा के एक मेंटल हॉस्पिटल में गयी तो वहां एक महिला मुझे मिली थी जो बहुत संवेदनशील और भावुक थी. मैंने बहुत देर तक उससे बातचित की और मुझे कभी नहीं लगा कि वह पागल है. बाद में मैंने डॉक्टर से पूछा कि डाक्टर साहब यह तो मुझे पागल नहीं लगती. डाक्टर ने कहा कि यहाँ बहुत सारी महिलाऐं पागल नहीं है. कुछ को उनके पति ने पागल करार दिया है कुछ को सास ने करार कर दिया है और कुछ को परिवारवालों ने पागल करार कर यहाँ भिजवा दिया हैं. चुकी ये कागजों में पागल करार कर दी गयी हैं इसलिए यहाँ आ गयी हैं. हमलोगों ने कई बार इनके परिवार वालों को चिठियाँ लिखी है. लेकिन कोई जवाब नहीं आया. उस महिला ने मुझे अपना पता भी दिया. न जाने कैसे उसका पता मुझसे खो गया और मैं उसकी मदद नहीं कर पाई. इस बात का अफ़सोस मुझे अपनी ज़िंदगी के अंतिम क्षण तक रहेगा. पता नहीं वह महिला अब वहां है या नहीं लेकिन जब भी मुझे उसकी याद आती है तो दुःख होता है और लगता है कि वाकई मुझसे एक पाप हो गया.
टेलीविजन इंडस्ट्री में बदलाव : तकनीक में आगे लेकिन संवेदना में पीछे पिछले 15 साल में तकनीकी रूप से टेलीविजन इंडस्ट्री में काफी बदलाव आया है. इसमें कोई शक नहीं है. तकनीकी रूप से प्रोग्राम की गुणवत्ता काफी बढ़ी है जो पहले सोंची भी नहीं जा सकती थी. लेकिन तकनीक के प्रभाव में हम संवेदना के तौर पर पीछे हो गए. दूसरी जब मैं अब एंकर्स को देखती हूँ तो मैं कई बार सोंचती हूँ यदि सामने जो खिलौना है यानि टेलीप्रोमटर बंद हो जाये तो पूरा प्रोग्राम कैसे जायेगा. पहले इन चीजों पर एंकर की निर्भरता ऐसी नहीं थी. दूरदर्शन की सबसे अच्छी बात यह रही कि उसने लोगों को लिखना सिखाया या शायद कुछ को रटना भी सिखाया. जिनकों लिखना सिखाया वो वाकई में काफी टिकाऊ सिखाया. इसके लिए तो वाकई में मैं दूरदर्शन का एहसान मानती हूँ. ये चीज अब टीवी उतना नहीं सिखा पाता. उसकी एक तो सीमा है . दूसरी कि हमलोग कंप्यूटर और तकनीक पर इतने आश्रित हो गए गए हैं कि अब उसकी जरूरत महसूस नहीं है. इसका परिणाम यह होता है कि स्टूडियो तक तो सब ठीक रहता है लेकिन जब लाईव करना होता है तब हम अटकते हैं. मूलभूत बातें ही भूल जाते हैं. टेलीविजन की जब भी आलोचना होती है तो लोग कहते हैं की भाषा ठीक नहीं है. कई सारे तथ्य गलत थे. लेकिन यह सब अचानक नहीं होता. आपको बैसाखी पर चलने की आदत हो जाती है और जब यह बैसाखी कई बार नहीं मिलती है तब आप गलतियाँ करने लगते हैं. दूरदर्शन ने बिना बैसाखियों के बहुतों को चलना सिखाया.
टेलीविजन इंडस्ट्री और महिला मीडियाकर्मी मीडिया में महिलाओं के संदर्भ में एक चीज़ अच्छी हुई कि महिला पत्रकारों की संख्या में काफी बढोत्तरी हुई. आज़ादी के समय पत्रकारिता के पेशे में महिलाओं का प्रतिशत सिर्फ 2-3 प्रतिशत ही था जो आज काफी बढ़ गया है. दूसरा एनडीटीवी जैसे चैनल में महिलाऐं वरिष्ठ पदों पर आयी हैं जो अपने आप में महतवपूर्ण है.
आमतौर पर महिलाओं में संवेदनशीलता होती है. लेकिन कई बार मीडिया में आने वाली महिलाएं पुरुष बन जाती है तब समस्या होती है. अगर महिला कहीं भी जाये और वह महिला ही बनी रहे तब तो बहुत अच्छा है लेकिन जहाँ महिला पुरुष होने लगती है तब मामला गडबडा जाता है. मुझे मीडिया में यह कई बार दिखाई दिया है.
महिला पत्रकारों के लिए कांटे भरे क्षण जरूरी मैं पहले यह मानती थी कि मीडिया में महिलाओं का शोषण नहीं होता है. लेकिन अब मैं पूरी तरह से मानती हूँ कि मीडिया में महिलाओं का बहुत शोषण होता है. इससे पहले मैंने यह बात कभी नहीं मानी थी और न कभी किसी से कही थी. क्योंकि मुझे ऐसा कभी नहीं लगा था. लेकिन अब मुझे लगने लगा है. वैसे महिलाओं का शोषण लगभग हर स्तर पर होता है. अकेले मीडिया को हम क्यों जिम्मेदार ठहराएँ. बाकी जगहों पर भी ऐसा ही कुछ है. यहाँ तक की घर की चारदीवारी से होता है. बड़े घरों में भी महिलाओं का शोषण होता है लेकिन वह रिपोर्ट नहीं होता है.
मीडिया में महिलाओं का शोषण होता है लेकिन वह दूसरे तरह का शोषण है. अब मीडिया में महिला ही महिला का शोषण उस तरह से नहीं करती है. कुछ हद तक पुरुष शोषण करता है लेकिन बहुत हद तक शोषण करने के लिए उसको उस तरह के आधार की जरूरत होती है जो इतनी आसानी से नहीं मिलता. जैसे कि कुछ एक जगहों पर एक - दो लोगों को निकाला गया जिनपर यह आरोप लगे कि उन्होंने किसी महिला का शोषण करने की कोशिश की. इसके अलावा कुछ जगह पर महिलाओं की आपत्ति और उनकी शिकायत पर सम्बंधित पुरुष सहकर्मी पर कार्यवाई हुई. यानि सुधार करने की कोशिश की गयी.
यदि मेरी बातों को अन्यथा नहीं लिया जाए तो मेरा यह मानना है थोडा बहुत महिलाओं का शोषण या उन्हें परेशान किया जाना बहुत जरूरी है. इसलिए क्योंकि हम सब की जिंदगी में थोडा बहुत दर्द का आना - जाना जरूरी है. वही इंसान बढ़ता है जिसे थोडी परेशानियाँ होती हैं. पर यह सब एक सीमा के अंदर ही होना चाहिए.
महिलाऐं थोडी नाज़ुक होती हैं. इसलिए उनके लिए थोड़े बहुत काँटों से भरे क्षण होने चाहिए. यह कांटे बहुत जरूरी हैं. पत्रकारिता की राह इतनी आसान नहीं होती. यह काँटों से भरी राह है और इसमें नाज़ुक बनने से काम नहीं चलेगा. मैं यह मानती हूँ कि वो लोग खुशनसीब होते हैं जो नाजुक नहीं होते हैं. हाँ बड़े घरों के बच्चे नाजुक होते हैं तो अच्छे लगते हैं. लेकिन पत्रकारिता में बहुत बड़े घरों के बच्चे नहीं आये. पत्रकारिता एक ऐसा पेशा है जिसमें पैसे तो कम मिलते ही हैं साथ संघर्ष करने के लिए भी सदैव तैयार रहना पड़ता है. तो हमलोग क्यों यह मानकर चलते हैं कि हमें सोने का या चांदी का चम्मच मिलेगा.
लेकिन दूसरी तरफ मैं यह भी कहूँगी कि शोषण करने वाले का स्वागत नहीं किया जाना चाहिए. शोषण करने वाले की आँखों में देखकर यह कहने की हिम्मत भी होनी चाहिए कि हम आपको अपना शोषण नहीं करने देंगें.

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