अगर कहा जाए कि सूचना का अधिकार कानून लागू किए जाने के तीन बरस बीत जाने तक सरकार ने इस कानून के प्रचार पर जितना खर्च किया, वह शायद एक नेता या नौकरशाह के कुछ महीनों के चाय-पानी के खर्च से भी कम है तो आपको अटपटा लगेगा, पर इस कानून के प्रचार-प्रसार के लिए केंद्र सरकार द्वारा किए गए खर्च की सच्चाई यही है।
BBCइसी कानून के तहत मिली जानकारी के मुताबिक केंद्र सरकार के सेवीवर्गीय एवं प्रशिक्षण विभाग (डिपार्टमेंट ऑफ पर्सोनल एंड ट्रेनिंग-डीओपीटी) ने अभी तक इस कानून के प्रचार-प्रसार पर तीन बरसों में कुल दो लाख रुपए खर्च किए हैं। केंद्र में सत्तारूढ़ यूपीए सरकार सूचना का अधिकार कानून को अपनी ऐतिहासिक उपलब्धियों में शामिल बताती है। यूपीए के कार्यकाल में ही 12 अक्टूबर 2005 को यह कानून देशभर में लागू किया गया। उस वक्त सरकार ने इस कानून के जरिए सरकारी कामकाज में पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित कराने की दिशा में लोगों के हाथ में एक मजबूत अधिकार दिए जाने की बात कही थी। पर्यवेक्षकों का कहना है कि जहाँ एक-एक योजना के प्रचार पर सरकार करोड़ों रुपए खर्च कर देती है, सूचना का अधिकार कानून के मामले में शायद सरकार की ऐसी कोई इच्छाशक्ति नहीं दिखाई दी। कितना किया खर्च..? : पिछले दिनों प्रधानमंत्री कार्यालय में इसी कानून के तहत आवेदन करके दिल्ली के एक युवा कार्यकर्ता अफरोज आलम ने यह जानकारी माँगी कि सरकार ने अभी तक इस कानून के प्रचार-प्रसार पर कितना पैसा खर्च किया। इसके जवाब में प्रधानमंत्री कार्यालय ने इस आवेदन को डीओपीटी को बढ़ा दिया। विभाग की ओर से इस बारे में दिया गया जवाब चौंकाने वाला है। विभाग के मुताबिक पिछले तीन बरसों में इस कानून के प्रचार के लिए कुल दो लाख रुपए खर्च किए गए हैं। यह पैसा डीएवीपी और प्रसार भारती के जरिए खर्च किया गया है। यानी इस आँकड़े के मुताबिक वर्ष में लगभग 66 हजार रुपए या यूँ कहें कि सरकार इस कानून के प्रचार पर औसत तौर पर हर महीने महज साढ़े पाँच हजार रुपए खर्च कर रही है। विभाग ने यह भी बताया है कि इस रकम के अलावा करीब दो लाख 80 हजार रुपए सरकारी विभागों, सूचना माँगने वालों, अपील अधिकारियों, जन अधिकारियों और केंद्रीय जन सूचना अधिकारियों को निर्देश आदि जारी करने पर खर्च कर दिया गया। यानी विभाग की ओर से सरकारी महकमे में जानकारी देने के लिए किया गया खर्च भी 100 करोड़ से ज़्यादा बड़ी आबादी के देश को सूचना का अधिकार कानून के बारे में बताने के लिए किए गए खर्च से ज्यादा है। कानून की उपेक्षा..? : सूचना का अधिकार अभियान से जुड़ी जानी-मानी समाजसेवी अरुणा रॉय कहती हैं इससे साफ है कि सरकार सूचना का अधिकार कानून को लोगों तक पहुँचाने के प्रति कितनी गंभीर है। इससे नौकरशाही का और सत्ता का इसके प्रति रवैया उजागर होता है। सूचना का अधिकार अभियान के एक अन्य मैग्सेसे पुरस्कार प्राप्त समाजसेवी अरविंद केजरीवाल भी सरकार की मंशा और नौकरशाही के रवैए पर ऐसे ही पटाक्षेप करते हैं।सूचना का अधिकार कानून का सेक्शन-चार कहता है कि विभागों को कामकाज से संबंधी सूचना तत्काल जारी करना और सार्वजनिक करना चाहिए। यही सेक्शन यह भी कहता है कि विभागों को इस कानून के बारे में लोगों के बीच सभी संभव संचार-प्रचार माध्यमों का इस्तेमाल कर लोगों को इससे अवगत कराना चाहिए। ...पर सरकार की ओर से इतने छोटे बजट का खर्च इस कानून की अवहेलना की कलई भी खोलता है।नौकरशाही पर निर्भर न रहें : भारत सरकार के मुख्य सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्लाह भी यह स्वीकार करते हैं कि इस कानून के प्रचार के लिए जितना पैसा खर्च किया गया है, वह काफी कम है। ...पर वे इसके लिए अलग रास्ता सुझाते हैं। उन्होंने कहा सरकार या विभागों का मुँह देखने के बजाय इस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि किस तरह से इस कानून को लेकर लोगों के बीच काम कर रहे संगठनों की मदद की जाए। उन्होंने कहा अगर विभागों पर ही इस कानून के प्रचार के लिए निर्भरता रहेगी तो नौकरशाही का कामकाज का तरीका इसे लेकर गंभीर नहीं होगा और अधिक पैसा देने पर भी उसका सही इस्तेमाल नहीं हो सकेगा। ऐसे में सरकार को उन संगठनों को पैसा देना चाहिए, जो इसके प्रचार को लेकर गंभीर हैं और इस पर काम कर रहे हैं।पर क्या मुट्ठीभर संगठनों और संसाधनों का अभाव इस विचार को बौना साबित नहीं कर देता, इस पर वे कहते हैं कि इसके लिए बड़े दानदाताओं की ओर देखना चाहिए। विश्व बैंक जैसी संस्थाएँ हजारों करोड़ रुपए का बजट ऐसे काम के लिए देने को तैयार हैं। इसके इस्तेमाल की दिशा तय करने की जरूरत है। केंद्रीय सूचना आयुक्त के तर्क और सूचना का अधिकार अभियान से जुड़े लोगों की चिंता कई संकेत देती हैं। राजनीतिक और नौकरशाही के हलकों में यह बात आम है कि सूचनाओं के सार्वजनिक होने से नेताओं और नौकरशाहों में चिंता है और हड़कंप है। विश्लेषक मानते हैं कि दुनियाभर में जो इतिहास भारत सरकार ने इस कानून को लागू करके रचा था, उसे इसके प्रचार-प्रसार के प्रति इस रवैये को देखकर ठेस पहुँची है। सवाल भी उठ रहे हैं कि प्रधानमंत्रियों के जन्मदिन और पुण्यतिथियों पर लाखों के विज्ञापन छपवा देने वाली सरकारें, अपनी उपलब्धियों पर मुस्कराती हुई तस्वीर छपवाने वाले मंत्रियों का आम आदमी को सूचना प्रदान करने वाले इस कानून के प्रति क्या रवैया है? संभार
BBCइसी कानून के तहत मिली जानकारी के मुताबिक केंद्र सरकार के सेवीवर्गीय एवं प्रशिक्षण विभाग (डिपार्टमेंट ऑफ पर्सोनल एंड ट्रेनिंग-डीओपीटी) ने अभी तक इस कानून के प्रचार-प्रसार पर तीन बरसों में कुल दो लाख रुपए खर्च किए हैं। केंद्र में सत्तारूढ़ यूपीए सरकार सूचना का अधिकार कानून को अपनी ऐतिहासिक उपलब्धियों में शामिल बताती है। यूपीए के कार्यकाल में ही 12 अक्टूबर 2005 को यह कानून देशभर में लागू किया गया। उस वक्त सरकार ने इस कानून के जरिए सरकारी कामकाज में पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित कराने की दिशा में लोगों के हाथ में एक मजबूत अधिकार दिए जाने की बात कही थी। पर्यवेक्षकों का कहना है कि जहाँ एक-एक योजना के प्रचार पर सरकार करोड़ों रुपए खर्च कर देती है, सूचना का अधिकार कानून के मामले में शायद सरकार की ऐसी कोई इच्छाशक्ति नहीं दिखाई दी। कितना किया खर्च..? : पिछले दिनों प्रधानमंत्री कार्यालय में इसी कानून के तहत आवेदन करके दिल्ली के एक युवा कार्यकर्ता अफरोज आलम ने यह जानकारी माँगी कि सरकार ने अभी तक इस कानून के प्रचार-प्रसार पर कितना पैसा खर्च किया। इसके जवाब में प्रधानमंत्री कार्यालय ने इस आवेदन को डीओपीटी को बढ़ा दिया। विभाग की ओर से इस बारे में दिया गया जवाब चौंकाने वाला है। विभाग के मुताबिक पिछले तीन बरसों में इस कानून के प्रचार के लिए कुल दो लाख रुपए खर्च किए गए हैं। यह पैसा डीएवीपी और प्रसार भारती के जरिए खर्च किया गया है। यानी इस आँकड़े के मुताबिक वर्ष में लगभग 66 हजार रुपए या यूँ कहें कि सरकार इस कानून के प्रचार पर औसत तौर पर हर महीने महज साढ़े पाँच हजार रुपए खर्च कर रही है। विभाग ने यह भी बताया है कि इस रकम के अलावा करीब दो लाख 80 हजार रुपए सरकारी विभागों, सूचना माँगने वालों, अपील अधिकारियों, जन अधिकारियों और केंद्रीय जन सूचना अधिकारियों को निर्देश आदि जारी करने पर खर्च कर दिया गया। यानी विभाग की ओर से सरकारी महकमे में जानकारी देने के लिए किया गया खर्च भी 100 करोड़ से ज़्यादा बड़ी आबादी के देश को सूचना का अधिकार कानून के बारे में बताने के लिए किए गए खर्च से ज्यादा है। कानून की उपेक्षा..? : सूचना का अधिकार अभियान से जुड़ी जानी-मानी समाजसेवी अरुणा रॉय कहती हैं इससे साफ है कि सरकार सूचना का अधिकार कानून को लोगों तक पहुँचाने के प्रति कितनी गंभीर है। इससे नौकरशाही का और सत्ता का इसके प्रति रवैया उजागर होता है। सूचना का अधिकार अभियान के एक अन्य मैग्सेसे पुरस्कार प्राप्त समाजसेवी अरविंद केजरीवाल भी सरकार की मंशा और नौकरशाही के रवैए पर ऐसे ही पटाक्षेप करते हैं।सूचना का अधिकार कानून का सेक्शन-चार कहता है कि विभागों को कामकाज से संबंधी सूचना तत्काल जारी करना और सार्वजनिक करना चाहिए। यही सेक्शन यह भी कहता है कि विभागों को इस कानून के बारे में लोगों के बीच सभी संभव संचार-प्रचार माध्यमों का इस्तेमाल कर लोगों को इससे अवगत कराना चाहिए। ...पर सरकार की ओर से इतने छोटे बजट का खर्च इस कानून की अवहेलना की कलई भी खोलता है।नौकरशाही पर निर्भर न रहें : भारत सरकार के मुख्य सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्लाह भी यह स्वीकार करते हैं कि इस कानून के प्रचार के लिए जितना पैसा खर्च किया गया है, वह काफी कम है। ...पर वे इसके लिए अलग रास्ता सुझाते हैं। उन्होंने कहा सरकार या विभागों का मुँह देखने के बजाय इस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि किस तरह से इस कानून को लेकर लोगों के बीच काम कर रहे संगठनों की मदद की जाए। उन्होंने कहा अगर विभागों पर ही इस कानून के प्रचार के लिए निर्भरता रहेगी तो नौकरशाही का कामकाज का तरीका इसे लेकर गंभीर नहीं होगा और अधिक पैसा देने पर भी उसका सही इस्तेमाल नहीं हो सकेगा। ऐसे में सरकार को उन संगठनों को पैसा देना चाहिए, जो इसके प्रचार को लेकर गंभीर हैं और इस पर काम कर रहे हैं।पर क्या मुट्ठीभर संगठनों और संसाधनों का अभाव इस विचार को बौना साबित नहीं कर देता, इस पर वे कहते हैं कि इसके लिए बड़े दानदाताओं की ओर देखना चाहिए। विश्व बैंक जैसी संस्थाएँ हजारों करोड़ रुपए का बजट ऐसे काम के लिए देने को तैयार हैं। इसके इस्तेमाल की दिशा तय करने की जरूरत है। केंद्रीय सूचना आयुक्त के तर्क और सूचना का अधिकार अभियान से जुड़े लोगों की चिंता कई संकेत देती हैं। राजनीतिक और नौकरशाही के हलकों में यह बात आम है कि सूचनाओं के सार्वजनिक होने से नेताओं और नौकरशाहों में चिंता है और हड़कंप है। विश्लेषक मानते हैं कि दुनियाभर में जो इतिहास भारत सरकार ने इस कानून को लागू करके रचा था, उसे इसके प्रचार-प्रसार के प्रति इस रवैये को देखकर ठेस पहुँची है। सवाल भी उठ रहे हैं कि प्रधानमंत्रियों के जन्मदिन और पुण्यतिथियों पर लाखों के विज्ञापन छपवा देने वाली सरकारें, अपनी उपलब्धियों पर मुस्कराती हुई तस्वीर छपवाने वाले मंत्रियों का आम आदमी को सूचना प्रदान करने वाले इस कानून के प्रति क्या रवैया है? संभार
वेब दुनिया
No comments:
Post a Comment