Monday, October 27, 2008

सेक्स क्षमता बढ़ाने के कई नुस्खे हैं आयुर्वेद में


आयुर्वेदिक दवा से पौरुष लौटाने के बाजारू जुमले पर अगर आपका भरोसा टूटा है तो आप निश्चित रूप से सोने की भस्म की नकली चमक के शिकार हुए हैं। दवा में सोने की असली भस्म होती तो सच मानिए आप अपनी मूँछों पर ताव दे रहे होते। लेकिन केवल स्वर्ण भस्म ही क्यों, आयुर्वेद में कई ऐसे नुस्खे हैं जो आदमी के सेक्स जीवन में गुणात्मक परिवर्तन लाते हैं। वैद्यों का कहना है कि कायाकल्प के लिए पंचकर्म की प्रक्रिया से गुजरने के बाद वैसे भी यह बदलाव आता है, लेकिन जड़ी-बूटियों से बनी कई दवाइयाँ हैं जो नामर्दगी का प्रभावी इलाज करती हैं। पौरुष लौटाने के आयुर्वेद के इस दावे की विश्वसनीयता जल्द ही बढ़ने वाली है। आनंद स्थित कृषि विभाग की शोध संस्था नेशनल रिसर्च सेंटर ऑन मेडिकल एंड एरोमेटिक प्लांट्स (एनआरसीएमएपी) में नामर्दगी को दूर करने का गुण रखने वाले पाँच पौधों पर शोध हो रहा है। इनमें अश्वगंधा भी शामिल है। संस्थान के विश्वस्त सूत्रों की मानें तो इस शोध के परिणाम आयुर्वेद के दावे को पुष्ट करते हैं। संस्थान के निदेशक एस. मैटी ने आनंद से टेलीफोन पर इस शोध की पुष्टि की लेकिन कहा कि हम इन पौधों में कुछ खास रसायनों के होने की पुष्टि के लिए शोध कर रहे हैं। नामर्दगी पर इन रसायनों का क्या प्रभाव प़ड़ता है, हमारा इस पहलू से कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन केरल यूनिवर्सिटी के पूर्व वाइस चांसलर व चमत्कारी पौधे नोनी पर रिसर्च के लिए स्थापित वर्ल्ड नोनी रिसर्च फाउंडेशन के निदेशक डॉ. केवी पीटर ने फोन पर बताया कि नोनी का रस भी मर्दानगी दूर करने में काफी प्रभावी साबित हुआ है। उनके पास इसके क्लिनिकल प्रमाण भी हैं। उन्होंने माना कि अश्वगंधा सहित अन्य रसायन मर्दानगी बढ़ाने की अचूक दवा हो सकती है। मूलचंद अस्पताल में आयुर्वेद के जाने-माने विशेषज्ञ डॉ. एसवी त्रिपाठी कहते हैं कि शरीर में विषैले पदार्थों की वजह से समय के पहले ही मर्द में सेक्स की ताकत कम हो जाती है। सिर्फ स्वर्ण भस्म ही नहीं, आयुर्वेद में इसे लौटाने की कई अचूक दवाएँ हैं, लेकिन इसके नाम पर जो दवा बाजार में बिक रही है, उसकी क्षमता पर सवाल है। दवा में सोने की भस्म होगी ही नहीं तो क्या फायदा होगा। इसके अलावा अश्वगंधा, शतावरी, गोक्षुर चूर्ण, तुलसी बीज के चूर्ण आदि प्रभावी दवाइयाँ हैं। आयुर्वेद में जिस प्रक्रिया से सेक्स की ताकत लौटाई जाती है उसे बाजीकरण विधि कहते हैं। लेकिन साथ ही वे यह भी कहते हैं कि 70 साल का कोई आदमी चाहे कि इस विधि से नामर्दगी का इलाज हो जाए तो यह कतई संभव नहीं है।उन्होंने दावा किया कि आयुर्वेद ही एकमात्र विधा है जिसमें कायाकल्प संभव है। जिस विधि से शरीर का शोधन यानी कायाकल्प किया जाता है उसे पंचकर्म कहते हैं। संभार
दंजय

पति से रोज पिटती हैं चालीस फीसदी महिलाएँ


बिहार के पति खुद को घर का शेर समझते हैं, इसलिए किसी न किसी बहाने अपनी पत्नियों पर वे सबसे ज्यादा घरेलू हिंसा करते हैं। दूसरी तरफ ऐसे अत्याचारी पतियों के खिलाफ हिम्मत जुटाकर कानून का हंटर चलाने में छत्तीसगढ़ की महिलाएँ सबसे आगे हैं। तीन साल में घरेलू हिंसा कानून के तहत पति के हाथों पिटने वाली छत्तीसगढ़ की महिलाओं ने पतियों के खिलाफ सबसे ज्यादा शिकायतें दर्ज कराई हैं। 2007 में जारी तीसरे राष्ट्रीय स्वास्थ्य परिवार सर्वेक्षण के मुताबिक देश की 40 फीसदी महिलाएँ किसी न किसी बहाने रोज ही अपने पतियों से पिटती हैं। शिक्षित महिलाओं पर जहाँ 12 फीसदी घरेलू हिंसा होती है, वहीं अशिक्षितों पर 59 फीसदी। इस मामले में बिहार सबसे आगे है, पर अत्याचारी पतियों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई और मामला दर्ज कराने में छत्तीसगढ़ की महिलाएँ ज्यादा सजग हैं। नेशनल क्राइम ब्यूरो के रिकॉर्ड के मुताबिक 2005 में पूरे देश में घरेलू हिंसा कानून के तहत 1497 मामले दर्ज किए गए। इसमें अकेले छत्तीसगढ़ से 1390 मामले हैं। 1996 आरोपियों के खिलाफ आरोप-पत्र दायर हुए और 184 के खिलाफ दोष सिद्घ हुए। 2076 लोगों को गिरफ्तार किया गया। घरेलू हिंसा के तहत मामले दर्ज कराने में छत्तीसगढ़ के बाद चंडीगढ़ की महिलाएँ सामने आई हैं। चंडीगढ़ में 2005 में 75 मामले दर्ज किए गए और 56 के खिलाफ आरोप-पत्र दायर किए गए। 148 लोगों पर इस कानून की गाज गिरी और वे गिरफ्तार हुए। वर्ष 2006 में भी छत्तीसगढ़ से ही सबसे ज्यादा मामले सामने आए। देशभर से 1736 मामले दर्ज हुए, जिसमें छत्तीसगढ़ की संख्या 1421 है। इनमें 1214 के खिलाफ आरोप-पत्र दायर हुआ तो 2028 लोगों की गिरफ्तारी हुई। गुजरात से घरेलू हिंसा के 150, पंजाब से 17 और उत्तरप्रदेश से 13 मामले सामने आए। वर्ष 2007 में घरेलू हिंसा के 2921 मामले दर्ज हुए। इसमें छत्तीसगढ़ से 1651 मामले दर्ज हुए। इनमें 1249 आरोपियों के खिलाफ आरोप-पत्र दायर हुए और 2206 पर कार्रवाई हुई। इस साल गुजरात में भी मामलों की संख्या बढ़ गई और 883 मामले दर्ज किए गए, वहीं महाराष्ट्र से 117, राजस्थान से 25 व यूपी से 25 मामले सामने आए। क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो में मध्यप्रदेश, झारखंड, बिहार, उड़ीसा, मेघालय और मिजोरम के रिकॉर्ड दर्ज नहीं है। घरेलू हिंसा कानून 26 अक्टूबर 2006 को प्रभाव में आया था, पर इस कानून को अमलीजामा पहनाने के लिए उड़ीसा, राजस्थान, पंजाब, झारखंड व कर्नाटक ने संरक्षण अधिकारियों की नियुक्ति नहीं की है।संभार

उत्तरांचल

दर्पण

Tuesday, October 21, 2008

उत्तराखंड भाजपा में फिर बग़ावत के स्वर


........... dehradun 21 oct 08 .. उत्तराखंड में दो महीने पहले 26 विधायकों ने मुख्यमंत्री भुवनचंद खंडूरी के ख़िलाफ़ बग़ावत कर दी थी लेकिन तब पार्टी हाईकमान ने उन्हें समझा बुझाकर पंचायत चुनाव तक शांत रहने के लिए मना लिया था.
अब जैसे ही पंचायत चुनाव समाप्त हुए हैं मुख्यमंत्री खंडूरी को हटाने के लिए असंतुष्ट विधायकों और मंत्रियों ने एक बार फिर मुहिम छेड़ दी है.
काशीपुर के विधायक हरभजन सिंह चीमा ने दावा किया है कि वो और उनके साथ 17 और विधायकों ने नेतृत्व परिवर्तन की मांग को लेकर भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह को अपना इस्तीफ़ा सौंप दिया है.
उनका कहना था," हमने पार्टी और जनता के हित में ये क़दम उठाया है. हम चाहते हैं कि लोक सभा चुनाव से पहले मुख्यमंत्री बदला जाए. अगर ऐसा नहीं हुआ तो लोक सभा चुनाव में पार्टी को इसका नुक़सान उठाना पड़ेगा."
पार्टी नेताओं का कहना है कि बाग़ी विधायकों की संख्या आठ है.
असंतुष्टों में बीना महाराना और त्रिवेंद्र रावत जैसे मंत्रियों के नाम प्रमुखता से लिए जा रहे हैं.
लेकिन जब तक ये लोग खुद खुलकर सामने नहीं आते हैं ये कहना मुश्किल है कि ये आरपार की लड़ाई है या सिर्फ़ दबाव की राजनीति.
ग़ौरतलब है कि 71 सदस्यों की विधानसभा में भाजपा के 37 विधायक हैं.
नाराज़गी
असंतुष्ट विधायक मुख्यमंत्री खंडूरी की कथित फौजी कार्यशैली और सरकार में अपनी उपेक्षा से नाराज़ बताए जाते हैं.
हमने पार्टी और जनता के हित में ये क़दम उठाया है. हम चाहते हैं कि लोक सभा चुनाव से पहले मुख्यमंत्री बदला जाए. अगर ऐसा नहीं हुआ तो लोक सभा चुनाव में पार्टी को इसका नुक़सान उठाना पड़ेगा

हरभजन सिंह चीमा, भाजपा विधायक
उनकी शिकायत है कि खंडूरी ने सभी महत्तवपूर्ण विभाग अपने हाथों में रखे हैं और अपनी ही सरकार में उनकी कोई पूछ नहीं है, नौकरशाही हावी है और अफ़सर उनकी बात नहीं मानते.
उधर बग़ावत की इन ख़बरों के बीच मुख्यमंत्री खंडूरी वरिष्ठ नेताओं से मुलाक़ात कर रहे हैं.
अपने निवास पर कुछ पत्रकारों से बात करते हुए उन्होंने दावा किया कि उनकी राजनाथ सिंह से बात हुई है और बकौल उनके राजनाथ सिंह ने कहा है कि उन्हें किसी का त्यागपत्र नहीं मिला है.
खंडूरी ने बग़ावत करनेवालों के ख़िलाफ़ अनुशासनात्मक कार्रवाई की चेतावनी भी दी है.
इस तरह से ये पहली बार है कि दोनों खेमे खुलकर सामने आ गए हैं और ऊंट किस करवट बैठेगा ये अब पार्टी हाईकमान के इशारे पर निर्भर करेगा.
फिलहाल चार राज्यों में विधानसभा चुनाव की तैयारियों में लगी भाजपा शायद हर कदम फूंक फूंक कर रखना चाहेगी.
भाजपा में मचे इस घमासान ने प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस को अतिरिक्त उत्साह से भर दिया है जो पहले से ही राहुल गांधी के तीन दिनों के उत्तराखंड के दौरे से बहुत उत्साहित है. उत्तरांचल
...दर्पण

Thursday, October 16, 2008

वह बेवफा हैं...तो गड़बड़ी जीन में है जनाब!



स्वीडन के वैज्ञानिकों ने तलाक और पुरुषों में मिलने वाले एक जीन के बीच एक खास संबंध देखा है। अब बहुत मु
मकिन है कि कुछ समय बाद तलाक के मसले सुलझाने के लिए दंपती काउंसिलर की जगह जिनेटिक क्लीनिक की राह पकड़ने लगें। कैरोलिंस्का इंस्टिट्यूट, स्टॉकहोम के हसी वैलम और उनके सहयोगियों ने इस जीन RS 3334 को 'तलाक जीन' का नाम दिया है। उन्होंने पाया कि पुरुषों में इस जीन की जितनी ज़्यादा कॉपियां होती हैं उनकी वैवाहिक ज़िंदगी में उतनी ही परेशानियां भी बढ़ती जाती हैं। अपने रिसर्च में उन्होंने स्वीडन के ट्विन ऐंड ऑफस्प्रिंग इंस्टिट्यूट के आंकड़ों का सहारा लिया। इसमें 550 जुड़वां बच्चों और उनके पार्टनर्स की केस स्टडी थी। वैज्ञानिकों ने अपनी रिसर्च हमारे शरीर में पाए जाने वाले एक ऐसे प्रोटीन पर केंद्रित की जो हॉर्मोन वैसोप्रेसिन के साथ प्रतिक्रिया करता है। माना जाता है कि वैसोप्रेसिन हमारे सामाजिक व्यवहार को निर्धारित करने में अहम भूमिका निभाता है। इसके बाद शोधकर्ताओं ने इसकी तुलना टेस्ट में भाग लेने वाले जोड़ों के सवालों-जवाबों से की। इनसे उनके आपसी संबंधों की मज़बूती को नापा जाना था। वैज्ञानिकों ने पाया कि कि जिन लोगों के शरीर में RS 3334 जीन की एक कॉपी थी उनका स्कोर उन जोड़ों से कम था जिनके पुरुष पार्टनर के शरीर में इस जीन की एक भी कॉपी नहीं थी। यही नहीं जीन की एक या दो कॉपी वाले पुरुषों की पत्नियां भी उन महिलाओं की तुलना में अपने पतियों से कम संतुष्ट थीं जिनके पति के शरीर में इस जीन की कोई कॉपी नहीं थी। इसी तरह जीन की दो या ज़्यादा कॉपी वाली महिलाएं अपने पतियों से बहुत ज़्यादा परेशान थीं। जैसे-जैसे जीन की कॉपियां बढ़ती गईं पुरुषों का अपनी पत्नी के लिए कमिटमंट भी कम होता गया। ऐसा भी देखा गया कि ऐसे पुरुष शादी की ज़िम्मेदारी या ज़िंदगी भर एक ही पार्टनर का साथ निभाने से बचने की कोशिश करते थे। हालांकि, वैज्ञानिकों का कहना है कि किसी भी रिलेशनशिप में समस्याओं के कई कारण हो सकते हैं। वैलम भी जोर देकर कहते हैं कि महज़ जीन के आधार पर किसी पुरुष के व्यवहार का आकलन करना ठीक नहीं होगा। लेकिन वह यह भी कहते हैं कि इस जीन के भेड़ियों में इसी तरह के असर से हमारी स्टडी को काफी बल मिलता है। फिर भी इस रिसर्च से इस बात की उम्मीद की जा सकती है कि वैज्ञानिक एक दिन ऐसी दवाएं बना सकेंगे जो इस जीन पर असर करके शादियों को टूटने से बचा सकें।

...खाने के और, दिखाने के और'


अगर कहा जाए कि सूचना का अधिकार कानून लागू किए जाने के तीन बरस बीत जाने तक सरकार ने इस कानून के प्रचार पर जितना खर्च किया, वह शायद एक नेता या नौकरशाह के कुछ महीनों के चाय-पानी के खर्च से भी कम है तो आपको अटपटा लगेगा, पर इस कानून के प्रचार-प्रसार के लिए केंद्र सरकार द्वारा किए गए खर्च की सच्चाई यही है।
BBCइसी कानून के तहत मिली जानकारी के मुताबिक केंद्र सरकार के सेवीवर्गीय एवं प्रशिक्षण विभाग (डिपार्टमेंट ऑफ पर्सोनल एंड ट्रेनिंग-डीओपीटी) ने अभी तक इस कानून के प्रचार-प्रसार पर तीन बरसों में कुल दो लाख रुपए खर्च किए हैं। केंद्र में सत्तारूढ़ यूपीए सरकार सूचना का अधिकार कानून को अपनी ऐतिहासिक उपलब्धियों में शामिल बताती है। यूपीए के कार्यकाल में ही 12 अक्टूबर 2005 को यह कानून देशभर में लागू किया गया। उस वक्त सरकार ने इस कानून के जरिए सरकारी कामकाज में पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित कराने की दिशा में लोगों के हाथ में एक मजबूत अधिकार दिए जाने की बात कही थी। पर्यवेक्षकों का कहना है कि जहाँ एक-एक योजना के प्रचार पर सरकार करोड़ों रुपए खर्च कर देती है, सूचना का अधिकार कानून के मामले में शायद सरकार की ऐसी कोई इच्छाशक्ति नहीं दिखाई दी। कितना किया खर्च..? : पिछले दिनों प्रधानमंत्री कार्यालय में इसी कानून के तहत आवेदन करके दिल्ली के एक युवा कार्यकर्ता अफरोज आलम ने यह जानकारी माँगी कि सरकार ने अभी तक इस कानून के प्रचार-प्रसार पर कितना पैसा खर्च किया। इसके जवाब में प्रधानमंत्री कार्यालय ने इस आवेदन को डीओपीटी को बढ़ा दिया। विभाग की ओर से इस बारे में दिया गया जवाब चौंकाने वाला है। विभाग के मुताबिक पिछले तीन बरसों में इस कानून के प्रचार के लिए कुल दो लाख रुपए खर्च किए गए हैं। यह पैसा डीएवीपी और प्रसार भारती के जरिए खर्च किया गया है। यानी इस आँकड़े के मुताबिक वर्ष में लगभग 66 हजार रुपए या यूँ कहें कि सरकार इस कानून के प्रचार पर औसत तौर पर हर महीने महज साढ़े पाँच हजार रुपए खर्च कर रही है। विभाग ने यह भी बताया है कि इस रकम के अलावा करीब दो लाख 80 हजार रुपए सरकारी विभागों, सूचना माँगने वालों, अपील अधिकारियों, जन अधिकारियों और केंद्रीय जन सूचना अधिकारियों को निर्देश आदि जारी करने पर खर्च कर दिया गया। यानी विभाग की ओर से सरकारी महकमे में जानकारी देने के लिए किया गया खर्च भी 100 करोड़ से ज़्यादा बड़ी आबादी के देश को सूचना का अधिकार कानून के बारे में बताने के लिए किए गए खर्च से ज्यादा है। कानून की उपेक्षा..? : सूचना का अधिकार अभियान से जुड़ी जानी-मानी समाजसेवी अरुणा रॉय कहती हैं इससे साफ है कि सरकार सूचना का अधिकार कानून को लोगों तक पहुँचाने के प्रति कितनी गंभीर है। इससे नौकरशाही का और सत्ता का इसके प्रति रवैया उजागर होता है। सूचना का अधिकार अभियान के एक अन्य मैग्सेसे पुरस्कार प्राप्त समाजसेवी अरविंद केजरीवाल भी सरकार की मंशा और नौकरशाही के रवैए पर ऐसे ही पटाक्षेप करते हैं।सूचना का अधिकार कानून का सेक्शन-चार कहता है कि विभागों को कामकाज से संबंधी सूचना तत्काल जारी करना और सार्वजनिक करना चाहिए। यही सेक्शन यह भी कहता है कि विभागों को इस कानून के बारे में लोगों के बीच सभी संभव संचार-प्रचार माध्यमों का इस्तेमाल कर लोगों को इससे अवगत कराना चाहिए। ...पर सरकार की ओर से इतने छोटे बजट का खर्च इस कानून की अवहेलना की कलई भी खोलता है।नौकरशाही पर निर्भर न रहें : भारत सरकार के मुख्य सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्लाह भी यह स्वीकार करते हैं कि इस कानून के प्रचार के लिए जितना पैसा खर्च किया गया है, वह काफी कम है। ...पर वे इसके लिए अलग रास्ता सुझाते हैं। उन्होंने कहा सरकार या विभागों का मुँह देखने के बजाय इस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि किस तरह से इस कानून को लेकर लोगों के बीच काम कर रहे संगठनों की मदद की जाए। उन्होंने कहा अगर विभागों पर ही इस कानून के प्रचार के लिए निर्भरता रहेगी तो नौकरशाही का कामकाज का तरीका इसे लेकर गंभीर नहीं होगा और अधिक पैसा देने पर भी उसका सही इस्तेमाल नहीं हो सकेगा। ऐसे में सरकार को उन संगठनों को पैसा देना चाहिए, जो इसके प्रचार को लेकर गंभीर हैं और इस पर काम कर रहे हैं।पर क्या मुट्ठीभर संगठनों और संसाधनों का अभाव इस विचार को बौना साबित नहीं कर देता, इस पर वे कहते हैं कि इसके लिए बड़े दानदाताओं की ओर देखना चाहिए। विश्व बैंक जैसी संस्थाएँ हजारों करोड़ रुपए का बजट ऐसे काम के लिए देने को तैयार हैं। इसके इस्तेमाल की दिशा तय करने की जरूरत है। केंद्रीय सूचना आयुक्त के तर्क और सूचना का अधिकार अभियान से जुड़े लोगों की चिंता कई संकेत देती हैं। राजनीतिक और नौकरशाही के हलकों में यह बात आम है कि सूचनाओं के सार्वजनिक होने से नेताओं और नौकरशाहों में चिंता है और हड़कंप है। विश्लेषक मानते हैं कि दुनियाभर में जो इतिहास भारत सरकार ने इस कानून को लागू करके रचा था, उसे इसके प्रचार-प्रसार के प्रति इस रवैये को देखकर ठेस पहुँची है। सवाल भी उठ रहे हैं कि प्रधानमंत्रियों के जन्मदिन और पुण्यतिथियों पर लाखों के विज्ञापन छपवा देने वाली सरकारें, अपनी उपलब्धियों पर मुस्कराती हुई तस्वीर छपवाने वाले मंत्रियों का आम आदमी को सूचना प्रदान करने वाले इस कानून के प्रति क्या रवैया है? संभार

वेब दुनिया

बॉस दिवस भारत में भी हो


अमेरिका में जहाँ बॉस और कर्मचारियों के बीच संबंधों को सामान्य बनाने के लिए हर साल 16 अक्‍टूबर को बॉस दिवस मनाया जाता है, वहीं बढ़ते उदारीकरण और बाजारवाद के दौर में भारत में बॉस और कर्मचारियों के बीच के संबंध बहस का मुद्दा हैं, लेकिन कई लोगों का मानना है कि ऐसा दिन यहाँ भी मनाया जाना चाहिए।'रॉबर्ट हाफ इंटरनेशनल' के सर्वेक्षण अनुसार जहाँ 85 प्रतिशत कर्मचारियों को बॉस कर्मचारी संबंधों में दरार की वजह से अपनी नौकरी गँवानी पड़ती है, वहीं केली सर्विसेस के एक अन्य सर्वेक्षण के मुताबिक भारत दुनिया में ऐसा देश है जहाँ कर्मचारि‍यों में सबसे ज्यादा संतोष है।एसोचैम द्वारा इस साल 2 हजार 500 कर्मचारियों पर कराए गए एक अध्ययन के मुताबिक देश में 68 प्रतिशत कर्मचारी पुरुष बॉस पसंद करते हैं, जबकि बाकी 32 प्रतिशत ने अपनी कोई वरीयता नहीं बताई।विशेषज्ञों के अनुसार कार्यस्थल एक ऐसा स्थान है जहाँ लोग अपने जीवन का महत्वपूर्ण समय बिताते हैं और वहाँ की चुनौतियाँ एवं तनाव उनके निजी जीवन पर गहरा असर छोड़ते हैं।उनका कहना कि यही वजह है कि कंपनियों में अब ओपन डोर पॉलिसी अपनाई जा रही है जहाँ कंपनी का मुख्य कार्यकारी अधिकारी तक हमेशा पहुँच बनी रहती है ताकि कर्मचारी अपनी बात शीर्ष स्तर पर आसानी से पहुँचा सकें और उनकी कार्यकुशलता में बॉस के निर्णय की वजह से कोई बाधा नहीं आए।
NDमनोचिकित्सकों के अनुसार कर्मचारियों की कार्यालयी समस्याओं को यदि सिरे से खारिज कर दिया जाता है तो उनमें तनाव घर करने की आशंका बढ़ जाती है और कार्यालयी समस्याओं की वजह से कुछ लोग उस हद तक जा सकते हैं जो मानव जीवन के लिए उचित नहीं है।नोएडा स्थित एक कंपनी के प्रबंधक का इस संबंध में कहना है कि बॉस को कर्मचारियों के काम की प्रशंसा करनी चाहिए। उनके साथ मित्रवत व्यवहार करना चाहिए। आमतौर पर भारत में ऐसा नहीं हो पाता। वह अपने को बॉस के तौर पर ही पेश करता है और यही कारण है कि अकसर बॉस अलोकप्रिय हो जाते हैं।संभार

... वेब दुनिया

मैं एनडी तिवारी का बेटा हूं: रोहित शेखर


नई दिल्ली : एक पूर्व केंद्रीय मंत्री के नाती ने खुद को आंध्र प्रदेश के राज्यपाल नारायण दत्त ति
वारी का बेटा बताया है और वह अपने दावे को लेकर दिल्ली हाइ कोर्ट चला गया है। पूर्व केंदीय मंत्री शेर सिंह के 29 साल के नाती रोहित शेखर ने दिल्ली हाइ कोर्ट में मामला दायर कर कहा है कि वह तिवारी और अपनी मां उज्ज्वला सिंह के बीच रहे संबंधों से पैदा हुआ, जो खुद भी कांग्रेस पार्टी से जुड़ी हुई हैं। हैदराबाद में राजभवन से इस बारे में प्रतिक्रिया लेने के सभी कोशिशें नाकाम रही हैं। इस बारे में जब उज्ज्वला से संपर्क किया गया तो उन्होंने कहा कि तिवारी द्वारा रोहित को अपना बेटा मानने से इनकार कर देने पर उसे दिल्ली हाइ कोर्ट जाना पड़ा। उज्ज्वला ने फोन पर कहा, मैं एक सम्मानित परिवार से ताल्लुक रखती हूं। मेरे पिता केंद्रीय मंत्री थे। इस तरह की बात का खुली अदालत में खुलासा करने के लिए साहस की जरूरत है, लेकिन मैं अपने बेटे रोहित के साथ हूं क्योंकि तिवारी उसे उसका हक देने से इनकार कर रहे हैं। उन्होंने बताया कि अदालत अप्रैल में तिवारी को नोटिस जारी कर चुकी है। उज्ज्वला ने बताया कि तिवारी ने उनके साथ की बात स्वीकारी, लेकिन कोई संबंध रखने से इनकार कर दिया। उज्ज्वला ने कहा तिवारी को पिता साबित करने के लिए उनका बेटा डीएनए परीक्षण के लिए तैयार है, लेकिन तिवारी इसके लिए तैयार नहीं हैं। उज्ज्वला के अनुसार उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी ने कहा है कि ऐसा कोई कानूनी प्रावधान नहीं है, जिससे उन्हें डीएनए परीक्षण के लिए मजबूर किया जा सके। तिवारी ने दिल्ली हाइ कोर्ट के अधिकार क्षेत्र पर भी सवाल किया है क्योंकि वह इस समय हैदराबाद में रह रहे हैं और रोहित लखनऊ में पैदा हुआ था। ऐसा माना जा रहा है कि उन्होंने संबंधित पक्ष की इच्छा के उलट डीएनए परीक्षण का आदेश देने की अदालत की शक्ति को भी चुनौती दी है। अदालत ने अप्रैल में रोहित की याचिका सुनवाई के लिए स्वीकार की थी और तिवारी से जवाब मांगा


संभार ... नवभारत