Monday, November 17, 2008

पत्रकरिता का गिरता इस्टर कितना ठीक है


आजादी की लड़ाई के दौर में और उसके बाद भी प्रेस की भूमिका लोकतंत्र औरसमाज के पहरेदार की थी। अखबार लोकतंत्र का चौथा स्तंभ था और मिशन भी।तमाम परिवर्तनों और पतन के बावजूद ८क् के दशक तक यह स्थिति कायम रही।लेकिन उसके बाद ग्लोबलाइजेशन, उदारीकरण और मुक्त अर्थव्यवस्था ने पूरीदुनिया के पैमाने पर अखबारों की भूमिका ही बदल डाली। एक ऐसे दौर में,जहां सब कुछ बाजार और सत्ता की शक्तियों से संचालित है, अखबार उससे अछूतेकैसे रह सकते हैं। अब अखबार कोई मिशन नहीं रह गए हैं, बल्कि साम्राज्यवादने जिस संस्कृति का प्रसार किया है, उसके वाहक बन चुके हैं।पूरी दुनिया में बाजार के फैलने के साथ अचानक मीडिया में एक बाढ़-सी आगई। भारी संख्या में अखबार, न्यूज चैनल और पत्रिकाओं की शुरुआत हुई।रातों-रात मीडिया की तस्वीर ही बदल गई। मीडिया में यह विस्फोट किसी बड़ेसामाजिक बदलाव या जरूरत का नतीजा नहीं था। यह बदलते हुए समय और बाजार कीआवश्यकता थी।अखबारों ने इसे समझा और पूरा किया। लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में प्रेस नेअपने सामाजिक सरोकार तो खोए ही, साथ ही अपनी विश्वसनीयता भी खो दी। ८क्के दशक में जब दूरदर्शन पर नुक्कड़, तमस जैसे धारावाहिक प्रसारित होते थेतो लगता था कि बड़े पैमाने पर एक अर्थपूर्ण विचार कला के माध्यम सेलाखांे लोगों तक पहुंचाया जा रहा है। लेकिन आज स्थितियां पूरी तरह बदलचुकी हैं। टेलीविजन, अखबार, मीडिया कहीं भी वह नैतिक और सांस्कृतिकउदात्तता नजर नहीं आती।आज इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया के बीच संबंध आदान-प्रदान का नहीं,बल्कि विरोध और प्रतिस्पर्धा का है। आज टीवी पर कोई खबर दिखाई जाती है तोउस पर भी राजनीतिक स्वार्थ हावी होते हैं। कभी उनका राजनीति और दलवादनिरपेक्ष विश्लेषण नहीं हो पाता है। मालेगांव वाली घटना इसका सबसेताजातरीन उदाहरण है और यह स्थिति सिर्फ हिंदुस्तान में नहीं है।पूरी दुनिया में जो साम्राज्यवादी खेल चल रहा है, प्रेस उस खेल का सबसेसजग और तत्पर कारिंदा है। अखबारों में अब संपादकों की भी पहले जैसीभूमिका नहीं रह गई है। उनसे बौद्धिक योग्यता और विचारशीलता की उम्मीदनहीं की जाती। वे बाजार के समीकरणों से वाकिफ हों, बस इतना ही काफी है।
अखबार किसी भी समाज का आईना होते हैं। अपने युग के दुख, उसके कंपन, उसकेयथार्थ की सही और पारदर्शी तस्वीर दिखाना उनकी नैतिक जिम्मेदारी है। अगर१८५७ के गदर के समय के अखबार उठाकर देखें तो उनमें उस क्रांति की आहट नजरआती है। ऐसा नहीं था कि एक दिन अचानक लोग उठे और ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफविद्रोह कर दिया। वर्षो से समाज में इस विद्रोह की सुगबुगाहट थी औरतत्कालीन अखबारों में इसे महसूस किया जा सकता था।ऐसा इसलिए हो सका क्योंकि वे अखबार अपने समय का आईना थे, अपने युग कीआवाज थे। उस समय, जब अंग्रेजी अखबारों को लगता था कि हिंदुस्तान के लिएअंग्रेज कोई बहुत बड़ी चुनौती नहीं हैं, भाषाई अखबारों ने इसे गलत साबितकिया। उन्होंने जन जागरण का बीड़ा उठाया। इतिहास में प्रेस की ऐसीअभूतपूर्व सामाजिक भूमिका की मिसालें आज भी उंगलियों पर गिनी जा सकतीहैं। लेकिन आज हमारे अखबार अपने समय और समाज की धड़कनों को नहीं पढ़ पारहे हैं। खबरों के विश्लेषण में जन-पक्षधरता नहीं, सत्ता पक्षधरता साफनजर आती है।बाजार के बदलते समीकरण आने वाले समय में प्रेस पर निश्चित ही असरडालेंगे, लेकिन अगर अखबारों को अपनी अर्थवत्ता बनाए रखनी है तो उन्हेंअपनी जिम्मेदारी को समझना होगा। अखबारों का बुनियादी काम सूचना देना है।उस सूचना के साथ काट-छांट, दुराव-छिपाव और पूर्वाग्रह नहीं होने चाहिए।सीधी, स्पष्ट और जनता के हक की बात होनी चाहिए।इसे बदलना किसी व्यक्ति विशेष के हाथ में नहीं है। समय इसे खुद-ब-खुदबदलेगा, लेकिन अगर इतिहास के पन्नों पर प्रेस का नाम हमेशा सम्मान व गौरवके साथ अंकित होना है तो उसे इस बारे में गंभीरता से विचार करना होगा। कही हम सचता नही हुआ तो हमे सोचा न होगा ,,,,,,,,,,,,,

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